पत्र कारिता की शुरुआत

 पत्र कारिता की शुरुआत

1973 में मैंने संस्कृत से एमए किया। जनता उच्चतर माध्यमिक विद्यालय बागढ्पर में त्रिभाषा शिक्षक के पद पर नियुक्ति मिल गई। साक्षात्कार में शर्त वह रखी गई कि आप को हाईस्कूल को हिंदी स्ंस्कृत पढ़ानी पड़ेगी। यह भी बताया गया कि हाई स्कूल के लिए रखा शिक्षक योग्य नही है,क‌िंतु रखना प्रबंधन की मजबूरी है।

मैने एक साल वहां कार्य किया। गांव में वनी एक मित्र ने कहा बीएड कर लो। एक साल पूरा कर वर्धमान कॉलेज से मैने बीएड कर लिया। अगले साल भाषा शिक्षक के पद पर जैन कॉलेज नहटौर में नियुक्त‌ि मिल गई। 1400 के आसपास वेतन मिलता था। इस दौरान मैने विद्युल्लेखा नाम से साप्ताहिक शुरु किया।अखबार नबीसी का शौक ऐसा चर्राया कि नौकरी छोड़ दी। अकेले अपने दम पर साप्ताहिक निकालना कभी लाभ का साधन नहीं हो सकता था। कुछ दिन बाद वह बंद हो गया। एक मित्र की सलाह पर बंद पड़े स्वतंत्र आवाज को चलाने की जिम्मेदारी मिली। तीन माह वहां काम किया। वहां से एक पैसा भी नहीं मिला। राष्ट्रवेदना के संपादक विश्वामित्र शर्मा की मुझपर नजर पड़ी। उन्होंने कृपा की । एक सौ रुपये माह पर अपने यहां संपादन के लिए रख लिया।ये सफर कई साल चला।

बिजनौर में कम्युनिष्ट पार्टी के प्रभाव में आकर प्रेस एम्पलाइज यूनियन बना ली। हमने यूनियन बनाई तो दक्षिणपंथी विचार धारा के विश्वामित्र शर्मा जी को सबसे ज्यादा बुरा लगा। वह प्रेस मालिक की यूनियन बना बैठे । इस दौरान में अमर उजाला से जुड़ चुका था। बिजनौर से खबर भेजने लगा था।एक दिन मित्रा जी ने कम्पोजीटर करन सिंह को हटाने का नोटिस दे दिया। इसी को लेकर हमने हड़ताल कर दी। लगभग 26 दिन हड़ताल चली। बिजनौर की सभी प्रेस में ताले लग गए। बिजनौर से निकलने वाले दो दैनिक बिजनौर टाइम्स और राष्ट्रवेदना भी नहीं छपे। 26 दिन बाद हड़ताल टूटी। इस दौरान मित्रा जी ने मुझे हटा दिया। प्रेस कर्मचारी मजदूर पेशा होतें हैं। उनके रोटी रोजी के संकट को देखते हुए। मैंने हड़ताल ख्रत्म होना ही बेहतर समझा।

अमर उजाला से भी कुछ नही आता था। आदरणीय अतुल जी विदेश चले गए। अमर उजाला से संपर्क टूट गया। इस दौरान मैने साप्ताहिक बारूद और विस्फोट शुरू कर दिया।यह साप्ताहिक जिले के कर्मचारियों की आवाज बना। कर्मचारी ग्राहक बनते गए। खर्च चलने लगा। इस दौरान मरे एक मित्र राजकीय कर्मचारी नेता नेतागिरी के कारण निलंबित कर दिए गए। वह भी मेरे साथ लग गए। अखबार के ग्राहक बनाते । आई राशि का बड़ा हिंस्सा उनके परिवार की जरूरत को जाने लगा।प्रेस की हालत यह थी कि वह बरसात में अखबार छापना पंसद करतीं। क्योकि उनके पास काम नहीं होता। जब शादी , स्कूल के पेपर आदि का समय होता तो अखबार नहीं छप पाता।

मुझे रेलवे स्टेशन पर अजय पिंट्र‌‌िग प्रेस मिल गई। उस पर ज्यादा काम नहीं था। प्रेस के अंदर के कक्ष में एक पलंग था । मैं घूमता फिरता आता। वहीं सौ जाता। एक तरह से अजय के परिवार का अंग बन गया।

इस दौरान कई साथियों ने बहुत मदद की। निजामतपुरे के डाक्टर सिद्दीकी थे। वह मेरे बेरोजगारी के इस समय में मुझे एक सौ रुपया प्रतिमाह देते।विरेश बल मिल जाते तो जबरदस्ती घर ले जाकर खाना खिलाते। ओमपाल सिंह और शुगर मिल पर रहने वाले एक और साथी भी विरेश बल की तरह ही थे।

इस दौरान बिजनौर से उत्तर भारत टाइम्स की शुरूआत हुई।मै इसमें डैक्स पर रख लिया गया। झालू से मैं सवेरे नौ बजे के आसपास आने वाली ट्रेन से बिजनौर आता। रात को तीन बजे की ट्रेन से वापस जाता।

ये सिलसिला चल रहा था कि एक दिन एक साहब आए। मुझसे मेरे बारे में पूछने लगे। बातचीत हुई। उन्होंने अपना परिचय सुबोध शर्मा के रूप में दिया ।बताया कि बरेली से आया हूं। अमर उजाला के मालिक अतुल माहेश्वरी जी ने बुलाया है।

उनके साथ में बरेली अतुल जी के पास चला गया। उनके कहने पर अउर उजाला के लिए भी काम करने लगा। अमर उजाला से फिर से जुड़ा तो ये सफर आज भी जारी है

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