दुष्यंत कुमार
दुष्यंत कुमार
जन्मतिथि की स्मृति में (एक सितंबर)
Ravi Nandan Singh
जन्मपत्री के अनुसार दुष्यंत कुमार का जन्म 27 सितंबर 1931 को हुआ था, किन्तु स्कूली प्रमाणपत्र के अनुसार उनकी जन्मतिथि 1 सितंबर 1933 है। स्कूली प्रमाणपत्र के अनुसार ही वे अपना जन्मदिन मनाते रहे। इस संबंध में अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने बताया है कि 27 सितंबर तक आते-आते उनका पूरा वेतन चूक जाता था और बर्थडे का रोमांस फीका पड़ जाता था। अतः उन्होंने एक सितंबर को ही जन्मदिन मनाना शुरू कर दिया।
दुष्यंत कुमार 1950 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में (बी.ए. में) दाखिल हुए और पी.सी.बनर्जी हॉस्टल के कमरा नंबर 87 में रहते थे। हाईस्कूल के दिनों से ही वे 'परदेसी' उपनाम से कविताएँ लिखते थे तथा चंदासी से इंटरमीडिएट करते समय ही वे कवि-सम्मेलनों में भाग लेने लगे थे। जब वे इलाहाबाद आए तो प्रारम्भ में उनका उठना बैठना कवि-सम्मेलनों के धुरंधर रामनाथ अवस्थी तथा बलबीर सिंग रंग जैसे लोगों के साथ था। वे लोग बराबर उनके हॉस्टल आते-जाते रहते थे। 1951-52 में दुष्यंत उन लोगों के साथ कवि-सम्मेलनों में खूब आते-जाते रहे। बाद में कमलेश्वर तथा मार्कण्डेय जैसे उन्हें अंतरंग मित्र मिले जो 'त्रिशूल' नाम से मशहूर हुए। इलाहाबाद के साहित्यिक वातावरण से प्रभावित होकर उनपर चढ़ा कविसम्मेलनी नशा उतरता गया और 'परदेसी' उपनाम पीछे छूट गया।
मनमौजी और स्वच्छन्द स्वभाव के दुष्यंत को छात्रावास की बंदिशे बहुत चुभती थीं। अतः वहाँ बहुत दिन तक नहीं रह सके और हॉस्टल छोड़कर 11 कानपुर रोड, सिविल लाइंस में तेजबहादुर सप्रू की कोठी (सप्रू हाउस) के पास एक बँगले में दो कमरे लेकर रहने लगे। राजेन्द्र यादव की दुष्यंत से पहली मुलाकात 1951 में यहीं हुई थी। राजेन्द्र यादव ने इस पहली मुलाकात के बारे में लिखा है कि 'मैं पहुँचा तो वे हुक्का लिए बैठे थे, बिल्कुल पुराने नवाबों की तरह। वे उस समय यूनिवर्सिटी के विद्यार्थी थे।' बाद में दुष्यंत सिविल लाइंस छोड़कर चौक घंटाघर के पास भी रहे।
दुष्यंत कुमार का जन्म उस जगह हुआ था, जहाँ मालिनी नदी का तट है, जहाँ कण्व ऋषि का आश्रम था, जहाँ शकुंतला को देखकर हस्तिनापुर के चक्रवर्ती सम्राट दुष्यंत अपना सुधबुध खो बैठे थे और दोनों का गंधर्व विवाह संपन्न हुआ था। उनका गाँव राजपुर नवादा (बिजनौर) उसी स्थान का नाम है। पिता ने उनका नाम उसी सम्राट दुष्यंत के नाम पर रखा था। वही दुष्यंत आगे चलकर हिंदी ग़ज़ल के चक्रवर्ती सम्राट बन गए।
उनके पिता भगवतसहाय त्यागी का सपना था कि दुष्यंत इलाहाबाद जाकर यूनिवर्सिटी में पढ़े और तैयारी करके डिप्टी कलेक्टर बने। इसलिए उन्हें इलाहाबाद विश्वविद्यालय में दाखिल कराया गया और वे साहित्यकार बन गए, जो उनका किशोरावस्था से ही स्वप्न था।
दुष्यंत ने इलाहाबाद विश्वविद्यालय से 1954 में एम.ए.(हिंदी) किया और शहर की गोष्ठियों में बढ़चढ़कर भाग लेना शुरू किया। कमलेश्वर और मार्कण्डेय उनके सबसे अंतरंग मित्र थे। तीनो को 'त्रिशूल' के नाम से जाना जाता था। वे साहित्यिक खेमेबंदी में कभी नहीं उलझे। परिमल तथा प्रगतिशील दोनों खेमों की गोष्ठियों में भाग लेते थे। किन्तु सदस्यता किसी की नहीं ली। वहीं से उनका स्वच्छंद, क्रांतिकारी एवं आज़ाद तेवर आकार लेने लगा था जो बाद में उनकी ग़ज़लों में मुखरित हुआ।
उस समय इलाहाबाद हिंदी साहित्य की राजधानी के रूप में मशहूर था। तब यहाँ साहित्यकारों की एक पूरी गैलेक्सी विद्यमान थी। उस समय के इलाहाबाद के लिए कमलेश्वर ने लिखा है कि "गर्मियों में इलाहाबाद के गुलमोहर और अमलतास कवियों, लेखकों के लिए खिलते थे। हरसिंगार पंत जी के लिए, चंपा महादेवी जी के लिए, नेस्टर्सियम डॉ. भारती के लिए, कमल श्रीपद जी के लिए, मौलश्री रमानाथ अवस्थी और गिरधर गोपाल के लिए, पलाश और नीम हम जैसे नए लेखकों के लिए और बसंत पर गेंदा खिलता था निराला जी के लिए।" यह वह इलाहाबाद था जिसमें इलाचंद्र जोशी, पंत, महादेवी वर्मा, रामकुमार वर्मा, धीरेन्द्र वर्मा, हरदेव बाहरी, कामिल बुल्के, लक्ष्मीकांत वर्मा, रघुवंश, साही, सर्वेश्वर, भारती, उपेन्द्रनाथ अश्क, नरेश मेहता, रमानाथ अवस्थी, शमशेर, मार्कण्डेय, अमरकांत, कमलेश्वर, जगदीश गुप्त, गंगा प्रसाद पांडेय, उदयनारायण तिवारी, गोपीकृष्ण गोपेश, बलबीर सिंह रंग, उमाकांत मालवीय, नर्मदेश्वर उपाध्याय, शांति मेहरोत्रा जैसे लोग थे।
29 मार्च 1954 को आकाशवाणी इलाहाबाद द्वारा एक कवि सम्मेलन का आयोजन किया गया, जिसकी अध्यक्षता सुमित्रानंदन पंत ने की। इसमें शमशेर, धर्मवीर भारती, जगदीश गुप्त, सर्वेश्वरदयाल सक्सेना, केदारनाथ सिंह, त्रिलोचन के साथ दुष्यंत कुमार भी शामिल हुए और आठवें नंबर पर काव्यपाठ किया, जबकि अगले ही दिन उनकी एक परीक्षा थी।
विश्वविद्यालय के विद्यार्थी जीवन की एक रोचक घटना है। बाँदा जिले के अतर्रा कस्बे में एक कवि सम्मेलन का आयोजन था, जिसमें दुष्यंत कुमार भी आमंत्रित थे। रास्ते में संग-साथ के लिए उन्होंने आयोजकों को मार्कण्डेय और कमलेश्वर का नाम भी दे दिया। तब मार्कण्डेय कुछ कविताएँ भी लिखते थे तथा सस्वर पाठ भी करते थे। लेकिन कमलेश्वर कविता नहीं लिखते थे तथा कहानीकार के रूप में अभी स्थापित भी नहीं हुए थे। वहाँ कमलेश्वर ने दुष्यंत का यह गीत पढ़ा था- "सिंधु सा है विश्व, सौ ठहराव हैं जल में। व्यर्थ बाँधो मत नयन का नीर आँचल में।"
इन्ही दिनों उन्होंने कमलेश्वर और मार्कण्डेय के साथ मिलकर 'विहान' नामक पत्रिका का पहला अंक निकाला। यद्यपि पत्रिका आगे नहीं निकल सकी और पहला अंक ही आखिरी अंक सिद्ध हुआ। दुष्यंत ने 'कल्पना' पत्रिका के जनवरी 1955 के अंक में लिखे अपने आलोचनात्मक लेख 'नई कहानी : परंपरा और प्रयोग' के द्वारा 'नई कहानी' संज्ञा को सर्वप्रथम ईजाद किया। उस समय जब यह लेख लिख रहे थे, वे अभी एम.ए. करके विश्विद्यालय से निकले ही थे। इस लेख ने कहानी के क्षेत्र में एक प्रकार से नई आलोचना का सूत्रपात किया।
इलाहाबाद में होने वाली साहित्यिक गोष्ठियों में वे बढ़चढ़कर हिस्सा लेते थे तथा अत्यंत बेबाक एवं दुस्साहसिक टिप्पणियों के लिए जाने जाते थे। उनकी आलोचनात्मक टिप्पणियाँ अत्यंत बेबाक और स्पष्ट होती थीं। वे अपनी बात कहने में कभी हिचकते नहीं थे। उसी समय की एक गोष्ठी में उन्होंने अमरकांत को प्रेमचंद की पीढ़ी का रचनाकार बता दिया था जिसमें उपस्थित लोग उनकी टिप्पणी के असहमत थे। कालांतर में उनकी बात सच सिद्ध हुई।
दुष्यंत ने में एम.ए. करने के पश्चात 1955 में डॉ हरदेव बाहरी के निर्देशन में 'खड़ी बोली और साहित्यिक खड़ी बोली का तुलनात्मक अध्ययन' पर पीएचडी के लिए दाखिला लिया किन्तु उसे पूरा नहीं कर पाए। दुष्यंत की शादी हो पहले ही चुकी थी। उनकी पुत्री भी पैदा हो चुकी थी। अतः पारिवार पर आर्थिक दबाव के कारण दुष्यंत ने 1957 की जुलाई में इलाहाबाद छोड़ दिया। वे बीटी की ट्रेनिंग करने मुरादाबाद चले गए।
मुरादाबाद के दिनों के दस्तावेजों से जानकारी मिलती है कि वे वहाँ स्काउट-गाइड भी थे और पंजा लड़ाने में चैंपियन माने जाते थे। पंजा लड़ाने का शौक उन्हें इलाहाबाद आने के पहले चंदौसी के विद्यालयी जीवन से ही शुरू हो चुका था। वे हाथों की तेल मालिश करते और और आग जलाकर अपनी हथेलियाँ सेका करते, जिससे हथेलियों की सख्ती और कलाइयों की लोच सही वक्त पर काम आए। उसके बाद उन्हें किरतपुर में प्राइवेट कॉलेज में अध्यापक की नौकरी गयी। वहाँ से वे आकाशवाणी दिल्ली में सहायक प्रोड्यूसर बनकर चले गए।
जुलाई 1958 में उनकी नौकरी 250 रुपये प्रतिमास पर स्टाफ आर्टिस्ट के पद पर दिल्ली आकाशवाणी में हो गयी। वहीं उनकी मुलाकात भवानीप्रसाद मिश्र से हुई, जो हिंदी वार्ता विभाग के प्रोड्यूसर थे।
इलाहाबाद से मुरादाबाद, कीरतपुर, दिल्ली होते हुए उन्होंने भोपाल को अपना कर्मक्षेत्र बनाया। वहीं 30 दिसम्बर 1975 को उनका देहांत हुआ। 7 वर्ष के इलाहाबाद के रचनात्मक जीवन ने दुष्यंत कुमार को साहित्यिक रूप से ऐसा गढ़ दिया कि वे 43 की अल्पायु में ही साहित्य जगत में ध्रुवतारे की तरह स्थायी हो गए।
Comments