स्वामी मनमथन

 दक्षाण

स्वामी मनमथन जी पर जनपद में कुछ नही मिलता। उततरांचल की नीचे दी दो  साइट पर उनके बारे मे लेख मौजूद हैं। 6 अप्रेेेेेेल 1990 को हत्या 

चांदपुर के पास पाठशाला खाेली


https://umjb.in/gyankosh/swami-manmathan

उपरोक्त लिंक का लेख

 

 

केरल के रहने वाले स्वामी मनमथन ने बिजनौर में रहकर गरीब  बच्चों में शिक्षा की अलख जगाने का कार्य किया। वे कई साल बिजनैर जनपद मे रहे । बाद में उत्तरांचल चले गए।

उत्तराखंड भूमि के ज्ञान कोष साइट पर उपलब्धाजानकारी के अनुसार स्वामी मनमथन ‌का जन्म दक्षिण भारत की सुरम्य स्थली केरल में 18 जून सन् 1939 को एक अध्यापक के घर में हुआ। इनका प्रारम्भिक नाम 'उदय मंगलम् चन्द्र शेखरन मन्मथन मेलन' था। बालक मन्मथन बाल्यावस्था की शिक्षा प्राप्त कर जब किशोर हुए। तो उनके मन में अनेक जिज्ञासाएं जन्म लेने लगी। समाज में व्याप्त कुरीतियों, अंधविश्वास, रूढ़िवादिता, शोषण आदि से उन्होंने समाज को घिरे हुए पाया। यौवनावस्था में ही समाज कल्याण की प्रबल इच्छा लिए वह घर से निकल पड़े। सबसे पहले मन्मथन बंगाल पहुँचे। वहाँ उन्होंने उच्च शिक्षा प्राप्त की और शोध कार्य भी करते रहे। स्वामी विवेकानन्द की विचारधारा से प्रभावित मन्मथन को राम कृष्ण मिशन के सिद्धांतों ने भी प्रभावित किया। सत्य और ज्ञान की उनकी निरन्तर खोज चलती रही। इसी श्रृंखला में वे पांडिचेरी पहुँचे । वे महर्षि अरविंद के दर्शन पाकर अभिभूत हुए। गाँधीवादी विचारधारा ने भी उन्हें प्रभावित किया। इस धारा के अनुयायी बनकर वे घार से निकल गए। उनके कंधे एक झोला होता। इसमें  कुर्ता, पाजामा एवं बदलने के लिए एक जोड़ी वस्त्र रखकर सामाजिक जागरूकता के मिशन पर वे निकल पड़े। सामाजिक बुराइयों के निराकरण के लिए मम्मथनं नागालैण्ड पहुँचे।  वहाँ उनका विरोध हुआ । उन्हें वहाँ से वापस लौटना पड़ा। मन्मथन दार्जिलिंग से पद यात्रा करते  हिमालय की तराई से होते हुए हरिद्वार पहुँचे। हरिद्वार में ही एक महात्मा ने उन्हें सुझाव दिया कि वे बिजनौर जाए। अध्ययन की प्रबल इच्छा के लिए वे बिजनौर के दारानगंज नामक स्थान पर विदुरकुटी पहुँचे । वहाँ के पुस्तकालय की स्थिति को देखकर उन्हें बहुत निराशा हुई। जब उन्होंने विदुरकुटी के निकट निर्धन मछुआरों, हरिजनों की बस्ती में धूल से सने बच्चों की स्थिति को देखा तो वे उन्हें आश्रम में ले आए और विद्या ध्यन कराने लगे। यह बात आश्रम के व्यवस्थापकों को नागवार गुजरी। व्यवस्थापकों को मन्मथन ने समझाया पर कुछ हासिल नहीं हुआ। फलतः उन्होंने आश्रम हो छोड़ दिया।

 23- 24 वर्ष की आयु में प्रवेश कर रहे केरल के  नवयुवक मन्मथन के लिए दारागंज नगर को यात्रा कुछ मायनों में महत्वपूर्ण रही। इस नगर में उनके कुछ अच्छे मित्र बने । उन्हीं में से एक श्री गुरुदीप बख्शी, मन्नधन को अपने घर ले आये ।वहाँ पर उन्हें श्री गुरुदीप बख्शी को माता करतार कौर का पूर्ण आश्रय मिला। बख्शी जी के घर पर निर्धन, अशिक्षित बच्चे बेरोक-टोक आने लगे। मन्मथन बड़ी वात्सल्यता से उन बच्चों को नहलाते-धुलाते । उन्हें विद्या अध्ययन करवाने में पूरे मनोयोग से लगे रहते। उस दौरान उन्होंने बिजनौर जनपद के कुछ ग्रामों का भ्रमण भी किया । वहाँ को मूलभूत समस्याओं से भी अवगत हुए। गाँववासियों को एकत्र कर उनके सहयोग से बिजनौर जनपद के  नूरपुर चांदपुर मार्ग के  आदोपुर गाँव में एक प्राइमरी पाठशाला भी स्थापित की।



निर्धन जनता के लिए किया भोजन त्याग

 

‌सन् 1962 में भारत-चीन युद्ध छिड़ा। सम्पूर्ण देश में अन्न का संकट गहरा गया। उस दौरान मन्मथन ने बिजनौर में निर्धनों की स्थिति को बहुत करीब से देखा। जब भूख से व्याकुल होकर जनता अनाज की मंडियाँ लूटने लगी। यह देखकर मन्मथन ने दारागंज नगर में एक सभा की तथा स्त्री, पुरुष, बच्चों को एक जुलूस के लिए तैयार किया। तेरह किलोमीटर पैदल मार्च करते हुए जुलूस जिलाधिकारी बिजनौर की कोठी के आगे रूका। वस्तुस्थिति को भाँपते हुए विवश होकर खाद्य अधिकारी को वहाँ एकत्रित समस्त जनसमुदाय को अनाज बाँटना पड़ा। मानवता का यह सच्चा पुजारी निर्धन जनता की पीड़ा को देखकर इतना आहत हुआ कि मन्मथन ने उन दिनों स्वयं अपना भोजन नियंत्रित कर, कई दिनों तक मात्र चाय के सहारे रहने लगे।



जवाहरलाल पर लिखी थी पुस्तक

 

‌मन्मथन ने अपनी आवश्यकताओं को कभी बढ़ने नहीं दिया। दुखी मानवों की पीड़ा उन्हें बड़ी शीघ्रता से आहत कर जाती थी। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की मृत्यु पर भी उन्हें बड़ा आघात लगा। बिजनौर में ही अपने मित्र डॉ. अस्थाना के घर बैठकर उन्होंने 15-20 पृष्ठ की अंग्रेजी भाषा में एक पुस्तक लिखी । पुस्तक का नाम रखा गया- 'एर्गविश मिस्टर नेहरू गोज टू हेवन' इस पुस्तक को दिल्ली से छपवाकर गाँधी स्मारक निधि के बाहर स्वयं इस पुस्तक की प्रतियाँ बेची। इस पुस्तक की बिक्री से मन्मथन को पाँच हजार रुपये की आय प्राप्त हुई।  यह आए उन्होंने निर्धन, बेसहारा बच्चों के कल्याण में लगा दी।



उत्तराखंड में पदार्पण व पशु बलि पर लगाई रोक

‌मन्मथन का दृष्टिकोण सुधारवादी था।तत्कालीन बिजनौर के भ्रष्ट व्यक्तियों के खिलाफ जब उन्होंने अखबार में लेख आदि छपवाये तो वे लोग मन्मथन के इस रवैये से अप्रसन्न हो गये। उन्होंने सन् 1965 में बिजनौर छोड़ दिया। उस वक्त उनकी आयु 24-25 वर्ष की थी। मन्मथन नाम के साथ स्वामी विशेषण कब जुड़ गया इसका पता नहीं चलता। संभवत: उनके समाज कल्याण के प्रति समर्पित कार्यों ने उन्हें आगे चलकर स्वामी मन्मथन के रूप में पहचान दिलाई। सन् 1965 के बाद स्वामी मन्मथन ऋषिकेश में तपोवन सराय में रहकर जनसेवा के कार्य करने लगे। 'डिवाइनल लाइफ संघ' के स्वामी चिदानंद से स्वामी मन्मथन की मित्रता थी। स्वामी मन्मथन इस क्षेत्र में भ्रमण करते रहे। यहीं उन्हें वशिष्ठ गुफा की जानकारी मिली। यहाँ मन्मथन दो वर्ष तक सार्वजनिक जनहित के कार्य करते रहे। गूलर क्षेत्र में उन्होंने कई जनहित के कार्य किए, लेकिन गूलर को उन्होंने अपना स्थायी निवास नहीं बनाया। गूलर के बाद स्वामी के कदम चन्द्रवदनी (जिला टिहरी) मंदिर की ओर बढ़े। प्राचीन महत्व के इस मंदिर में समीपस्थ क्षेत्रों के लोग पूजन− अर्चना के लिए आया करते थे। उस दौरान नवरात्रों के समय यहाँ पर हो रही निर्मम पशु बलि को देखकर स्वामी जी का हृदय चित्कार उठा। इस कुप्रथा को समाप्त करने के लिए उन्होंने संकल्प लिया। सन् 1966 से सन् 1969 तक तीन वर्षों के उनके अनवरत संघर्षों तथा स्थानीय जन समुदाय के सहयोग से चन्द्रवदनी देवी के मंदिर में पशु बलि की प्रथा हमेशा के लिए समाप्त हो गई। चन्द्रवदनी मंदिर में वर्तमान पुजारी और पुरोहित श्री दाताराम भट्ट एवं शांति प्रसाद सेमल्टी उस दौरान पशु बलि के वीभत्स दृश्य व कथानक को आज भी दोहराते हैं तो इसे सुन कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं। स्वामी मन्मथन के प्रयासों से आज यह धार्मिक स्थल सात्विक पूजा पद्धति एवं आध्यात्मिक दृष्टि से पावन प्रसिद्ध स्थल माना जाता है।



गढ़वाल विश्वविद्यालय के लिए किया आन्दोलन

 

‌उत्तराखण्ड गढ़वाल मण्डल में सन् 1971 में जब विश्वविद्यालय प्राप्त करने के लिए आंदोलन छिड़ा तो स्वामी जी के कुछ मित्रों द्वारा इस आंदोलन में सहयोग करने के आग्रह पर वह इसके लिए सहर्ष तैयार हो गये। तदुपरान्त उत्तराखण्ड विश्वविद्यालय संघर्ष समिति का गठन किया गया। यह आंदोलन लम्बे समय तक चला। इसमें अनेक बार उन्हें लम्बी जेल यात्राएं भी करनी पड़ी। इस आंदोलन ने स्वामी जी की अद्भुत नेतृत्व क्षमता को उजागर किया। श्रीनगर गढ़वाल के धार्मिक और ऐतिहासिक महत्व को देखते हुए तीन वर्ष के अनवरत संघर्ष के पश्चात् उत्तराखण्ड विश्वविद्यालय संघर्ष समिति के प्रयास से श्रीनगर गढ़वाल में विश्वविद्यालय की स्थापना हुई। इतने लम्बे समय तक चला यह आंदोलन पूर्णरूप से अहिंसावादी, गांधीवादी विचारधाराओं की परम्परा की एक कड़ी था।  इस आंदोलन की गढ़वाल विश्वविद्यालय के प्रथम कुलपति श्री बी.डी. भट्ट जी ने भी प्रशंसा की।



आपातकाल के समय की जेल यात्रा

 

‌सन् 1975 में आपातकाल से पूर्व स्वामी जी अनेकानेक जनसेवा के कार्य करते रहे। गैरसैंण, चमोली, सिलकोट, वेणीताल के चाय बागानों में काश्तकारों की दशा सुधारने के लिए वे प्रयासरत रहे। स्वामी जी के निर्भीक व्यक्तित्व से विश्वविद्यालय आंदोलन के समय से ही प्रशासन उनसे रूष्ट था। अत: मौका पाकर आपातकाल के दौरान उन्हें मीसा ( भारत सुरक्षा कानून) के अन्तर्गत गिरफ्तार करके जेल भेज दिया गया। स्वामी जी ने गढ़वाल को अपना स्थायी निवास बना लिया । यहाँ की अनेक कुरीतियों को समाप्त करने के प्रयासों के प्रति वे आजीवन जुटे रहे। इसके अन्तर्गत उन्होंने सिलकोट टी स्टेट की व्यवस्था में सुधार किया और गढ़वाल प्रोजेक्ट के माध्यम से भी अनेकानेक कार्य करते रहे।



अंजणीसैंण में करी भुवनेश्वरी महिला आश्रम की स्थापना

 

‌स्वामी मन्मथन नारी शक्ति के प्रति विशेष सम्मान रखते थे। नारी के त्याग, प्रेम, बलिदान ममत्व की कई झांकियां वह पहले भी देख चुके थे। स्वामी जी की दृष्टि गढ़वाल की नारी शक्ति के संगठन के प्रति भी सजग हुई। उन्होंने देखा कि यहाँ की नारी कठोर परिश्रम करने के बावजूद न्यूनतम सुख-सुविधाओं से भी वंचित है। स्वामी जी नारी संगठन के माध्यम से उनमें जागरूकता और चेतना का संचार करना चाहते थे। इस उद्देश्य को दृष्टिगत रखते हुए उन्होंने एक आश्रम की स्थापना की बात सोची। इस आश्रम के लिए सर्वप्रथम उन्होंने दस एकड़ भूमि मेजर हरिशंकर जोशी से प्राप्त की। आश्रम के लिए श्रीमती चनखी देवी ने भी अपनी भूमि सहर्ष प्रदान की। स्वामी जी के इस आश्रम में एक उदार मुस्लिम महानुभाव ने अपनी भूमि दान देकर धर्म निर्पेक्षता का उत्कृष्ट उदाहरण प्रस्तुत किया। स्वामी जी के महत्वपूर्ण प्रयासों से 27 दिसम्बर सन् 1977 को 'श्री भुवनेश्वरी महिला आश्रम' के रूप में यह स्थापित हुआ। 23 दिसम्बर सन् 1978 को श्री भुवनेश्वरी महिला आश्रम' अंजणीसैंण टिहरी गढ़वाल का पंजीकरण आश्रम सोसायटीज रजिस्ट्रेशन के अन्तर्गत हुआ। यह आश्रम क्षेत्र प्रारम्भ में झाड़ियों, वन्य जीवों से भरा पड़ा था। स्वामी जी स्वयं इन झाड़ियों को काटते, कंकरीली पथरीली जमीन को समतल बनाते हुए स्थानीय लोगों को स्वयं दिख जाया करते थे। स्वामी जी ने कुदाल, फावड़ा स्वयं चलाने से कभी परहेज नहीं किया। परिश्रम के बल-बूते पर वे सब कुछ पा लेने के हिमायती थे। स्वामी जी के प्रयासों से यहाँ जंगल से मंगल हो गया था।


श्री भुवनेश्वरी महिला आश्रम' का मुख्य उद्देश्य बेसहारा महिलाओं और अनाथ बच्चों को संरक्षण देना रहा है। उन्हें समाज के उत्पीड़न, शोषण और तिरस्कार से बचाकर स्वयं विकास के कार्यों के प्रति जागरूक करना मुख्य उद्देश्य इस आश्रम का वर्तमान तक कायम रहा है। समय का सदुपयोग कर महिलाओं को स्वावलंबी बनाने हेतु प्रशिक्षण देना यहाँ का मुख्य उद्देश्य है। उन्नत कृषि एवं पशुपालन का व्यावहारिक ज्ञान भी उनमें से एक है। 'श्री भुवनेश्वरी महिला आश्रम' उत्तरकाशी, टिहरी, चमोली, देहरादून आदि जिलों के 1611 गाँवों में कार्य कर रहा है। श्री भुवनेश्वरी महिला आश्रम के संस्थापक एवं महान संत स्वामी मन्मथन के कार्यों की गणना एवं उनके महान व्यक्तित्व को शब्दों के माध्यम से लिख पाना या समेट पाना संभव नहीं है। वे एक असाधारण व्यक्ति थे।


मृत्यु

 

‌उत्तराखण्ड की भूमि उनकी निष्ठा एवं कार्यों के प्रति सदैव ऋणी रहेगी। आश्रम में 6 अप्रैल 1990 को रात्रि नौ बजे एक षड्यंत्र के तहत एक समाज विरोधी तत्व द्वारा गोली मार कर स्वामी जी की हत्या कर दी गई।

https://uttarakhandgazetteer.com/swami-manmathan-great-social-reformer/


महेशानंद जुयाल
सौजन्य से भुवन नौटियाल, महासचिव वार मेमोरियल
स्वामी मनमथन की पूण्य तिथि पर विशेष
फोटो- गैरसैंण। गढवाल हमेशा कृतज्ञ रहेगा स्वामी जी के प्रति
6 अप्रैल को स्वामी जी की पूण्य तिथि पर गढवाल से नगण्य समाचार उन्हें याद करने को मिले, जो कोरोना की त्रासदी में गुम हो गये। सुदूर समुद्र के किनारे केरल से हिमालय में आकर स्वामी जी ने सामाजिक कुरीतियों के विरूद्ध क्रांति ला दी थी। चाहे चंद्रबदनी के मंदिर में बलि प्रथा का अंत हो या टिंचरी और शराब के विरूद्ध जनचेतना आंदोलन, फिर गढवाल वि0विद्यालय आंदोलन ने वास्तव में पहली बार ब्रिटिश गढवाल व टीहरी रियासत को एक कर अभूतपूर्व जनान्दोलन खडा किया, जो आजादी से पहले और बाद का पहला सफल आंदोलन हुआ। पहली बार गढवाल के सरकारी दफ्तरों में ताले पडे और आखिरकार गढवाल वि0 विद्यालय की स्थापना उत्तर प्रदेश में पहले गढवाली मुख्यमंत्री स्व0 हेमवंती नंदन बहुगुणा ने कर डाली। गढवाल वि विद्यालय स्थापना के बाद स्वामी जी के प्रस्ताव पर गढवाल वि विद्यालय निर्माण संघर्ष समिति को हरिद्वार कर्णप्रयाग रेल लाईन निर्माण संघर्ष समिति में परिवर्तित कर दिया गया।
भारत के प्रथम विश्व युद्ध के प्रथम विक्टोरिया क्रास महानायक दरवान सिंह नेगी द्वारा विक्टोरिया क्रास प्राप्त करते समय किंग जार्ज पंचम ने प्रथम विश्व युद्ध में मारे गये गढवाली सैनिकों की स्मृति में वार मैमोरियल स्कूल कर्णप्रयाग व हरिद्वार -कर्णप्रयाग रेल लाईन की मांग को सन् 1914 में स्वीकार कराया था। वी सी साहब के शिक्षा और रेल लाईन के सपनों को 60 साल बाद पहली बार स्वामी मनमथन ने मूर्त रूप देने की पहल प्रारंभ की। माना जाय तो उत्तराखंड राज्य आंदोलन के लिए गढवाल में आंदोलनों की जमीन तैयार करने का काम स्वामी मनमथन जी ने ही किया। इससे पहले तो पटवारी के खिलाफ भी कहने व लिखने की हिम्मत लोग जुटा नहीं पाते थे।
यही नहीं स्वामी जी द्वारा उत्तर प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्र की पांच-पांच टी स्टेट जो बडे-बडे पूंजी पतियों के पास थी, उनका राष्ट्रीयकरण कर इस भूमि पर बडे विकास कार्योें के साथ भूमि को यहां के गरीब भूमिहीनों में बांटने तथा जंगलों को गांव की वन पंचायतो को सुपुर्द करने की मांग भी उठायी। इसी क्रम में चमोली जनपद की दो स्टेट बेनीताल 40 हजार नाली तथा सिलकोट 25 हजार नाली भूमि वाली टी स्टेटों के राष्ट्रीयकरण की मांग को लेकर भटोली से कर्णप्रयाग तक एक हजार काश्तकरों का पैदल मार्च 10 किमी निकाला गया। उपजिला मजिस्ट्रेट के माध्यम से केंद्र व राज्य सरकारों को ज्ञापन दिया गया। सिलकोट टी स्टेट में जब पांच सौ पेड टी स्टेट के मालिक के निर्देश पर अवैध रूप से काटे गये, तो स्वामी जी ने एशिया के सबसे बडा मिटी के बांध कालागढ के जलागम क्षेत्र व रामगंगा के उद्गम पर वृक्ष कटान को बांध के लिए खतरा बताया। स्टेट के मैनेजर आदि की गिरफ्दारी हुई।
स्वामी जी के जन जागरण व जनआंदोलनों से राजनेता व सरकारे हिल गई थी। तभी देश में आपातकाल लगा और उन्हें झूठे मुकदमें मेें मीसा के तहत गिरफतार कर जेल भेज दिया गया। आपातकाल समाप्त हुआ स्वामी जी ने अपनी आंदोलनकारी शक्ति को पर्वतीय महिलाओं व बच्चों के कल्याण के लिए झौंकते हुए महेशानंद जुयाल
सौजन्य से भुवन नौटियाल, महासचिव वार मेमोरियल
स्वामी मनमथन की पूण्य तिथि पर विशेष
फोटो- गैरसैंण। गढवाल हमेशा कृतज्ञ रहेगा स्वामी जी के प्रति
6 अप्रैल को स्वामी जी की पूण्य तिथि पर गढवाल से नगण्य समाचार उन्हें याद करने को मिले, जो कोरोना की त्रासदी में गुम हो गये। सुदूर समुद्र के किनारे केरल से हिमालय में आकर स्वामी जी ने सामाजिक कुरीतियों के विरूद्ध क्रांति ला दी थी। चाहे चंद्रबदनी के मंदिर में बलि प्रथा का अंत हो या टिंचरी और शराब के विरूद्ध जनचेतना आंदोलन, फिर गढवाल वि0विद्यालय आंदोलन ने वास्तव में पहली बार ब्रिटिश गढवाल व टीहरी रियासत को एक कर अभूतपूर्व जनान्दोलन खडा किया, जो आजादी से पहले और बाद का पहला सफल आंदोलन हुआ। पहली बार गढवाल के सरकारी दफ्तरों में ताले पडे और आखिरकार गढवाल वि0 विद्यालय की स्थापना उत्तर प्रदेश में पहले गढवाली मुख्यमंत्री स्व0 हेमवंती नंदन बहुगुणा ने कर डाली। गढवाल वि विद्यालय स्थापना के बाद स्वामी जी के प्रस्ताव पर गढवाल वि विद्यालय निर्माण संघर्ष समिति को हरिद्वार कर्णप्रयाग रेल लाईन निर्माण संघर्ष समिति में परिवर्तित कर दिया गया।
भारत के प्रथम विश्व युद्ध के प्रथम विक्टोरिया क्रास महानायक दरवान सिंह नेगी द्वारा विक्टोरिया क्रास प्राप्त करते समय किंग जार्ज पंचम ने प्रथम विश्व युद्ध में मारे गये गढवाली सैनिकों की स्मृति में वार मैमोरियल स्कूल कर्णप्रयाग व हरिद्वार -कर्णप्रयाग रेल लाईन की मांग को सन् 1914 में स्वीकार कराया था। वी सी साहब के शिक्षा और रेल लाईन के सपनों को 60 साल बाद पहली बार स्वामी मनमथन ने मूर्त रूप देने की पहल प्रारंभ की। माना जाय तो उत्तराखंड राज्य आंदोलन के लिए गढवाल में आंदोलनों की जमीन तैयार करने का काम स्वामी मनमथन जी ने ही किया। इससे पहले तो पटवारी के खिलाफ भी कहने व लिखने की हिम्मत लोग जुटा नहीं पाते थे।
यही नहीं स्वामी जी द्वारा उत्तर प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्र की पांच-पांच टी स्टेट जो बडे-बडे पूंजी पतियों के पास थी, उनका राष्ट्रीयकरण कर इस भूमि पर बडे विकास कार्योें के साथ भूमि को यहां के गरीब भूमिहीनों में बांटने तथा जंगलों को गांव की वन पंचायतो को सुपुर्द करने की मांग भी उठायी। इसी क्रम में चमोली जनपद की दो स्टेट बेनीताल 40 हजार नाली तथा सिलकोट 25 हजार नाली भूमि वाली टी स्टेटों के राष्ट्रीयकरण की मांग को लेकर भटोली से कर्णप्रयाग तक एक हजार काश्तकरों का पैदल मार्च 10 किमी निकाला गया। उपजिला मजिस्ट्रेट के माध्यम से केंद्र व राज्य सरकारों को ज्ञापन दिया गया। सिलकोट टी स्टेट में जब पांच सौ पेड टी स्टेट के मालिक के निर्देश पर अवैध रूप से काटे गये, तो स्वामी जी ने एशिया के सबसे बडा मिटी के बांध कालागढ के जलागम क्षेत्र व रामगंगा के उद्गम पर वृक्ष कटान को बांध के लिए खतरा बताया। स्टेट के मैनेजर आदि की गिरफ्दारी हुई।
स्वामी जी के जन जागरण व जनआंदोलनों से राजनेता व सरकारे हिल गई थी। तभी देश में आपातकाल लगा और उन्हें झूठे मुकदमें मेें मीसा के तहत गिरफतार कर जेल भेज दिया गया। आपातकाल समाप्त हुआ स्वामी जी ने अपनी आंदोलनकारी शक्ति को पर्वतीय महिलाओं व बच्चों के कल्याण के लिए झौंकते हुए श्री भुवनेश्वरी महिला आश्रम अंजनीसैंण नाम से एक एनजीओ स्थापित किया, जो आज उत्तराखंड के अग्रणी एनजीओ की पंक्ति में स्वामी जी के स्वप्नों के अनुरूप सेवा कर रहा है। सेवा समर्पण एवं संघर्ष के इस महायोद्धा को महात्मा गांधी जी की तरह गोलियां मारकर सदा के लिए सुला दिया गया। स्वामी जी की मृत्यु के बाद हम गढवाल के लोग स्वामी जी के प्रति क्या कृतज्ञता दिखा पाये हैं, इसमें हमें संदेह है। स्व0 हेमवती नंदन बहुगुणा जी की मृत्यु के बाद पंडित नारयण दत तिवारी जब मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने गढवाल वि0विद्यालय एवं बेस अस्पताल श्रीनगर का नाम श्रीनगर केी श्रृद्धांजलि सभा में एच एन बहुगुणा के नाम पर रखा। गढवाल वि विद्यालय पौडी परिसर का नाम तत्कालीन राज्यपाल बी गोपाला रेडी के नाम तथा टीहरी में वि0विद्यालय परिसर का नाम श्रीदेव सुमन के नाम पर रखा गया। जो स्वागत योग्य है।
गढवाल के लिए केरल से आये इस महापुरूष, जो यहां के लिए जिया और बलिदान भी दिया। टीहरी श्रीनगर और गैरसैंण की किसी बडी संस्था का नाम स्वामी जी के नाम पर अवश्य ही रखा जाना न्यायोचित्त होता। जैसे एनआईटी, रेलवे स्टेशन श्रीनगर, रा महाविद्यालय गैरसैंण, चाय फेक्ट्री गैरसैण्ंा तथा टीहरी में किसी भी संस्था के नाम पर विचार किया जाना चाहिए। राजनेताओं और सरकार को पहल करनी चाहिए। अन्यथा कृत्यज्ञनता का अपराध बोध गढवाल को हमेशा चुभता रहेगा। भूल सुधारने का समय है, गैरसैण को ग्रीष्मकालीन राजधानी के विकास के लिए सिलकोट व बेनीताल टी स्टेटों की भूमि का उपयोग सरकार आसानी से कर सकती है। जो भराडीसैंण के दायें और बायें हाथ पसारे खडी हैं। मेरे पत्रकार मित्र बताते हैं कि स्वामी जी चाहते थे कि मैं भुवन नौटियाल टाइपराईटर पर लिखूं उन्होंने जुयाल जी को टिहरी से टाईपराइटर कर्णप्रयाग ले जाने को कहा था, लेकिन इस बीच स्वामी जी की हत्या हो गई। शत शत नमन के साथ श्रृद्धांजलि। नाम से एक एनजीओ स्थापित किया, जो आज उत्तराखंड के अग्रणी एनजीओ की पंक्ति में स्वामी जी के स्वप्नों के अनुरूप सेवा कर रहा है। सेवा समर्पण एवं संघर्ष के इस महायोद्धा को महात्मा गांधी जी की तरह गोलियां मारकर सदा के लिए सुला दिया गया। स्वामी जी की मृत्यु के बाद हम गढवाल के लोग स्वामी जी के प्रति क्या कृतज्ञता दिखा पाये हैं, इसमें हमें संदेह है। स्व0 हेमवती नंदन बहुगुणा जी की मृत्यु के बाद पंडित नारयण दत तिवारी जब मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने गढवाल वि0विद्यालय एवं बेस अस्पताल श्रीनगर का नाम श्रीनगर केी श्रृद्धांजलि सभा में एच एन बहुगुणा के नाम पर रखा। गढवाल वि विद्यालय पौडी परिसर का नाम तत्कालीन राज्यपाल बी गोपाला रेडी के नाम तथा टीहरी में वि0विद्यालय परिसर का नाम श्रीदेव सुमन के नाम पर रखा गया। जो स्वागत योग्य है।
गढवाल के लिए केरल से आये इस महापुरूष, जो यहां के लिए जिया और बलिदान भी दिया। टीहरी श्रीनगर और गैरसैंण की किसी बडी संस्था का नाम स्वामी जी के नाम पर अवश्य ही रखा जाना न्यायोचित्त होता। जैसे एनआईटी, रेलवे स्टेशन श्रीनगर, रा महाविद्यालय गैरसैंण, चाय फेक्ट्री गैरसैण्ंा तथा टीहरी में किसी भी संस्था के नाम पर विचार किया जाना चाहिए। राजनेताओं और सरकार को पहल करनी चाहिए। अन्यथा कृत्यज्ञनता का अपराध बोध गढवाल को हमेशा चुभता रहेगा। भूल सुधारने का समय है, गैरसैण को ग्रीष्मकालीन राजधानी के विकास के लिए सिलकोट व बेनीताल टी स्टेटों की भूमि का उपयोग सरकार आसानी से कर सकती है। जो भराडीसैंण के दायें और बायें हाथ पसारे खडी हैं। मेरे पत्रकार मित्र बताते हैं कि स्वामी जी चाहते थे कि मैं भुवन नौटियाल टाइपराईटर पर लिखूं उन्होंने जुयाल जी को टिहरी से टाईपराइटर कर्णप्रयाग ले जाने को कहा था, लेकिन इस बीच स्वामी जी की हत्या हो गई। शत शत नमन के साथ श्रृद्धांजलि।

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