अपनी भव्यता खोती जा रही है जिला प्रदर्शनी
अशोक मधुप
जिला कृषि औद्योगिक एवं सांस्कृतिक प्रदर्शनी कभी अपनी भव्यता के लिए प्रसिद्ध थी। पूरे जनपद से दर्शक इसे देखने आते थे। अब तो यह नगर स्तर का मेला बन कर रह गई है।किसी समय लोक समाज केंद्र के आसपास से लेकर इंदिरा पार्क तक प्रदर्शनी भरती । मेडिकल काँलोनी की जगह सर्कस लगता था। विश्व प्रसिद्ध कमला सर्कस भी इस प्रदर्शनी में आकर अपना प्रदर्शन दिखा चुका है। जजी और उसके सामने मंडुवे(चलते −फिरते सिनेमा) लगते।
वरिष्ठ पत्रकार डा. ओपी गुप्ता के 1985 की प्रदर्शनी के आयोजन पर छपी स्मारिका के लेख के अनुसार बिजनौर में जिला कृषि, औद्योगिक एवं सांस्कृतिक प्रदर्शनी के नाम से लगने वाले इस वार्षिक मेले का शुभारम्भ सन् 1950 में नार्मल स्कूल के मैदान( वर्तमान विकास भवन कैंपस ) से हुआ था । यह मेला जेल के आगे से लेकर यहां तक भरता था।अधिकृत रूप से तीन सप्ताह तक लगने वाला यह मेला दो वर्ष बाद ही अपने वर्तमान मैदान में आ गया था। प्रतिवर्ष भांति-भांति की नवीनताओं साथ लगने वाले इस मेले का बच्चे, बूढ़े, नौजवान, रिक्शा वाले, दुकानदार तथा विभिन्न कार्यक्रमों के आयोजक एवं नुमायण के ठेकेदार बड़ी बेकली से इन्तजार किया करते हैं।
आरम्भिक आयोजकों ने इस नुमायश का समय मई का महीना चुना था। इस समय किसानों के आनाज खेतों से उठ जाते हैं। स्कूलों की छुट्टियां हो जाती है। बरसात से ठीक पहले के इस महीने में दूर-दूर के दुकानदार भी बड़ी प्रसन्नता से आ जाया करते थे । घरों में व्याकुल करने वाली गर्मी से भागकर नागरिक भी संध्या के समय नुमायन की रंगोनियों की और बड़े चाव से आकर्षित होते थे। इसके अतिरिक्त ऊंचे-ऊंचे झूलों सरकसों, खेल-खिलौनों तथा भांति-भांति के सांस्कृतिक कार्यक्रमों और भांति-भांति के खाद्य पदार्थो की दुकानों के आकर्षण के कारण पत्नी, बच्चों तथा भाई-बहनों की जिद व्यक्ति को प्रत्येक संख्या नुमायश मैदान की ओर चलने को विवश कर देती है। इस विवशता में व्यक्ति इतने आनन्द का अनुभव करता है। कि प्रतिवर्ष इन दिनों की इन्तजार किया करता है।
जनपद के उद्योग-धन्यों की दुकानें भी लगा करती थी। नुमायश के कृषि प्रदर्शनी में आज भी के उत्पादन के प्रदर्शन की परम्परा का चलन है। पर अब ये सिकुड़ गई। सरकारी योजनाओं को प्रदर्शित करने वाले स्टाल का एरिया भी कम हो गया ।
कुल मिलाकर यह बिजनौर शहर तथा आसपास के कस्बों और देहातों के लिए एक आकर्षक पखवाड़ा होता है। विशेष अनुमति के सहारे 15 दिन की यह नुमायश एक महीने तक खिंच जाती है।
सही तो याद नही किंतु सन साठ के आसपास
इस प्रदर्शनी में विश्व प्रसिद्ध कमला सर्कस भी आया था। मैं बहुत छोटा था।उस समय प्रचार का ज्यादा साधन नहीं थे। इस सर्कस की सर्च लाइट रात में आकाश में घूमती । झालू में हमने यह लाइट देखी।आसमान में दूर तक चमकती और घूमती रहती।बताया जाता था कि इसकी रोशनी 15 −20 किलो मीटर तक जाती। मेरे चाचा स्वर्गीय राजेंद्र शर्मा मुझे लेकर नुमायश देखने आए थे। झालू से उस समय बिजनौर आने −जाने के साधन नही थे। बस सुबह शाम की ट्रेन ही थी।शाम की ट्रेन से हम बिजनौर के लिए चले। ट्रेन में बहुत भीड़ थी। डिब्बों के जोड़ पर भी भारी भीड़ थी।यहां भी बैठने की व्यवस्था नहीं थी।चाचा जी और उनके साथी मुझे लेकर इंजिन के आगे चढ़ गए। ये सारी भीड़ कमला सरकस को देखने आने वालों थी। बताया गया कि यहां चौथाई सरकस ही आया है। बाकी का इसका तीन भाग को भारत लेकर आता जहाज समुद्र में डूब गया। पहले प्रदर्शनी में चलते फिरते सिनेमा भी लगते थे। सिनेमा स्वामी अपने पास दो मशीन रखते थे। प्रदर्शनी या मेला लगने पर एक मशीन मेले में भेज दी जाती। सिनेमा हाल में एक इंटरवल होता किंतु इनमें दो या तीन इंटरवल होते। इन चलते फिरते सिनेमा को मंडवा कहा जाता।
प्रदर्शनी में नौंटकी भी आतीं।इनका शो दस बजे के आसपास शुरू होता।ये शो सवेरे तक चलता। आसपास के गांव वाले नींद आने पर शो के दौरान बैठने वाली दरी पर ही सो जाते और सुबह होने पर अपने घर चले जाते।
पहले मई जून में परीक्षा के बाद प्रदर्शनी लगती थी। अब बरसात में लगने लगी।एक तरह से ये बरसाती मेला बनकर रह गई। हां एक बार प्रदर्शनी दिसंबर में भी लगी थी। किंतु कामयाब नही हुई थी।
बिजनौर के आसपास के दर्शक बैलगाड़ी आदि से
प्रदर्शनी में आते थे। ये प्राय: पूरी रात रूकते और
सवेरे वापस लौटते। नजीबाबाद और चांदपुर साइड से शाम को ट्रेन आती थीं। नजीबाबाद और चांदपुर साइड के यात्री इन्हीं ट्रेन से आते। हालत यह होती थी कि प्रदर्शनी के दौरान इस ट्रेन में जगह नहीं मिलती थी। यात्री छतों और डिब्बों के जोड़ तक पर बैठकर आते थे। कई बार तो ट्रेन के इंजिन के आगे भी यात्री बैठे और खड़े होते थे।
पुराने व्यक्ति बतातें हैं कि एक बार तो प्रदर्शनी में हवाई जहाज भी आए थे। वे पांच रुपये में बिजनौर
शहर का चक्कर कटाते थे। मेरा ननसाल सालमाबाद भरेरा का है। ये बिजनौर से सटा है। मेरी मां भी प्रदर्शनी में हवाई जहाज आने की बात कहती थी।किंतु उनकी बात का कभी यकीन नही हुआ। वरिष्ठ पत्रकार स्वर्गीय राजेंद्र पाल सिंह कश्यप
बताते थे कि वे १९६३ में वे पालिका के चेयरमैन थे। उन्होंने प्रदर्शनी को रोचक बनाने के लिए आरजेपी कार्यालय की जगह अपना कैंप कार्यालय बनाया।
दिल्ली फ्लांइग क्लब से संपर्क किया। उसके दो प्लेन प्रदर्शनी में यात्रियों को घुमाने के लिए
बुलाए। एक तो उतरते ही दुर्घटनाग्रस्त हो गया ।
दूसरा प्रदर्शनी में दर्शकों का मनोरंजन करता रहा। लास्ट में वह भी उतरते समय दुर्घटनाग्रस्त हो गया। वे बताते थे कि दूसरे प्लेन के दुर्घटनागस्त होते
समय शेरों वाली कोठी के मालिक रमेशचंद गुप्ता और उनकी पत्नी बैठीं थीं। किसी को कोई चोट नहीं आई थी। दोनों प्लेन के दुर्घटनाग्रस्त होने के कारण फिर कभी प्रदर्शनी में प्लेन नहीं आए। बिजनौर में
नजीबाबाद बस स्टैंड पर मैडिकल स्टोर चलाने वाले सुनील कुमार गुप्ता स्वीकार करतें हैं कि उन्हें याद है कि एक बार प्रदर्शनी में हवाई जहाज आए थे। उस समय पेट्रोल पंप नही होते थे। इस समय इन प्लेन के लिए ड्रम में पेट्रोल आता था। सन् 63 या 64 में प्रदर्शनी में रात को बहुत तेज ओले पड़े थे। हम मंडवे में पिक्चर देख रहे थे। पहले बारिश पड़नी शुरू हुई । हम मंडवे की दीवार के लिए लगाई गई टिन से सटकर खड़ हो गए। ओलों के पड़ने पर इन मंडुओं के गेट पर रोशनी रोकने के लिए डाले गए पर्दों के नीचे छिपकर बचे।
इस प्रदर्शनी में होने वाले कवि सम्मेलन और मुशायरे और कव्वाली मुकाबले बड़े लोकप्रिय होते थे। देश में जाने माने कवि एवं शायर इसमें भाग लेते। इन कवि सम्मेलन में प्रसिद्ध कवि नीरज और श्याम नारायण पाडेय भी कविता पाठ कर चुके हैं। डीएम अनीस अंसारी के समय कवि सम्मेलन था। सवेरे से आकाश में घने बादल छाए थे।कवि सममेलन में भारी भीड़ थी। स्थानीय होने के कारण सबसे पहले मुझे अशोक मधुप को कविता पढ़ने के लिए बुलाया गया। मेरी कविता के दौरान तेज बारिश होने लगी। मेरे कविता खत्म होते ही ये कवि खत्म हो गया। बाद में कवि सम्मेलन अगले दिन दोपहर में राजा ज्वाला प्रयाद इंटर काँलेज के हाल में हुआ ।प्रसिद्ध गीतकार और आर्य समाजी विद्वान जय नारायण अरूण आज भी कभी भी यादकर कह देते हैं कि वह कवि सम्मेलन तो तुझे (अशोक मधुप)सुनने के लिए ही बुलाया गया था। तेरे कविता पाठ करते ही खत्म हो गया था।
1953 से 1957 तक ब्रिजिश कदर साहब बिजनौर।नगर पालिका के चेयरमैन रहे। वरिष्ठ पत्रकार राजेन्द्र पाल सिंह वाइस चेयरमैन थे।नए मैदान में प्रदर्शनी आ चुकी थी।इसके गेट बनाये जा रहे थे।कश्यप साहब ने ब्रिजिश कदर साहब को गेट पर नटराज की मूर्ति लगाने का सुझाव दिया ।उन्होंने कहा कि भगवान शंकर की प्रतिमा लगाने का मुस्लिम सदस्य विरोध करेंगे।कश्यप साहब बताते थे कि ब्रिजिश कदर बहुत सरल व्यक्ति थे।उन्होंने उन्हें समझाया ये भगवान शंकर नही ।नटराज है ।कलाओं के देवता।ये अलग हैं।इसपर वे मान गए।गेट पर नटराज की प्रतिमा लगी।श्री ब्रजीश कदर साहब ने उसका उद्घटान भी किया।
अशोक मधुप
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं
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