जन मानस की गज़ल कवि दुष्यंत कुमार
जन मानस की गज़ल
डॉ. रामगोपाल भारतीय
| प्रतिष्ठित और लोकप्रियता की ऊंचाइयां प्रदान करने वाले पशस्वी कवि दुष्यंत कुमार ने गुज़ल पर लिपटे परंपरागत आवरणको उतारकर उसे जन मानस की समसामयिक आकांक्षाओं का नवीन परिधान पहना दिया। उनकी इस नई कोशिश से गुज़ल आम आदमी की बोलचाल और जन अभिव्यक्ति का सवल माध्यम बन चुकी है। कबीर, अमीर खुसरो, गालिब मोमिन, जोक, मीर तक़ी मीर से होकर बहादुर शाह जफर और दुष्यंत कुमार तक आते आते ग़ज़ल ने बदलाव के अनेक पड़ाव तय किए। उसमें अरबी, फारसी, उर्दू और हिंदी के प्रचलित शब्दों की मिश्रित हिन्दुस्तानी बोली और लहजे का समावेश हुआ जिसमें किसी भी भाषा के शब्दों का सटीक प्रयोग ग़ज़ल के रूप को सजाने संवारने का काम करने लगा।
हिंदी और उर्दू में बहुत ज्यादा फर्क नहीं है सिर्फ लिपि का फर्क है। फारसी में लिखा जाए तो उर्दू और वही बात यदि देव नागरी में लिखी जाए तो हिंदी हो जाती है। दुष्यंत कुमार ने भले ही गुजुल के विषय को बदला हो परंतु गजल के स्तर को उसके मूलभूत ढाँचे को, उसके स्वरूप को कहीं बिगड़ने नहीं दिया। उनकी गुजलों के बारे में सुप्रसिद्ध शायर निदा फाजली लिखते हैं
'दुष्यंत की ग़ज़ल उनके युग की नई पीढ़ी के गुस्से और नाराज़गी से सजी बनी है। यह गुस्सा और नाराज़गी उस अन्याय और राजनीति के कुकर्मों के खिलाफ नए तेवरों की आवाज़ थी जो समाज में मध्यम वर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमाइंदगी करती है।' शुरू में ये अपनी रचनाएं परदेशी के नाम से लिखते थे।
दुष्यंत कुमार ने अपने गुज़ल संग्रह 'साये में चुप चले गए। की भूमिका में हिंदी और उर्दू को सगी बहने बताकर गुज़ल में उठे भाषायी विवाद को समाप्त करने की कोशिश की। इसका परिणाम यह हुआ कि आज तक भी हिंदी और उर्दू दोनों में लिखी
साफ झलकती है। दुष्यंत के बाद गजल में विषयगत बदलावों ने गज़ल को आम आदमी के निकट लाकर खड़ा कर दिया और लोगों को एक साहित्यिक, सांस्कृतिक व सामाजिक एकता के सूत्र बाँध दिया। आज गुजल हिंदी साहित्य में निरंतर वृद्धि कर रही है। उसे इस सिंहासन पर आसीन करने वालों में दुष्यंत कुमार का प्रथम स्थान है। उन्होंने गुजुल के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए कहा सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं। मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।
दुष्यंत कुमार का जन्म १ सितम्बर १६३३ को जनपद बिजनोर की नजीबाबाद तहसील के राजपुर नवादा गाँव में एक त्यागी किसान परिवार में भगवत सहाय के यहाँ हुआ था। उनकी प्रारंभिक शिक्षा गांव में ही तथा बाद की शिक्षा करबा नहठोर सर्वाधिक लोकप्रियता हासिल की। और शहर मुरादाबाद में हुई। उन्होंने शिक्षक के रूप में सन् १६५७ में बिजनौर के कस्बा कीरतपुर में कुछ समय अध्यापन भी किया किन्तु उनके अंदर के साहित्यकार ने कोई परंपरागत बंधन स्वीकार नहीं किया। वे स्वभाव से फकड़ तथा व्यवस्था के विरुद्ध आवाज़ उठाने वाले कवि थे इसलिए नौकरी में उनका मन नहीं लगा और उन्होंने कुछ समय आकाशवाणी दिल्ली में स्क्रिप्ट राइटर के रूप में काम भी किया। सन् १६६० में उनका तबादला सांस्कृतिक नागरी भोपाल हो गया जहां उन्हें हिंदी साहित्य के अनेक दिग्गज साहित्यकारों का सान्निद्धय प्राप्त हुआ जिनमें कालजयी कथाकार और चहेते कवि के रूप में पहचाने जाने लगे। मोहन राकेश, कमलेश्वर, मन्नू भंडारी और दिनेश शाद जैसे बड़े नाम शामिल थे। बचपन से ही रसिक और व्यवस्था की प्रति विद्रोही इस कवि के मन में दलितों वंचितों और त्रस्त आम आदमी के प्रति छुपी साहनुभूति उनकी ग़जलों में मुखर हो उठी और ये साहित्य जगत में लोकप्रियता की सीढ़ियों चढ़ते ही
यद्यपि दुष्यंत कुमार को हिंदी ग़ज़ल के प्रमुख प्रणेता के रूप में याद किया जाता है किन्तु सच्चाई ये है कि ये बहुमुखी साहित्यिक प्रतिभा के धनी थे। उन्होंने सन् १६४५ से ही लेखन प्रारम्भ कर दिया
की पत्रिका में छपती थी जो हैदराबाद से प्रकाशित होती थी। उस समय वे परदेशी के नाम से रचनाएँ लिखते थे। उनकी कहानी "परम्परा और प्रयोग काफी चर्चित हुई। सन् १६५६ - १६५७ में उनके द्वारा रचित नाटक "सूर्य का स्वागत” सन् १६६३ में में आवाजों के घेरे में तथा १६६४ में एक कर विषपायी" काव्य नाटिका का प्रकाशन किया गया। सन् १६७० में उनकी रचनाओं "आँगन में एक "वृक्ष" और सन् १६७३ में बन का वसंत तथा छोटे छोटे सवाल नामक उपन्यासों ने हिंदी साहित्य के भण्डार में आशातीत वृद्धि की दुष्यंत कुमार को अंतिम कृति सन १९७५ में साये में प्रकाशित हुई जिसकी ५२ ग़ज़लों ने गुज़ल के क्षेत्र में धूम मचा दी और दुष्यंत ने पाठकों के बीच
ग़ज़ल का शाब्दिक अर्थ यद्यपि प्रेमिका या औरत से बातचीत (गुफ्तगू) करना है परंतु हिंदी गुज़ल के सम्राट माने जाने वाले दुष्यंत कुमार ने इसके मायने ही बदल दिए। उसने इस बातचीत को आम आदमी की रोजमर्रा की परेशानियों का माध्यम बनाकर व्यवस्था पर करारी चोट की उनकी रचनाएँ देश के प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में नियमित रूप से छपने लगी जो पाठकों के दिलों पर गहरी छाप छोड़ने लगी। इस प्रकार दुष्यंत कुमार अपनी काव्यक्षमता, व्यग्यात्मक शैली, तल्ख लहजे और विद्रोही तेवर के साथ जन मानस के लाडले
भोपाल में आकाशवाणी केंद्र के सर्वोच्च पद केंद्र निर्देशक की कुर्सी पर पहुंचकर भी उन्होंने अपने सरल, सादा, खुद्दार और अक्खड़ स्वभाव को नहीं छोड़ा। उच्च पद पर आसीन होने के अलावा विस बात ने उन्हें महान बनाया वह थी उनकी सादगी और अपने देश की जड़ों से जुड़े रहना। जब भी वे अपने गाँव जाते तो शहर के रेलवे स्टेशन पर ही अपना सिगरेट केस फेंककर बीड़ी का बण्डल खरीदते और कश लगाते हुए गाँव की पगडण्डी पर गाते और मस्ती से झूमते गुनगुनाते चल पड़ते दो गाँव जाने के लिए वे बस के बजाय भैंसा बुग्गी या
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