डैबलगढ तैय्यब अली की फेसबुक बॉल से
जनपद बिजनौर का एक कस्बा मण्डावर जो अपने आप मे पूरा इतिहास संजोय हुए है इस कस्बे के निकट एक गाँव है #डैबलगढ जो आज भी हमे अतीत कि याद दिलाता है, आजादी से पहले इस गांव को #डाईबिल_गढ़ के नाम से जाना जाता था।
सन 1923 मे बिजनौर के एक ब्रिटिश अधिकारी सर डाईबिल ने इस गांव को बसाया था, ब्रिटिश सरकार मे ओनरी मजिस्ट्रेट सैय्यद खान बहादुर याहया अली ने सन 1923 मे डैबल गढ़ गांव का नामकरण भी किया था भले ही आज का डैबलगढ जनपद बिजनोर में है मगर उस समय यह रुडकी क्षेत्र मे आता था।
ब्रिटिश कालीन डैबलगढ विशेषकर पशुपालकों के लिए बसाया था गंगा की तलहटी में स्थित इस गांव में खरबूजे और तरबूज की अच्छी फसल होने से यहां ब्रिटिश अधिकारी भी अकसर आया करते थे लेकिन आजादी के दशकों के बाद भी ग्रामीण बाढ़ के खतरे से अछूते नहीं हैं।
यद्यपि डयबलगढ का कोई वास्तविक इतिहास किसी भी पुस्तक या रिकॉर्ड में लिखा हुआ नहीं है लेकिन डैबलगढ के विभिन्न स्रोतों व यहां के निवासियो से एकत्रित ज्ञान के अनुसार यह गांव ब्रिटिशकालीन है ऐसा माना जाता है कि डैबलगढ ब्रिटिश अधिकारियो का पसंदीदा रहा है।
ब्रिटिश सरकार मे कस्बा मण्डावर निवासी
ओनरी मजिस्ट्रेट सैय्यद खान बहादुर याहया अली भी अकसर यहां मछलियों का शिकार करने आया करते थे अब यहा के घने जंगलों को साफ कर दिया गया है और लोग यहाँ बसने लगे बाद में यह एक अच्छा खासा गांव बन गया ऐसा माना जाता है कि यहां ‘प्रसिद्ध एक कुएँ का निर्माण भी हुआ था जिस के निशान आज भी जंगलो मे देखे जा सकते हैं ब्रिटिश काल में डैबलगढ को ग्रीन विलेज का दर्जा दिया गया था और आजादी के बाद उसे भुला दिया गया।
डैबलगढ क्षेत्र के ग्रामीण अब विश्वास करने को तैयार नहीं है वह ब्रिटिश काल से आजाद भारत तक कि मोक्षदायिनी की लिखी बर्बादी की इबारत के साक्षी हैं अब अनेको बार डैबलगढ के अस्तित्व को गंगा निगल चुकी है अब यहां के बाशिंदों की खुशियां और उम्मीदें गंगा के पानी में बह गयी सी लगती अब यह ग्रामीणो कि सैकड़ों बीघा जमीन गंगा के कटाव की भेंट चढ़ चुकी है। कई बड़े खेतिहर किसानों के परिवार मजदूरी को विवश हैं पिछले कयी दशक से बरसात के दिनों में गंगा हर बार अपनी धार बदलती है इसका रुख मुजफ्फरनगर से बिजनौर की ओर होता जा रहा है 1942 से लेकर 2010 तक यहा के कयी गांव का बाढ़ के कारण अस्तित्व ही खत्म हो गया था
अनेको बार उजड़ा और बसा यह गांव कयी बार गंगा ने अपनी चपेट में लिया था स्थानीय लोगों और प्रशासन की वजह से इस गांवों में रहने वाले ज्यादा परिवारों के लोगों की जान तो बच गई लेकिन ये लोग बर्बादी के ऐसे भंवर में फंसे हैं जहां से वे जितना निकलने की कोशिश करते हैं बेबसी की दलदल में उतना ही धंस जाते हैं बीस से पचास बीघे जमीन के मालिक अब मजदूरी करने को मजबूर हैं घर जमीन गंगा में विलीन हो गई और बच्चों के हाथों में किताबें नहीं मजदूरी की मजबूरी है
किसानों की मदद के लिए डैबलगढ़ में गंगा के ऊपर बन चुका पीपों का पुल वरदान साबित हो रहा है इस पुल के पार तीन किमी अगर सड़क बन जाए तो पुल सीधे शुक्रताल तीर्थ से जुड़ सकता है जाएगा। यहां से आने वाले दिनों में हाइवे भी बनने की उम्मीद हैं
भारतीय किसान युनियन ने पुल बनवाने का बीड़ा उठाया था जो साकार हो चुका है,अगर शुक्रताल तक सड़क बन जाए तो आसानी से मुजफ्फरनगर पहुंचा जा सकता है पहले डैबलगढ गांव के लोग गंगा पार खेती करने व पशुओं के लिए चारा लेने जाते थे बरसात के मौसम में गंगा के उफान पर होने पर जान हथेली पर रखकर से गंगा पार करते थे। दो नाव को जोड़कर उसमें ट्रैक्टर व चारा से लदी बुग्गी रखकर लाते थे एक बार ऐसा करते हुए तमाम लोग गंगा में भी डूब गए थे
हालांकि इस से पहले भी नाव का पुल रावली के सामने गंगा पर बना करता था बैराज बनने के बाद 1980 के आसपास से बनना बंद हो गया रावली के सामने बने पुल को पार कर के केवल तीन किमी चलकर लोग मोरना पहुंच जाते थे उस समय शुक्रताल भी पांच किमी के आसपास पड़ता था

प्रस्तुति-------------तैय्यब अली
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