हरिपाल त्यागी;कला की नशीली महक
हरिपाल त्यागी;कला की नशीली महक
हरिपाल त्यागी जी का जन्म, 20 अप्रैल सन् 1934 ई0 को जनपद बिजनौर के ग्राम महुवा में हुआ।आपके पिता का नाम श्री शेर सिंह त्यागी तथा माता का नाम श्रीमती दयावती देवी था। महुवा गाँव के नाम में एक नशीली महक है।ऐसी ही महक गाँव के लोगों की जिन्दगी में भी है। छोटा किसान परिवार, घर में गरीबी तो थी ही उससे भी कहीं ज्यादा कंजूसी थी। इस तरसाव ने हरिपाल के मन में चीजों के प्रति, गहरी ललक पैदा कर दी। उन्हें सहज ढंग से पाने में जो रस है, उससे कहीं ज्यादा रस घोल दिया।
हरिपाल जी के ,ताऊ जी के बेटे रविंद्रनाथ त्यागी पढ़ाई में कुछ साल आगे थे ,कमरे में तीन तस्वीरें-स्वामी दयानन्द, गा्रमोफोन और ताला। उन्हें देख, हरिपाल त्यागी जी को ललक उठी, कहीं से रंग मिल जाये तो वह भी अपनी तस्वीरोें में रंग भर सके। हरिपाल, परिवार में इकलौता बेटा। पिता की उससे बेहद प्यार। लेकिन प्यार प्रकट करने का अपना अंदाज। पढ़ाई में हरिपाल की बहुत कम दिलचस्पी थी। समय मिलतेे ही तस्वीरें और माटी की मूंरतें बनाते ।
बचपन में मुशीराम की नौटंकी पार्टी गाँव में आयी। नौटंकी की कमलाबाई ने हरिपाल के बालमन को आन्दोलित किया। कमलाबाई के कहने पर ‘सरवर नीर‘ नाटक के कलाकार के बीमार हो जाने के कारण, हरिपाल ने ‘नीर‘ का पात्र निभाया। कमलाबाई और मुंशीराम ने कमर थपथपाई थी। लेकिन सुबह किसी ने पिताजी को यह जानकारी दे दी-घर में कोहराम मच गया। हरिपाल की पिटाई हुई ओर साथ ही चेतावनी भी मिली-‘खबरदार, आज के बाद नौटंकी की तरफ नजर उठाकर देखा तो............।‘तीसरे दिन, कमलाबाई मुंशीराम के साथ् गाड़ी में बैठकर चली गई..
1948 में गाँव में साम्प्रदायिक दंगा हो गया। हरिपाल के पिताजी को भी गम्भीर चोटें आई। वह गाँव छोड़कर परिवार को बिजनौर ले आये। चार भैसें खरीद कर दूध बेचने का धंधा शुरू किया। हरिपाल स्कूल जाता, भैंसों को चराता, सुबह-शाम ग्राहको के घर दूध पहुँचाने जाता। भैसों के साथ, दोस्ती के इस समय की हरिपाल ने अपनी कहानी ‘दँरी‘ में बहुत करीने से उभारा है। चित्रकला में भी, भैसों की तीखी मुद्राओं के अंकन में उन्हें महारत हासिल है।हरिपाल त्यागी लब्ध प्रतिष्ठित चित्रकार होने के साथ ही साथ विख्यात साहित्य सेवी भी हैं। बाबा नागार्जुन ने इस सन्दर्भ में लिखा हैं-
सादी कागद हो भले, सादी हो दीवाल।
रेखन सौ जादूँ भरै, कलाकार हरिपाल।।
इत-उत दीखें गंगजल, नाहीं जहाँ अकाल।
धरा धन्य बिजनौर की, जंह प्रगटे हरिपाल।।
हरिपाल को काम करते देखना एक चैकाने वाला अनुभव है। पेंटिग शुरू करने से पहले उसे हल्की-हल्की सी हरारत हो जाती है। आँखें चढ़ जाती हैं। चेहरे और हाथों में तनाव आ जाता है.....संवेदना उसकी आधारभूत पुंजी है। वह अपने बारे में बड़ी मा sमियत से कहता है-पता नहीं इस काया में हाड़मास है या नहीं। ऊपर से नीचे तक तो संवेदना ही संवेदना है। हरिपाल लाजिम तौर पर देहाती आदमी है।
जीवन में मेरा जितने भी त्यागियों से पाला पड़ा है, उनमें ऐसा कुछ खास जरूर रहा है, जो मेरे लिये आत्मीयता के नए आयाम जोड़ता गया है। कलाकार और कवि हरिपाल त्यागी मेरी जिदंगी की ऐसी ही हलचलों में एक है।हरिपाल भाई का सानिध्य, हँसी चुटकुले, कहकहे सुनकर पिता जी (स्व0 महावीर त्यागी), की बहुत याद आती है, वह कहा करते थे-‘हर व्यक्ति के जीवन में किसी न किसी कला से लगाव रखना चाहिए.............।
‘आज मैं अपने कलाकार भाई को ऐसा व्यक्ति पाती हँँ, जो कलाकार होने के साथ, हँसमुख प्रसन्न और लोकसेवी हैं।हरिपाल त्यागी के व्यक्तित्व का एक और पहलँ है, उनकी गहन साहित्यिक रूचि ओर समझ। वह न केवल मंजे हुऐ चित्रकार है, अपितु एक सजग कवि और कथाकार भी हैं।
चित्रकार के रूप में हरिपाल त्यागी ने भरपँर ख्याति अर्जित की है, लेकिन उनके अन्दर एक कलाकार के साथ-साथ संवेदनशील साहित्यकार भी सांस लेता है। उनके चित्रों के स्वप्निल संसार जैसा ही आकर्षक एवं इन्द्रधनुषी है, उनके शब्दों का शिल्प।
बचपन में उनके गाँव महुवा में झाड़ी चमार द्वारा पहना गया त्यागी जी का निकर और उसके तेल चुपडे़ बाल एवं बचपन में त्यागी जी का प्रिय टोप, बाद में जिसे होली के मौके पर स्वाँग भरते समय मथुरा बढ़ई मुँह पर खड़िया पोत कर वह टोप लगाकर ‘इंगरेज‘ बना करता था-कि स्मृति आज भी उन्हें ज्योंकि त्यों बनी है।आत्मकथा के रूप में हरिपाल त्यागी ने ‘महानगर की अधूरी इबारत‘ शीर्षक से पाठकों को चमत्कृत किया।
कहानी ‘खुशी, डाइनिंग टेबिल‘ तथा कविता ‘हूँ तो एवं गुजरता हुआ दिन‘ में त्यागी जी का काव्य सोष्ठव देखते ही बनता है। उनकी कविताऐं उनके चित्रों के करीब हैं और एब्सट्रेक्ट भी होती हैं।कुल मिलाकर, हरिपाल त्यागी जी कूँची और कलम के ऐसे अद्वितीय कलाकार हैं, जिन पर जनपद बिजनौर सहज ही गर्व करता है, उन्होंने इस जनपद की पहचान, कला और साहित्य के मणिकांचन संयोग द्वारा-विशिष्ट बनाकर ,राष्ट्रीय स्तर पर अपनी उल्लेखनीय उपस्थिति दर्ज की है।
20 अप्रैल 2014 ,को हरिपाल जी के 80 वें जन्मदिन पर ,अभिनंदन
सहित ,शतायु होने की प्रभु से कामना है।
-- डॉ उषा त्यागी ,
हरिपाल त्यागी जी का जन्म, 20 अप्रैल सन् 1934 ई0 को जनपद बिजनौर के ग्राम महुवा में हुआ।आपके पिता का नाम श्री शेर सिंह त्यागी तथा माता का नाम श्रीमती दयावती देवी था। महुवा गाँव के नाम में एक नशीली महक है।ऐसी ही महक गाँव के लोगों की जिन्दगी में भी है। छोटा किसान परिवार, घर में गरीबी तो थी ही उससे भी कहीं ज्यादा कंजूसी थी। इस तरसाव ने हरिपाल के मन में चीजों के प्रति, गहरी ललक पैदा कर दी। उन्हें सहज ढंग से पाने में जो रस है, उससे कहीं ज्यादा रस घोल दिया।
हरिपाल जी के ,ताऊ जी के बेटे रविंद्रनाथ त्यागी पढ़ाई में कुछ साल आगे थे ,कमरे में तीन तस्वीरें-स्वामी दयानन्द, गा्रमोफोन और ताला। उन्हें देख, हरिपाल त्यागी जी को ललक उठी, कहीं से रंग मिल जाये तो वह भी अपनी तस्वीरोें में रंग भर सके। हरिपाल, परिवार में इकलौता बेटा। पिता की उससे बेहद प्यार। लेकिन प्यार प्रकट करने का अपना अंदाज। पढ़ाई में हरिपाल की बहुत कम दिलचस्पी थी। समय मिलतेे ही तस्वीरें और माटी की मूंरतें बनाते ।
बचपन में मुशीराम की नौटंकी पार्टी गाँव में आयी। नौटंकी की कमलाबाई ने हरिपाल के बालमन को आन्दोलित किया। कमलाबाई के कहने पर ‘सरवर नीर‘ नाटक के कलाकार के बीमार हो जाने के कारण, हरिपाल ने ‘नीर‘ का पात्र निभाया। कमलाबाई और मुंशीराम ने कमर थपथपाई थी। लेकिन सुबह किसी ने पिताजी को यह जानकारी दे दी-घर में कोहराम मच गया। हरिपाल की पिटाई हुई ओर साथ ही चेतावनी भी मिली-‘खबरदार, आज के बाद नौटंकी की तरफ नजर उठाकर देखा तो............।‘तीसरे दिन, कमलाबाई मुंशीराम के साथ् गाड़ी में बैठकर चली गई..
1948 में गाँव में साम्प्रदायिक दंगा हो गया। हरिपाल के पिताजी को भी गम्भीर चोटें आई। वह गाँव छोड़कर परिवार को बिजनौर ले आये। चार भैसें खरीद कर दूध बेचने का धंधा शुरू किया। हरिपाल स्कूल जाता, भैंसों को चराता, सुबह-शाम ग्राहको के घर दूध पहुँचाने जाता। भैसों के साथ, दोस्ती के इस समय की हरिपाल ने अपनी कहानी ‘दँरी‘ में बहुत करीने से उभारा है। चित्रकला में भी, भैसों की तीखी मुद्राओं के अंकन में उन्हें महारत हासिल है।हरिपाल त्यागी लब्ध प्रतिष्ठित चित्रकार होने के साथ ही साथ विख्यात साहित्य सेवी भी हैं। बाबा नागार्जुन ने इस सन्दर्भ में लिखा हैं-
सादी कागद हो भले, सादी हो दीवाल।
रेखन सौ जादूँ भरै, कलाकार हरिपाल।।
इत-उत दीखें गंगजल, नाहीं जहाँ अकाल।
धरा धन्य बिजनौर की, जंह प्रगटे हरिपाल।।
हरिपाल को काम करते देखना एक चैकाने वाला अनुभव है। पेंटिग शुरू करने से पहले उसे हल्की-हल्की सी हरारत हो जाती है। आँखें चढ़ जाती हैं। चेहरे और हाथों में तनाव आ जाता है.....संवेदना उसकी आधारभूत पुंजी है। वह अपने बारे में बड़ी मा sमियत से कहता है-पता नहीं इस काया में हाड़मास है या नहीं। ऊपर से नीचे तक तो संवेदना ही संवेदना है। हरिपाल लाजिम तौर पर देहाती आदमी है।
जीवन में मेरा जितने भी त्यागियों से पाला पड़ा है, उनमें ऐसा कुछ खास जरूर रहा है, जो मेरे लिये आत्मीयता के नए आयाम जोड़ता गया है। कलाकार और कवि हरिपाल त्यागी मेरी जिदंगी की ऐसी ही हलचलों में एक है।हरिपाल भाई का सानिध्य, हँसी चुटकुले, कहकहे सुनकर पिता जी (स्व0 महावीर त्यागी), की बहुत याद आती है, वह कहा करते थे-‘हर व्यक्ति के जीवन में किसी न किसी कला से लगाव रखना चाहिए.............।
‘आज मैं अपने कलाकार भाई को ऐसा व्यक्ति पाती हँँ, जो कलाकार होने के साथ, हँसमुख प्रसन्न और लोकसेवी हैं।हरिपाल त्यागी के व्यक्तित्व का एक और पहलँ है, उनकी गहन साहित्यिक रूचि ओर समझ। वह न केवल मंजे हुऐ चित्रकार है, अपितु एक सजग कवि और कथाकार भी हैं।
चित्रकार के रूप में हरिपाल त्यागी ने भरपँर ख्याति अर्जित की है, लेकिन उनके अन्दर एक कलाकार के साथ-साथ संवेदनशील साहित्यकार भी सांस लेता है। उनके चित्रों के स्वप्निल संसार जैसा ही आकर्षक एवं इन्द्रधनुषी है, उनके शब्दों का शिल्प।
बचपन में उनके गाँव महुवा में झाड़ी चमार द्वारा पहना गया त्यागी जी का निकर और उसके तेल चुपडे़ बाल एवं बचपन में त्यागी जी का प्रिय टोप, बाद में जिसे होली के मौके पर स्वाँग भरते समय मथुरा बढ़ई मुँह पर खड़िया पोत कर वह टोप लगाकर ‘इंगरेज‘ बना करता था-कि स्मृति आज भी उन्हें ज्योंकि त्यों बनी है।आत्मकथा के रूप में हरिपाल त्यागी ने ‘महानगर की अधूरी इबारत‘ शीर्षक से पाठकों को चमत्कृत किया।
कहानी ‘खुशी, डाइनिंग टेबिल‘ तथा कविता ‘हूँ तो एवं गुजरता हुआ दिन‘ में त्यागी जी का काव्य सोष्ठव देखते ही बनता है। उनकी कविताऐं उनके चित्रों के करीब हैं और एब्सट्रेक्ट भी होती हैं।कुल मिलाकर, हरिपाल त्यागी जी कूँची और कलम के ऐसे अद्वितीय कलाकार हैं, जिन पर जनपद बिजनौर सहज ही गर्व करता है, उन्होंने इस जनपद की पहचान, कला और साहित्य के मणिकांचन संयोग द्वारा-विशिष्ट बनाकर ,राष्ट्रीय स्तर पर अपनी उल्लेखनीय उपस्थिति दर्ज की है।
20 अप्रैल 2014 ,को हरिपाल जी के 80 वें जन्मदिन पर ,अभिनंदन
सहित ,शतायु होने की प्रभु से कामना है।
-- डॉ उषा त्यागी ,
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