मीना नकवी नीरज गोस्वामी जी का ब्लाग

 

मीना  नकवी

 

'नगीना' उत्तर प्रदेश के 'बिजनौर' के अंतर्गत आने वाला एक छोटा सा क़स्बा है। इस क़स्बे के सैयद इल्तज़ा हुसैन ज़ैदी साहब के यहाँ एक बेटे और बेटी के बाद 20 मई 1955 को तीसरी संतान जो हुई वो लड़की थी, उस का नाम रखा गया 'मुनीर ज़ोहरा' जो बाद में 'मीना नक़वी' के नाम से मशहूर हुईं। 'नगीना' में तब मुस्लिम लड़कियों के लिए पढ़ने का कोई स्कूल नहीं था लेकिन मीना जी के वालिद बेहद सुलझे हुए और तालीम के जबरदस्त हामी इंसान थे ,लिहाज़ा उन्होंने मीना जी को 'दयानन्द वैदिक कन्या अन्तर कॉलेज' में दाख़िला दिला दिया।

नीरज गोस्वामी जी के ब्लाग के अनुसार इसी कॉलेज से मीना जी ने पहली क्लास से इंटर तक की पढाई बहुत अच्छे नंबरों से पास हो कर पूरी की। शुरू से ही स्कूल में होने वाले  जलसों में मीना जी हमेशा अपनी ही लिखी कोई कहानी या कविता सुनाया करती थीं। लिखने पढ़ने का शौक़ मीना जी को बचपन से पड़ गया था। ज़ैदी साहब अदब नवाज़ थे इसलिए घर की आलमारियाँ किताबों से भरी हुई थीं। ये किताबें मीना जी को अपनी और बुलातीं और वो इनकी तरफ़ खिंची चली आतीं । सबसे ख़ास बात ये थी कि घर के अदबी माहौल का असर सब बच्चों पर पड़ा। मीना जी उनकी बड़ी आपा और उनके बाद हुई पांच छोटी बहनें और सभी भाई हमेशा अपनी पसंद की किताबों को लिए घर भर में इधर उधर बैठ कर पढ़ते रहते। 

नगीना के डा. शेख नगीनवी अपने एक लेख में मीना जी के घर के अदबी माहौल के असर को यूँ बयाँ करते हैं " विश्व साहित्य में कोई दूसरा उदाहरण नहीं मिलता जहाँ सात सगी बहनों में पांच बहनें साहित्य सर्जन कर रही हों और उन्होंने विश्व स्तर पर अपनी पहचान बनायी हो। मीना नक़वी की चार दूसरी बहनें 'शमीम ज़ेहरा' 'डाक्टर नुसरत मेहदी' 'अलीना इतरात रिज़वी' और 'नुसहत अब्बास' किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं और इन सभी पाँचों बहनों की शायरी को विश्व स्तर पर एक पहचान मिली हुई है।"

ये सभी बहनें अपनी दादी जान जो 'अंदलीब' तख़ल्लुस से शायरी करती थीं के नक़्शे क़दम पर चली हैं। 

 

बाद में बेशक समन्दर पर उठायें ऐतराज़ 

पहले दरिया ख़ुद में पैदा इतनी गहराई करें 

*

ज़रा सी सम्त बदल ली जो अपनी मर्ज़ी से 

तो नाव आ गई तूफ़ान के निशाने पर 

*

तेरे सितम से लरज़ तो गया बदन लेकिन 

ये और बात है आँखों में डर नहीं आया 

*

मेरी उड़ान इस लिए भी हो गई थी मोतबर 

क़दम तले ज़मीन थी नज़र में आसमान था 

*

शीशा-ऐ-दिल से नहीं आहो फुगाँ से निकलीं 

 किरचियाँ दर्द की निकलीं तो कहाँ से निकलीं 

आहो फुगाँ :रुदन 

*

चलो हवाओं से थोड़ी सी गुफ़्तगू कर लें 

हमें चिरागों पे इस बार एतबार है कम 

*

दरअसल वो नींदें हैं आगोश में अश्कों की 

पलकों की मुंडेरों से हर शब जो फिसलती हैं 

 *

बूढ़े माँ-बाप से बेज़ार वो घर लगता है 

उम्र लंबी हो तो ऐ ज़िन्दगी डर लगता है 

*

दरवाज़े पे नाम अपना हम लिख ही नहीं सकते 

ताउम्र रहे हैं हम गैरों के मकानों में 

*

इस नए दौर में चाहत का है मंज़र ऐसा 

जैसे सहरा में उड़े रेत बगूलों की तरह 

 

मीना जी ने इंटर करने बाद मेडिकल की डिग्री हरिद्वार से आयुर्वेद में ली। भाषा से उनका लगाव इतना ज्यादा था कि उन्होंने अंग्रेजी ,संस्कृत और हिंदी में प्राइवेटली पढाई कर एम.ए की डिग्रियाँ हासिल कीं। इन तीनों भाषाओँ में एम.ए करने वाले और फिर उसके बाद उर्दू में शायरी करने वाले लोग आपको विरले ही मिलेंगे।   

 

यूँ तो मीना जी ने अपनी शायरी का आगाज़ 'नगीना' से ही कर दिया था लेकिन उसे परवाज़ मिली जब उनकी शादी मुरादाबाद जिले के 'अगवानपुर' गाँव के निवासी जनाब हमीद आग़ा साहब से हुई। 'अगवानपुर' मुरादाबाद से महज़ 13 की.मी. की दूरी पर है। मुरादाबाद की फ़िज़ा ही शायराना है। जिगर मुरादाबादी साहब का ये शहर देश के अव्वल दर्ज़े के शायरों की खान है। मुरादाबाद की हवा और आग़ा साहब के साथ ने उन्हें लिखने का हौसला और हिम्मत दी। उनकी बेतरतीब शायरी को तरतीब वार लिखने की सलाह दी। इससे पहले वो, जब कोई ख़्याल ज़हन में आता उसे उस वक्त जो कुछ भी हाथ में होता उसे तुरंत उसी पर लिख कर छोड़ देती फिर वो चाहे हाथ में पकड़ा कोई रिसाला हो अखबार हो यहाँ तक कि मरीजों के नुस्खों की पर्चियां ही क्यों न हों। उन्होंने अपनी शायरी को अव्वल मुकाम तक पहुँचाने के लिए नामचीन शायर जनाब 'होश नोमानी रामपुरी' और जनाब 'अनवर कैफ़ी मुरादाबादी' को अपना उस्ताद तस्लीम किया। इन दो उस्तादों की रहनुमाई में मीना जी ने वो मुक़ाम हासिल किया जिसका तसव्वुर हर शायर करता है। 

 

मैंने पूछी मुहब्बत की सच्चाई जब 

नाम उसने मेरा बर्फ़ पर लिख दिया 

*

गिरने वाले को न गिरने दिया पलकें रख दीं 

अपने अश्कों को दिया खुद ही सहारा मैंने 

*

मुझको दहलीज़ के उस पार न जाने देना 

घर से निकलूंगी तो पहचान बदल जायेगी 

*

सहमे सहमे इन चिरागों की हिफ़ाज़त तो करो 

आँधियों का पैरहन ख़ुद काग़ज़ी हो जाएगा 

*

जाँ बचने की इम्कान अगर हैं तो इसी में 

लुट जाने का सामान रखें साथ सफर में  

*

क़ुरबत का असर होगा ये ही सोच के कुछ लोग 

काँटों से गुलाबों की महक माँग रहे हैं 

पहले उसने चिराग़ों को रौशन किया 

फिर हवाओं में कुछ आँधियाँ डाल दीं 

*

क्यों मैंने ख़ुद ही अपनी मसीहाई बेच दी 

बच्चे तो मेरे अपने भी बीमार थे बहुत 

*

ये क्या कि रोज़ वही एक जैसी उम्मीदें 

कभी तो आँखों में सपने नए सजाऊँ मैं 

 

उस्तादों की रहनुमाई में मीना जी ने अपने अलग अंदाज़लब-ओ-लहज़ा और ज़ुबान से शायरी की दुनिया में पहचान बनाई। उन्होंने तल्ख़तर विषयों को रेशमी लफ़्ज़ों में पिरोने का फ़न सीखा और सीखा कि कैसे कड़वाहट को लफ़्ज़ों की शकर में लपेट कर पेश करते हैं। मीना नक़वी जी के लिए शायरी पेशा नहीं बल्कि शौक़ था और इस शौक़ को वो पूरी ज़िम्मेदारी, फ़िक्र, अहसासात, तजुर्बात से रंगीन बना रही थीं। नर्सिंग होम की ज़िम्मेवारी के साथ साथ घर गृहस्ती और दो बच्चों की परवरिश का जिम्मा उठाते हुए उन्होंने अपने लिखने के इस शौक़ को कभी कमज़ोर नहीं पड़ने दिया। 

उनकी लगभग एक दर्ज़न किताबें मंज़र-ए-आम पर आ चुकी हैं इनमें से तीन 'दर्द पतझड़ का ' 'किर्चियाँ दर्द की' और 'धूप-छाँवदेवनागरी लिपि में उपलब्ध हैं। सिर्फ़ उर्दू में प्रकाशित  'सायबान', 'बादबान','जागती आँखें,'मंज़िल' और 'आइनाबहुत चर्चित हुई हैं। मीना जी की ग़ज़लें देश की सभी प्रसिद्ध उर्दू और हिंदी की पत्रिकाओं में छप चुकी हैं यही कारण है कि वो उर्दू और हिंदी पाठकों में समान रूप से लोकप्रिय हैं।

मीना जी को ढेरों अवार्ड्स मिले हैं जिनमें दिल्ली , बिहार उर्दू अकेडमी द्वारा दिया गया साहित्य सेवा सम्मान, बिहार कैफ़ मेमोरियल सोसाइटी द्वारा दिया गया बेहतरीन शायरा एवार्ड, सरस्वती सम्मान , सुर साधना मंच हरियाणा सम्मान उर्दू अकेडमी बिहार द्वारा रम्ज़ अज़ीमाबादी अवार्ड प्रमुख हैं। सबसे बड़ा सम्मान तो वो प्यार है जो मीना जी के पाठकों ने उन्हें दिया है। वो आज हमारे बीच भले ही नहीं हैं लेकिन वो अपने पाठकों के दिलों में हमेशा रहेंगी। 15 नवंबर 2020 को नोयडा में उनका निधन हो गयाज्ञ1

अपनी मृत्यु से सिर्फ दो दिन पहले उन्होंने अपनी ये गजल  फेसबुक पर पोस्ट की ।

मकान ए इश्क़ की पुख़्ता असास हैं हम भी  

यक़ीन मानिये ! दुनिया शनास हैं हम भी 

 

ये और बात कि गुल की रिदा हैं ओढ़े हुए 

ख़िज़ाँ की रुत के मगर आसपास हैं हम भी 

 

फ़क़त तुम्हीं में नहीं है ख़ुलूस का ख़ेमा 

मोहब्बतों के क़बीले को रास हैं हम भी 

 

परेशां तन्हा नहीं है वो लम्हा ए फुरक़त

ग़ज़ब का सानेहा था बदहवास हैं हम भी 

 

अभी तो सब को मयस्सर हैं सबके साथ हैं हम  

कि कुछ दिनों में तो बाद अज़ क़यास हैं हम भी 

अज़ : सेक़यास : अंदाज़ा 

 

जो दिल के सफ्हे पे लिखा था तूने चाहत से 

उसी फ़साने का इक इक्तेबास हैं हम भी 

इक्तिबास: उद्धरण   

 


 

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