प्रो. बलवंत सिंह राजपूत का बिजनौर पर लेख
नजीबुदौला ने प्राचीन मालिन नदी के सुरम्य तट पर बसे प्राचीन गौरवशाली नगर राजगढ़ (मानगढ़) में अपने सिपाहियों के लिए एक नया मौहल्ला पठानपुरा बसाकर इस नगर का नाम अपने नाम पर नजीबाबाद (राजगढ़ के स्थान पर) रख लिया था। प्रारंभ में इस जनपद का नाम वेन नगर था जो चंद्रवंशी नरेश वेन के नामपर पड़ा था जो कालांतर में विज नगर और बाद में बिजनौर बन गया। वर्तमान के बिजनौर नगर से दो किलो मीटर दक्षिण पश्चिम के खेतो में आज भी खंडहरों के रूप में वेननगर के साक्ष्य मिलते हैं। लगता है कि ये नगर कई बार गंगा की बाढ़ में डूबा था।

बिजनौर जनपद अपने भौगोलिक, सांस्कृतिक तथा ऐतिहासिक महत्व के कारण प्राचीन काल से ही जाना जाता है। इसकी पश्चिमी सीमा गंगा मैय्या की पावन धारा है। उत्तर पूर्व में उत्तराखंड की पर्वत श्रृंखलाएं तथा दक्षिण पश्चिम में प्रसिद्ध तीर्थ हरद्वार है। इसकी उत्तरी सीमा पर हिमालय की तराई है। बिजनौर जनपद का वर्तमान क्षेत्रफल 4338 वर्ग किलोमीटर है और जनसंख्या लगभग 50 लाख है। इसकी भूमि बहुत उर्वरक है और जलवायु बहुत स्वास्थ्यवर्धक है।
प्राचीन काल में इस जनपद का पूरा प्रदेश सघन वनों से आच्छादित था जिसमे अनेक ऋषियों एवम मुनियों के आश्रम थे जिस कारण ये भूमि देवभूमि कहलाती थी। महर्षि कण्व का मुख्य आश्रम गंगा तथा मालिनी और रवासा नदियों के संगम स्थानों के बीच में रावली क्षेत्र में फैला हुवा था तथा इसी क्षेत्र में जगत प्रसिद्ध प्रतापी भरत का जन्म हुवा था जिनके पिता हस्तिनापुर के यशस्वी नरेश दुष्यंत तथा माता शकुंतला थी जो ब्रह्मऋषि विश्वामित्र एवम अप्सरा मेनका की पुत्री थी तथा जिसका पालन पोषण महर्षि कण्व ने किया था। महाभारत के महायुद्ध में अनेक वीरों की विधवाओं को हस्तिनापुर के महामंत्री विदुर जी ने इसी क्षेत्र में गंगा तट पर विदुरकुटी (बिजनौर से लगभग 12 किलोमीटर) के पास बसाया था तथा उनकी सुरक्षा एवं उनकी जीविका की सम्मानजनक व्यवस्था की थी और इस स्थान का नाम दारानगर (स्त्रियों का नगर) रखा था।

इस क्षेत्र के दक्षिण में गंगा तट पर महाभारत काल में द्रोणाचार्य का आश्रम एवम शिक्षण केंद्र था जिसे सैन्यद्वार कहा जाता था। उस स्थान पर आज भी चांदपुर के पास सैंदवार नाम का गांव है जिसके पास द्रोणसागर नाम का ताल है। महाभारत काल का एक अन्य गांव मोरध्वज ( मुरथल) वर्तमान नगरों कोटद्वार एवम नजीबाबाद के बीच में स्थित है जहां पर पिछली शताब्दी के आठवें एवम नवम दशकों में गढ़वाल विश्वविद्यालय के इतिहास एवम पुरातत्व विभाग द्वारा की गई खुदाई में एक अति प्राचीन दुर्ग ( मोरध्वज गढ़ का किला) के भग्नावशेष प्राप्त हुवे थे। जिस सामग्री से ये किला बना था वो ही सामग्री (और उतनी ही पुरानी ) वर्तमान नजीबाबाद ( प्राचीन राजगढ़) के पथेरगढ़ के किले के निर्माण में भी प्रयोग की गई थी जिसे अनेक परीक्षणों द्वारा प्रमाणित किया जा चुका है।

पथेर गढ़ के इस ऐतिहासिक किले से एक भूमिगत सुरंग वर्तमान नजीबाबाद की पुरानी तहसील के प्रांगण तक जाती है और दूसरी लगभग 165 किलोमीटर दूर कुमाऊं की पहाड़ियों में जाकर खुलती है जिसमे दो घोड़े समांतर दौड़ सकते हैं। इस किले की प्राचीरें इतनी चौड़ी हैं कि उन पर भी दो घोड़े समांतर दौड़ सकते हैं। किले की इस विशाल प्राचीरों में बने गवाक्षों से स्वयं छिपे रहकर विभिन्न प्रकार के अस्त्रों द्वारा दसों दिशाओं में प्रहार किया जा सकता है। इतनी सुदृढ़ प्राचीरों एवं विशाल तथा बहुत दृढ़ प्रवेशद्वार ने इस किले को अभेद्य दुर्ग बना रखा था। इस किले का निर्माण प्राचीन काल में राजगढ़ के नरेश मानसिंह ने चालीस वर्षों के सतत प्रयास द्वारा कराया था। ये राजपूतों की श्रेष्टतम जाति रवा राजपूतों में जन्मे बहुत प्रतापी तथा वीर राजा थे। इनका राज्य रवासा, मालिन तथा खो नदियों के मध्य के संपूर्ण क्षेत्र में फैला था। इस किले को ना तो नबाब नजीबउदौला द्वारा बनाया गया था और न ही सुल्ताना डांकू के द्वारा।
नजीब उदौल्ला मात्र 17 वर्षो तक एक नबाब मात्र थे कोई नरेश नहीं। किसी भी नबाब के द्वारा इतनी अल्पावधि में इस अति गुह्य किले का निर्माण करा लेना संभव ही नहीं था। नजीबुदौला ने प्राचीन मालिन नदी के सुरम्य तट पर बसे प्राचीन गौरवशाली नगर राजगढ़ (मानगढ़) में अपने सिपाहियों के लिए एक नया मौहल्ला पठानपुरा बसाकर इस नगर का नाम अपने नाम पर नजीबाबाद (राजगढ़ के स्थान पर) रख लिया था। प्रारंभ में इस जनपद का नाम वेन नगर था जो चंद्रवंशी नरेश वेन के नामपर पड़ा था जो कालांतर में विज नगर और बाद में बिजनौर बन गया। वर्तमान के बिजनौर नगर से दो किलो मीटर दक्षिण पश्चिम के खेतो में आज भी खंडहरों के रूप में वेननगर के साक्ष्य मिलते हैं। लगता है कि ये नगर कई बार गंगा की बाढ़ में डूबा था।

बिजनौर नगर से पंद्रह किलोमीटर उत्तर पश्चिम में प्रसिद्ध ऐतिहासिक नगर प्रलंभ नगर था कालांतर में जिसका नाम मौर्देयपुर पड़ा जो वर्तमान में मंडावर हो गया है। इस नगर में प्रसिद्ध किला मौर्देय गढ़ था जिसपर चंद्रवंशी राजाओं का शासन था। दिल्ली में पृथ्वीराज चौहान के शासन काल में इस गढ़ पर वीर कड़क सिंह ( कड़िया) का शासन था जिसने अनेक युद्धों में विजय प्राप्त की थी। एक बार मौहब्बे के वनाफर परमार राजा को जीत कर उसके वीर सेनापति जस्सराज और उसके वीर भाई बच्छराज का सम्मुख भयंकर युद्ध में वध कर दिया था। इस घटना के बीस वर्ष बाद जस्सराज के पुत्रों आल्हा और ऊदल तथा बच्छराज के पुत्र मलखान के नेतृत्व में मौहब्बे की विशाल सेना ने मौर्देय पुर पर आक्रमण करके कई दिनों तक चले भयंकर युद्ध में कड़क सिंह का वध करके मौर्देय गढ़ के किले को नष्ट भ्रष्ट कर दिया था। इस ऐतिहासिक किले के भग्नावेश आज भी ग्राम मौहंडिया के खेतो में पाए जाते हैं।
हरद्वार जनपद्व के गठन से पूर्व बिजनौर जनपद का क्षेत्र उत्तर पश्चिम में चंडीघाट एवम कनखल तक विस्तृत था। ऋषिकेश तथा मायानगरी (हरिद्वार) के बीच में जहां खरखड़ी एवम् मुनि की रेती का विशाल क्षेत्र है जिसमे अनेक साधकों एवम् संतो ने आध्यात्मिक/ सांस्कृतिक आश्रम तथा अखाड़े बनाए हुए हैं वहां पर सोलहवीं तथा सत्रहवीं शताब्दी में ऐक बहुत संपन्न, गौरवमय तथा पूर्णतः स्वयतशासित राज्य था जिसके प्रतापी राजाओं ने किसी भी मुग़ल शासक की अधीनता स्वीकार नहीं की थी। इस राज्य का नाम कनेरी कला था। आक्रमणकारी मुग़ल शासक बाबर तथा उसके सभी वंशजों ने भारत के मूल निवासी हिंदुओं पर जघन्य अत्याचार किए थे तथा उन्हें अपमानित करने के लिए अयोध्या में श्री राम जन्म भूमि, मथुरा में श्री कृष्ण जन्मभूमी तथा काशी में श्री विश्वनाथ के मंदिर में तोड़फोड़ की थी और पूरे देश में हजारों भव्य मंदिर तोड़े थे एवं देवी-देवताओं की मूर्तियों को खंडित व अपमानित किया था
इन विदेशी आक्रमण कारी आक्रांताओं का कुत्सित उद्देश्य भारत की सनातन संस्कृति के प्रतीकों को मिटाकर हिंदुओ के मनोबल को सदा के लिए समाप्त कर देना था। उन अनाचारी विदेशी आक्रांताओं के शासन काल में भी देवभूमि उत्तराखंड के चारों धाम पूर्णतः सुरक्षित रहे थे तथा वहा के किसी अन्य मंदिर में भी किसी प्रकार की कोई तोड़फोड़ नहीं हुई थी और ना ही कोई मुग़ल सेना कभी हरिद्वार पार करके पर्वतीय क्षेत्र में प्रवेश कर पाई थी। इसका कारण कनेरी कला राज्य के नेतृत्व में बना उत्तरी भारत (मुख्यतः बिजनौर जनपद) के छोटे स्वतंत्र राजपूत राज्यों (मालिन, रवाशा, खोह, तथा गंगा नदियों की बीच का क्षेत्र) मद्रेपुर (मंडावर), पथरगढ (मानगढ़), नहटोर, शेरकोट, हल्डोर, कटेहर, तथा सरसावा का अति प्रबल संगठन था जिनमें से कभी भी किसी ने मुग़ल साम्राज्य की अधीनता स्वीकार नहीं की थी और ना ही कभी मुग़ल सेना को इनमें से किसी राज्य में प्रवेश करने दिया था। इन्हीं राज्यों की सम्मिलित शक्ति के कारण ही कभी भी मुग़ल सेना हरिद्वार तथा देवभूमि में प्रवेश नहीं कर पाई थी जिस से इन क्षेत्रों तथा देव भूमि उत्तराखंड के सभी भव्य मंदिर सुरक्षित रह सके थे।
बिजनौर जनपद के धामपुर नगर के पास ही एक कस्बा शेरकोट है जिसकी स्थापना शेरशाह सूरी द्वारा 1540 ई o मे ले गई थी।यह नगर खो नदी के तट पर बसा है। 1857 के भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में शेरकोट में अंग्रेजों तथा क्रांतिकारियों के मध्य भयंकर संग्राम हुवा था जो 28 जुलाई 1857 ई o से 5 अगस्त 1957 तक चलता रहा था। बिजनौर जनपद का चांदपुर नगर भी बहुत प्राचीन है जिसके पास के गांव ननौर (चांदपुर जलीलपुर मार्ग पर) में प्रसिद्ध सीता मंदिर मठ स्थित है। वर्तमान नगर नजीबाबाद एवम धामपुर के बीच में बसा कस्बा नगीना का भी ऐतिहासिक महत्व है जहा पर अप्रैल 1857 में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के अंतर्गत रूहेलो तथा अंग्रेजो के मध्य भयंकर युद्ध हुआ था। यह कस्बा काष्ठ कला उद्योग के लिए भी गत 500 वर्षो से जाना जाता है। बिजनौर तथा चैनपुर के मध्य बड़ा कस्बा हल्दौर चौहान राजपूतों की राजधानी रहा है जिसकी स्थापना 18 वी शताब्दी में राजा हलदर सिंह ने की थी।
बिजनौर जनपद के और भी कई कस्बों और गांवों का बहुत ऐतिहासिक महत्व है। भारत के 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से लेकर 1947 में देश की स्वतंत्रता के लिए बिजनौर जनपद के हजारों वीरों ने अपने प्राण न्यौछावर किए थे और अनेक क्रांतिवीरों ने जेल यात्राएं भी की थी। उसके बाद 1975 में लगे अपादकाल में बिजनौर जनपद के अनेक देशभक्त लोकतंत्र सेनानियो को लंबे समय तक कारागार के कष्ट सहने पड़े थे। इस अवधि में मुझे भी देश में लोकतंत्र की रक्षा के लिए 6 महीने कारागार में रहना पड़ा था। इतनी गौरवशाली ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि एवम अदभुत उर्वरा भूमि के इस जनपद में स्वंत्रता के बाद बहुत कम ( लगभग नगण्य) विकास हो पाया है। पूरे जनपद में रोजगार परक शिक्षा तथा तदउपरांत रोजगार की उपलब्धता लगभग शून्य होने के कारण सभी मेधावी युवकों को तकनीकी, व्यवसायिक, मेडिकल, तथा रोजगार परक एवम रोजगार जनक शिक्षा के लिए जनपद से बाहर जाना पड़ता है ।
बहुत सारे मेधावी छात्र धनाभाव के कारण उक्त प्रकार की शिक्षा से वंचित रह जाते हैं। दूसरे जनपदों ( विशेष रूप से दिल्ली एवम एनसीआर ) से इस प्रकार की शिक्षा प्राप्त करके इस जनपद के सभी युवक नौकरी तथा रोजगार हेतु जनपद से बाहर जाने को बाध्य हो रहे हैं क्योंकि जनपद बिजनौर में उनके लिए किसी भी प्रकार के रोजगार की कोई सुविधा उपलब्ध नहीं है। इसके कारण जनपद के गांव खाली होते जा रहे है जहा केवल कुछ बुजुर्ग अथवा मंदबुद्धि युवक ही दिखाई पड़ते है। सभी मेधावी युवको के जनपद से बाहर जाकर बस जाने से जनपद के विकास के सारे अवसर समाप्त हो रहे हैं।
उक्त तथ्यों के प्रकाश में उत्तरप्र देश एवं केंद्र की विकासोन्मुख सरकारों से अनुरोध है कि इस ऐतिहासिक महत्व के जनपद से प्रतिभा पलायन रोकने हेतु जनपद के प्रत्येक विकाश खंड में रोजगार जनक एवं रोजगार परक तंत्रों की स्थापना पर ध्यान दें।
(लेखक गढ़वाल विश्वविद्यालय और कुमाऊं विश्वविद्यालय दोनों के ही पूर्व कुलपति रहे हैं।)
https://rashtrokti.com/glorious-history-of-bijnor-district/
से साभार
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