बिजनौर का गुमनाम शायर जितेंद्र मोहन सिन्हा रहबर

1 12 वीं जयंती पर बिजनौर का गुमनाम शायर जितेंद्र मोहन सिन्हा रहबर डा० शेख़ नगीनवी साहित्य के क्षेत्र में जिला बिजनौर की जड़े बहुत मज़बूत हैं, यहाँ के रहने वालों ने साहित्य की बड़ी सेवा की है ।विशेषकर उर्दू के लिए अनेक प्रतिभाओं को बिजनौर ने जन्म दिया है ।उसमें एक प्रतिभा का नाम जितेंद्र मोहन सिन्हा “रहबर” है।जिन्होने उर्दू शायरी की , बड़ी बात यह कि मेयारी शायरी की और उर्दू साहित्य को एक महत्वपूर्ण काव्य संग्रह दिया। जितेंद्र मोहन सिन्हा का जन्म 112 वर्ष पूर्व 24 सितंबर 1911 को जियालाल जी के यहां बिजनौर में हुआ । बिजनौर से हाइस्कूल और डी ए वी कालिज देहरादून से इंटरमीडिएट की परीक्षा उत्तीर्ण की । इलाहाबाद विश्वविद्यालय से बी ए और बाद में एल एल बी किया। इलाहाबाद में रहते हुए वहाँ के बुद्धीजीवियों के साथ साथ पंडित जवाहर लाल नेहरू एवं स्वतंत्रता संग्राम में लगे अन्य नेताओं की विचारधारा से प्रभावित हुए । जीवन पर्यन्त गांधी जी के दर्शन के अनुरूप अपने को ढालने का प्रयास किया ।एम ए की पढ़ाई अधूरी छोड़ कर बिजनौर वापस आए और यहाँ 1930 में सविनय अवज्ञा आन्दोलन के पहले जत्थे का नेतृत्व करते हुए जेल गए । इलाहाबाद से एल टी करने के बाद कुछ वर्ष पीलीभीत और कानपुर में अध्यापन किया । सन् 1948 से लखनऊ के नेशनल कॉलेज में अध्यापन आरंभ किया और वहीं से उन्नीस सौ तिहत्तर में अवकाश ग्रहण किया । अपने जीवन काल में उन्होंने अच्छे खासे साहित्य का सर्जन किया जिसमें उर्दू , हिंदी व अंग्रेज़ी में लिखी कविताएं एवं लेख शामिल है ।सामाजिक एवं राजनीतिक समस्याओं और नैतिक मूल्यों के पराभव पर उन्होंने कई लेख लिखे । जितेंद्र मोहन “रहबर”की साहित्यिक यात्रा उनके अनुसार नादानी से रहबरी तक लम्बा सफर रहा। ग़ज़लों एवं कविताओं कोउन्होंने स्वांत: सुखाय लिखा । इन की पृष्ठभूमि उनके जीवन के कटु एंव मधुर अनुभवों एवं गहरी अनुभूतियों से ही बनी तथा अभिव्यक्ति अनवरत अध्ययन और चिंतन मनन से संवरी। रहबर को ग़ज़लें विशेष प्रिय थी, क्योंकि उनमें जीवन के विविध रंग एवं गहन अनुभूतियॉ समाविष्ट है । रहबर की इच्छा थी कि उनकी उर्दू शायरी का संग्रह छपे जो उनके देहांत के पश्चात उनके पुत्रों शैलेन्द्र प्रताप सिन्हा व भूपेंद्र प्रताप सिन्हा ने 1995 में “प्यामे रहबर” के नाम से प्रकाशित किया । इस संग्रह में 132 उर्दू ग़ज़लें व नज़्में, आठ हिंदी कविताएँ शामिल हैं।संग्रह में शामिल उनकी कुछ ग़ज़ले कानपुर से प्रकाशित साप्ताहिक सदाक़त व नया दौर लखनऊ में छपी । उनका प्रथम उर्दू पध था- डर रहे थे जिससे वह मुशकिल समां आ ही गया क़ातिले जॉ दुश्मनें अम्नों अमां आ ही गया जुस्तजू ए रब में जब हिम्मत से आगे बढ़े कुछ ही दिनों बाद पहला आसमाँ आ ही गया काट एे दिल अब तो इस तकलीफ को सब्र से खौफ़ है बेसूद सर पर इम्तेहां आ ही गया रहबर ने कर्मप्रधान दर्शन औचित्य, सद्भाव और सामाजिक न्याय की पुष्टि करते हुए कहा- जो बात हक़ की है वाजिब है और है दरकार उसी को कीजिए यह रह दिखा रहा हूँ मैं अपना कर्तव्य करने के साथ साथ ईश्वर के विन्यास में पूर्ण विश्वास एवं समान भाव मन की शांति लाता है रहबर ने लिखा - हम तो है मद्दाह उसके हम को सब मंज़ूर है जो किया उसने किया, जो कुछ हुआ अच्छा हुआ ये इन्सां खौफ़ क्यों खाते हैं आख़िर मौत से अपनी मुबारक है फना होना जो अंजामे फ़ना तुम हो रहबर कुछ दिन बेरोज़गार रहे और इसी बेरोज़गारी पर उन्होंने लिखा- आज क़िस्मत से घटा छाई है वीराने में बिजलियां कौंध रही हैं मेरे काश़ाने में कुछ न कुछ सब को मिला है तेरे मेयखाने में आबो अंगूर भरा है खुमो पैमाने में एक रहबर ही लबे ख़ुश्क लिए सोता है मुझ पे क्यों जब्र ये ऐ पीरे मुग़ॉ होता है भाषाओं के बारे में रहबर का कहना था कि प्रत्येक भाषा की पाकीज़गी बनाए रखना साहित्य सृष्टा का कर्तव्य है। ये बात अलग है कि अन्य भाषाओं के कुछ शब्द किसी भाषा में प्रचलित भी हो गये हों , किंतु जान बूझकर भाषाओं का मिश्रण करना सर्वथा अनुचित है कि्लष्ट भाषा विचार विनिमय अथवा वार्तालाप का माध्यम नहीं हो सकती । अत: उन्होंने कहा - पाकीज़गी तो जान है इल्मे ज़बां की मक़बूल हैं ज़बानें हमैं सारे जहाँ की हीरे जवाहरात भरी पेटियाँ हैं सब माता सरस्वती की बेटियां हैं सब 12 अगस्त 1993 को कुछ सप्ताह की अस्वस्थता के बाद 82 वर्ष की आयु में लखनऊ में उनका देवहासन हो गया । अंतिम कुछ वर्षों में उन्होंने जीव एवं परमात्मा की अद्वैत को बहुत गहराई से अनुभव किया , वास्तव में उनकी शायरी का एक बड़ा भाग एक समग्र जीवन दर्शन का परिचायक है , जो नितांत व्यवहारिक है और इसीलिए हमारे लिए और भी उपयोगी हैं ।ईश्वर की सर्वव्यापक्ता पर रहबर ने कहा - सारे आलम में हरेक शख्स मेंहर रिश्ते में सभी शक्लों में वह खिलता है नया होता है ज़हूरा है तमाम आलम फ़क़त उस ज़ाते वाहिद का सिवा उसके नज़र आता नहीं कुछ दूसरा हमको इबादत भी है यह परस्तिश भी है यह जो ख़ुद को संभाला तो पूजा ख़ुदा को (लेखक दबिस्ताने बिजनौर के संकलनकर्ता हैं)

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