बिजनौर के जाट

 

बिजनौर

विजयेन्द्र कुमार माथुर[3] ने लेख किया है .....बिजनौर, उ.प्र. (AS, p.628): बिजनौर गंगा नदी के वामतट पर लीलावाली घाट से तीन मील की दूरी पर एक छोटा सा क़स्बा है। कहा जाता है कि इसे विजयसिहं ने बसाया था। दारानगर और विदुरकुटी यहाँ से 7 मील की दूरी पर स्थित है। ये दोनों स्थान महाभारत कालीन बताये जाते हैं।

स्थानीय जनश्रुति में बिजनौर के निकट गंगातटीय वन में महाभारत काल में मयदानव का निवास स्थान था। भीम की पत्नी हिडिंबा मयदानव की पुत्री थी और भीम से उसने इसी वन में विवाह किया था। यहीं घटोत्कच का जन्म हुआ था। नगर के पश्चिमांत में एक स्थान है जिसे हिडिंबा और पिता मयदानव के इष्टदेव शिव का प्राचीन देवालय कहा जाता है। मेरठ या मयराष्ट्र बिजनौर के निकट गंगा के उस पार है।

बिजनौर के इलाके को वाल्मीकि रामायण में प्रलंब नाम से अभिहित किया गया है। नगर से आठ मील दूर मंडावर है जहाँ मालिनी नदी के तट पर कालिदास के [p.629]: "अभिज्ञान शाकुंतलम" नाटक में वर्णित कण्वाश्रम की स्थिति परंपरा से मानी जाती है।

कुछ लोगों का कहना है कि बिजनौर की स्थापना राजा बेन ने की थी जो पंखे या बीजन बेचकर अपना निजी ख़र्च चलाता था और बीजन से ही बिजनौर का नामकरण हुआ।

बिजनौर परिचय

बिजनौर नगर, पश्चिमोत्तर उत्तर प्रदेश राज्य, उत्तरी भारत में, दिल्ली के पूर्वोत्तर में गंगा नदी के समीप स्थित है। 1801 में इस नगर को ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी में शामिल कर लिया गया था।

जनश्रुतियों के आधार पर बिजनौर की प्राचीनता राम के युग के साथ भी जोड़ी जाती है, जिसका एकमात्र आधार चाँदपुर के निकट बास्टा में प्राप्त सीता का मंदिर है। कहा जाता है कि मंदिर-स्थल पर ही धरती फटी थी और सीताजी उसमें समा गई थीं।

कहा जाता है कि भारत का प्रथम राजा 'सुदास' इसी पांचाल देश का था।

विदुरकुटी महात्मा विदुर की तपोभूमि रही है।

बुद्धकालीन भारत में भी चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने छह महीने मतिपुरा (मंडावर) में व्यतीत किए थे। पृथ्वीराज चौहान और जयचंद की पराजय के बाद भारत में तुर्क साम्राज्य की स्थापना हुई थी। उस समय यह क्षेत्र दिल्ली सल्तनत का एक हिस्सा रहा था। तब इसका नाम 'कटेहर क्षेत्र' था। औरंगज़ेब कट्टर शासक था। उसके शासनकाल में अनेक विद्रोही केंद्र स्थापित हुए थे। उन दिनों जनपद पर अफ़ग़ानों का अधिकार था। ये अफ़गानी अफ़ग़ानिस्तान के 'रोह' कस्बे से संबद्ध थे अत: ये अफ़गान रोहेले कहलाए और उनका शासित क्षेत्र रुहेलखंड कहलाया गया था। नजीबुद्दौला प्रसिद्ध रोहेला शासक था, जिसने 'पत्थरगढ़ का क़िला' को अपनी राजधानी बनाया था।

आज़ादी की लड़ाई के समय सर सैयद अहमद ख़ाँ यहीं पर कार्यरत थे। उनकी प्रसिद्ध पुस्तक 'तारीक सरकशी-ए-बिजनौर' उस समय के इतिहास पर लिखा गया महत्त्वपूर्ण दस्तावेज़ है। प्रसिद्ध क्रांतिकारियों चंद्रशेखर आज़ाद, पं. रामप्रसाद बिस्मिल, अशफ़ाक़ उल्लाह ख़ाँ, रोशनसिंह ने पैजनिया में शरण लेकर ब्रिटिश सरकार की आँखों में धूल झोंकी थी। कांग्रेस द्वारा लड़ी गई आज़ादी की लड़ाई में भी जनपद का महत्त्वपूर्ण योगदान है।

साहित्य के क्षेत्र में बिजनौर जनपद ने कई महत्त्वपूर्ण मानदंड स्थापित किए हैं। कालिदास ने इस जनपद में बहने वाली मालिनी नदी को अपने प्रसिद्ध नाटक 'अभिज्ञान शाकुन्तलम्' का आधार बनाया था। अकबर के नवरत्नों में अबुल फ़जल और फ़ैज़ी का पालन-पोषण बास्टा के पास हुआ था।

उर्दू साहित्य में भी बिजनौर का गौरवशाली स्थान रहा है। नूर बिजनौरी जैसे विश्वप्रसिद्ध शायर इसी मिट्टी से पैदा हुए थे। महारानी विक्टोरिया के उस्ताद नवाब शाहमत अली भी मंडावर के निवासी थे, जिन्होंने महारानी को फ़ारसी की तालीम दी थी। संपादकाचार्य पं. रुद्रदत्त शर्मा पं. पद्मसिंह शर्मा, जिनके द्वारा बिहारी सतसई की तुलनात्मक समीक्षा लिखी गई थी। दुष्यंत कुमार, जिनको हिन्दी-ग़ज़लों का शहंशाह कहा जाता है। ये सब महान् व्यक्ति बिजनौर की धरती की ही देन हैं।

पर्यटन: बिजनौर जनपद में अनेक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक स्थल हैं।

कण्व आश्रम: यह एक महत्त्वपूर्ण स्थल है। अर्वाचीन काल में यह क्षेत्र वनों से आच्छादित था। मालिनी और गंगा के संधिस्थल पर रावली के समीप कण्व मुनि का आश्रम था, जहाँ शिकार के लिए आए राजा दुष्यंत ने शकुंतला के साथ गांधर्व विवाह किया था। रावली के पास अब भी कण्व आश्रम के स्मृति-चिह्न शेष हैं।

विदुरकुटी: विदुरकुटी महाभारत काल का एक प्रसिद्ध स्थल है। ऐसी मान्यता है कि भगवान कृष्ण जब हस्तिनापुर में कौरवों को समझाने-बुझाने में असफल रहे थे तो वे कौरवों के छप्पन भोगों को ठुकराकर गंगा पार करके महात्मा विदुर के आश्रम में आए थे और उन्होंने यहाँ बथुए का साग खाया था। इस मंदिर के समीप बथुए का साग हर ऋतु में उपलब्ध हो जाता है।

दारानगर: महाभारत का युद्ध आरंभ होने वाला था, तभी कौरव और पांडवों के सेनापतियों ने महात्मा विदुर से प्रार्थना की कि वे उनकी पत्नियों और बच्चों को अपने आश्रम में शरण प्रदान करें। अपने आश्रम में स्थान के अभाव के कारण विदुर जी ने अपने आश्रम के निकट उन सबके लिए आवास की व्यवस्था की। आज यह स्थल 'दारानगर' के नाम से जाना जाता है। संभवत: महिलाओं की बस्ती होने के कारण इसका नाम दारानगर पड़ गया।

सेंदवारचाँदपुर के निकट स्थित गाँव 'सेंदवार' का संबंध भी महाभारत काल से जोड़ा जाता है, जिसका अर्थ है सेना का द्वार। जनश्रुति है कि महाभारत के समय पांडवों ने अपनी छावनी यहीं बनाई थी। गाँव में इस समय भी द्रोणाचार्य का मंदिर विद्यमान है।

पारसनाथ का क़िलाबढ़ापुर से लगभग चार किलोमीटर पूर्व में लगभग पच्चीस एकड़ क्षेत्र में 'पारसनाथ का क़िला' के खंडहर विद्यमान हैं। इन टीलों पर उगे वृक्षों और झाड़ों के बीच आज भी सुंदर नक़्क़ाशीदार शिलाएँ उपलब्ध होती हैं। इस स्थान को देखने से ऐसा प्रतीत होता है कि इसके चारों ओर द्वार रहे होंगे। इसके चारों ओर बनी हुई खाई कुछ स्थानों पर अब भी दिखाई देती है।

आजमपुर की पाठशालाचाँदपुर के पास बास्टा से लगभग चार किलोमीटर दूर आजमपुर गाँव में अकबर के नवरत्नों में से दो अबुल फ़जल और फ़ैज़ी का जन्म हुआ था। अबुल फ़जल और फ़ैज़ी ने इसी गाँव की पाठशाला में शिक्षा प्राप्त की थी। अबुल फ़जल और फ़ैज़ी की बुद्धिमत्ता के कारण लोग आज भी पाठशाला के भवन की मिट्टी को अपने साथ ले जाते हैं। ऐसा विश्वास है कि इस स्कूल की मिट्टी चाटने से मंदबुद्धि बालक भी बुद्धिमान हो जाते हैं।

मयूर ध्वज दुर्ग: चीनी यात्री ह्वेन त्सांग के अनुसार जनपद में बौद्ध धर्म का भी प्रभाव था। इसका प्रमाण 'मयूर ध्वज दुर्ग' की खुदाई से मिला है। ये दुर्ग भगवान कृष्ण के समकालीन सम्राट मयूर ध्वज ने नज़ीबाबाद तहसील के अंतर्गत जाफरा गाँव के पास बनवाया था। गढ़वाल विश्वविद्यालय के पुरातत्त्व विभाग ने भी इस दुर्ग की खुदाई की थी।

संदर्भ: भारतकोश-बिजनौर

अपरताल

विजयेन्द्र कुमार माथुर[4] ने लेख किया है ... अपरताल (AS, p.25) स्थान का उल्लेख वाल्मीकि रामायण [अयोध्याकांड 68,12] में अयोध्या के दूतों के केकय देश (पंजाब के अंतर्गत) की यात्रा के प्रसंग में है- 'न्यन्ते नापरतालस्य प्रलम्बस्योत्तरं प्रति निषेवमाणाजग्मुर्नदीमध्येन मालिनीम्'। इस देश के संबंध में मालिनी नदी का उल्लेख होने से यह जान पड़ता है कि इस देश में ज़िला बिजनौर और गढ़वाल (उत्तर प्रदेश) का कुछ भाग सम्मिलित रहा होगा। मालिनी गढ़वाल के पहाड़ों से निकल कर बिजनौर नगर से 6 मील दूर गंगा में रावलीघाट के निकट मिलती है। इसके आगे दूतों के हस्तिनापुर में पहुंच कर गंगा को पार करने का उल्लेख है। [68,13] प्रलंब बिजनौर ज़िले का दक्षिण भाग था, क्योंकि उपर्युक्त उद्धरण में उसे मालिनी के दक्षिण में बताया गया है। मालिनी इस ज़िले के उत्तरी भाग में बहती है।

खोबे मौर्य का इतिहास

जाट राजा जहान सिंह द्वारा बनवाया गया किला

दलीप सिंह अहलावत[5] के अनुसार मेवाड़ के खोबे राव मौर्य नामक व्यक्ति से एक पृथक् खोबे-मौर्य नाम पर शाखा प्रचलित हुई। चित्तौड़ राज्य का अन्त होने पर मौर्यों का एक दल खोबे राव मौर्य के नेतृत्व में वहां से चलकर हस्तिनापुर पहुंचा। वहां से गंगा नदी पार करके भारशिव (जाटवंश) शासक से विजयनगर गढ़ पर युद्ध किया। चार दिन के घोर युद्ध के बाद वहां के भारशिवों को जीत लिया। खोबे मौर्यों में से वैन मौर्य को विजयनगर का राजा बनाया गया। परन्तु बुखारे गांव के कलालों द्वारा राजा वैन तथा उसके परिवार को विषैली शराब पिलाकर धोखे से मार डाला। इस परिवार की केवल एक गर्भवती स्त्री बची जो कि अपने पिता के घर गई हुई थी। वहां पर ही उसने एक लड़के को जन्मा। इस खोबे वंश का पुरोहित पं० रामदेव भट्ट इस लड़के को लेकर अकबर के पास पहुंचा। स्वयं मुसलमान बनकर अकबर से अपने यजमान राजा वैन के एकमात्र वंशधर एकोराव राणा को विजयनगर दिलाने की अपील की। इस लड़के के जवान होने पर पं० रामदेव भट्ट और एकोराव राणा ने मुगल सेना सहित मुखारा के कलाल और विजयनगर के भरों को विदुरकुटी के समीप परास्त कर दिया। इस युद्ध में रांघड़, पठान, और एकोराव राणा के बीकानेर वासी वंशज भी साथ थे। इन सब ने इस विध्वस्त विजयनगर से पृथक् नगर विजयनगर बसाया जो कि आज बिजनौर नाम से प्रसिद्ध है। इसे ब्रिटिश सरकार ने बाद में जिला बना दिया।

विजयनगर में एकोराव राणाराजा मान के नाम से प्रसिद्ध हुये। राजा मान के कई पुत्र हुए। इस वंश में नैनसिंह राजा सुप्रसिद्ध पुरुष हुए।

खोबे मौर्य का विस्तार - इस वंश के लोग, बिजनौर नगर के मध्य भाग में, पूरनपुरतिमरपुरआदमपुर बांकपुरपमड़ावलीगन्दासपुरकबाड़ीवाला आदि गांव अच्छी सम्पन्न स्थिति में हैं। यह यहां चौधरी के नाम पर प्रसिद्धि प्राप्त है। इनका मोहल्ला भी चौधरियान ही है।

इस मौर्य वंश की सत्ता केवल नागपुर प्रदेश के मराठों में ही है। राजपूतों में इस वंश की विद्यमानता नहीं है। गूजरों में इनकी थोड़ी सत्ता है।

नोट - इस मौर्य-मौर जाटवंश के मगध तथा सिन्ध राज्य को क्रमशः पुष्यमित्र एवं चच्च नामक दो ब्राह्मणों ने अपने स्वामी राजाओं को विश्वासघात करके मार दिया और उनके राज्यों पर अधिकार कर लिया। परन्तु इसके विपरीत पण्डित रामदेव भट्ट ने अपने स्वामी मौर्य जाट राजा के राज्य को वापिस दिलाकर स्वामीभक्ति का एक आदर्श उदाहरण भी प्रस्तुत किया। इतिहास के ऐसे उदाहरण कदाचित् (बिरले) ही हैं।


जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-314

ठाकुर देशराज लिखते हैं

ठाकुर देशराज लिखते हैं कि डत्ल्यू क्रुक की ‘उत्तरी-पश्चिमी प्रान्तों और अवध की जातियां’ नामक पूस्तक में दशन्दसिंह जो कि बिजनौर का शासक था, उसके पूर्वजों के वर्णन में हम यह भी पढ़ते हैं कि मुहम्मद गौरी के चित्तौड़ जीत लेने पर राज घराने के दो व्यक्ति एक नेपाल और दूसरा बिजनौर की ओर चले गए थे। तब क्या यह अनुमान लगाना ठीक नहीं कि नेपाल में गए हुए ही ठकुरी हैं और उनके ही कुछ साथी जो कुछ कारणों से बिजनौर के पास बस गए थे, ठकुरेले हैं। उनके गोत्र का दूसरा ही नाम हो गया हो। मि. क्रुक ने महमूद गजनवी का समय बताया है। वह समय बहुत संभव है कि 1046 ई. रहा हो अथवा संवत् 1046 को ईसवी बता दिया गया हो। वह समय महमूद गजनवी के आक्रमणों का है। इस समय भी चित्तौड़ के आसपास जाटों के छोटे-छोटे राज्य थे। खोज करने से बहुत संभव है, दशन्दसिंह और उसके पूर्वजों तथा वंशजों का इतिहास मिल जाए। ऐसे ही इतिहास मिलने पर संयुक्त-प्रदेश की विशाल भूमि पर के कुल जाट-राज्यों का पता चल सकता है।[6]


ठाकुर देशराज लिखते हैं

ठाकुर देशराज लिखते हैं कि डत्ल्यू क्रुक की ‘उत्तरी-पश्चिमी प्रान्तों और अवध की जातियां’ नामक पूस्तक में दशन्दसिंह जो कि बिजनौर का शासक था, उसके पूर्वजों के वर्णन में हम यह भी पढ़ते हैं कि मुहम्मद गौरी के चित्तौड़ जीत लेने पर राज घराने के दो व्यक्ति एक नेपाल और दूसरा बिजनौर की ओर चले गए थे। तब क्या यह अनुमान लगाना ठीक नहीं कि नेपाल में गए हुए ही ठकुरी हैं और उनके ही कुछ साथी जो कुछ कारणों से बिजनौर के पास बस गए थे, ठकुरेले हैं। उनके गोत्र का दूसरा ही नाम हो गया हो। मि. क्रुक ने महमूद गजनवी का समय बताया है। वह समय बहुत संभव है कि 1046 ई. रहा हो अथवा संवत् 1046 को ईसवी बता दिया गया हो। वह समय महमूद गजनवी के आक्रमणों का है। इस समय भी चित्तौड़ के आसपास जाटों के छोटे-छोटे राज्य थे। खोज करने से बहुत संभव है, दशन्दसिंह और उसके पूर्वजों तथा वंशजों का इतिहास मिल जाए। ऐसे ही इतिहास मिलने पर संयुक्त-प्रदेश की विशाल भूमि पर के कुल जाट-राज्यों का पता चल सकता है।[6]


https://www.jatland.com/home/Bijnor से साभार

Comments

Popular posts from this blog

बिजनौर है जाहरवीर की ननसाल

नौलखा बाग' खो रहा है अपना मूलस्वरूप..

पारसनाथ का किला