क्रातिकारियों का पहला स्मारक बिजनौर जेल पर बना
बिजनौर जनपद में पहली बार आजादी के दीवानों का जिला स्तर पर स्मारक बना। ये स्मारक जिला जेल के के बाहर उसके प्रांगण में बना है। इस स्मारक को स्मृतिका नाम दिया गया। स्मारक पर लगे पत्थरों पर आजादी के आंदोलन में भाग लेने वाले 419 स्वतंत्रता सैनानियों के नाम और नाम के आगे जेल जाने का वर्ष अंकित है। 1857 के आजादी के आंदोलन में बिजनौर जेल को गेट खोलकर कैदियों को रिहा कराने की घटना का पत्थर भी इस स्मृतिका पर लगा है। पत्थर पर 21 मई 1857 की वह घटना भी दर्ज हैं , जिसमें जेल के चौकीदार रामस्वरूप ने जेल का दरवाजा खोलकर कैदियों को रिहा कर दिया था।
स्मृतिका के मध्य में काकोरी कांड के एक मुख्य पात्र शचींद्रनाथ बक्शी की प्रतिमा लगी है। शचीन्द्रनाथ बख्शी का जन्म 27 दिसम्बर सन 1900 को वाराणसी के एक सम्पन्न बंगाली परिवार में हुआ । राष्ट्रीय आंदोलन का इन पर इतना प्रभाव पड़ा कि सन 1921 में इंटर की परीक्षा देकर ही वे क्रान्तिकारी आन्दोलन में कूद गये.। इन्होंने बनारस छोड़कर लखनऊ को अपनी गतिविधियों का केन्द्र बना लिया। नौ अगस्त सन 1925 को लखनऊ के पास काकोरी में रेल रोककर ब्रिटिश खजाना लूटा गया। इस अभियान के समय बख्शी, अशफाक और राजेन्द्र लाहिड़ी द्वितीय श्रेणी के डिब्बे में बैठे थे। अशफाक और लाहिड़ी के जिम्मे रेल रोकने तथा बख्शी पर काम पूरा होने तक गार्ड को अपने कब्जे में रखने की जिम्मेदारी थी। सबने अपना काम ठीक से किया। इस अभियान में क्रांतिवीरों को भरपूर धन मिला।अगले ही दिन से लखनऊ और आसपास के जंगलों में सघन छानबीन शुरू हो गयी। सूत्रों को जोड़ते हुए पुलिस ने चन्द्रशेखर आजाद, अशफाक उल्ला खाँ और बख्शी जी को छोड़कर शेष सबको पकड़ लिया। इन सब पर काकोरी षड्यन्त्र का ऐतिहासिक मुकदमा चलाया गया।ये तीनों क्रान्तिकारी फरार हो गए। पुलिस इसके बाद भी इन्हें तलाश करती रही। इसमें से आजाद कभी पुलिस के हाथ नहीं आए और 27 फरवरी सन 1931 को प्रयाग के अल्फ्रेड पार्क में पुलिस के साथ संघर्ष करते हुए बलिदान हो गए। अशफाक दिल्ली एवं बख्शी सन 1927 में भागलपुर में बन्दी बना लिये गए। इन पर भी काकोरी कांड का दूसरा मुकदमा चला। इसमें अशफाक को फाँसी तथा बख्शी को आजीवन कारावास की सजा मिली। सुल्तानपुर में रहते हुए 23 नवम्बर सन 1984 ई. को शचींद्रनाथ बक्शी निधन हुआ।
शचींद्रनाथ बक्शी को गिरफ्तारी के दौरान लखनऊ,फतहगढ़ और बिजनौर जेल में रखा गया। शचींद्रनाथ बक्शी 14 दिसंबर 1938 को पहली बार बिजनौर जेल आए। यहां 12 दिन रखने के बाद फिर लखनऊ जेल भेज दिये गए।फिर 31 दिसंबर 1938 को इन्हें बिजनौर जेल भेजा गया।वे यहां आठ मई 1928 तक बंद रहे।
क्रांतिकारियों के प्रति श्रद्धा होने के कारण इस स्मारक को बनवाने वालीं बिजनौर जिला कारागार की अधीक्षक अदीति श्रीवास्तवएक स्वतंत्रता सैनानी परिवार से हैं। बिजनौर से सटे कोटद्वार में जन्मी अदिती के पिता डा. केके श्रीवास्तव राजकीय आरजी काँलेज के सेवानिवृत प्रधानाचार्य हैं।मां प्रतिभा श्रीवास्तव पौडी गढ़वाल जनपद की पहली वकील रही। अदिती श्रीवास्तव की इंटर तक की शिक्षा कोटद्वार में ही हुई।सीमा डेंटल कालेज ऋषिकेश से दंत चिकित्सा में स्नातक किया ।
इनके नाना स्वर्गीय बासुदेव सिंह एक क्रांतिकारी थे । उनका जन्म उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के ग्राम देवरार में हुआ अंग्रेजी हुकमत के विरूद्ध उन्होंने अपनी क्रांति का आगाज बलिया से ही प्रारम्भ किया था। फिर देश में अलग− अलग जगह अंग्रेज शासकों को ललकारा। भारत वर्ष की स्वाधीनता और अंग्रेजी हुकुमत के विरुद्ध अपने संग्राम के दौरान बासुदेव सिंह जी ने कारावास की यातनाएँ भी सहीं । 1941 में भारत रक्षा कानून' अधिनियम में बलिया जिला कारागार' में निरुद्ध रहे । उनको एक वर्ष का कठोर कारावास और 100/- का अर्थदण्ड मिला था। अर्थदण्ड जमा न कर पाने के एवज में तीन महीने के अतिरिक्त कारावास से दण्डित किये गये । वे जिला कारागार बलिया में 20/04/1941 से 27/01/1941 तक निरुद्ध रहे । उन्होंने अंग्रेजी हुकुमत के समय भारत की कारागार में हो रही यातनाओं को देखा और सहा।
बिजनौर की जेल अधीक्षक अदिती श्रीवास्तव बताती हैं कि
उनके नाना वासुदेव सिंह जी स्वयं स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी थे। इसलिए मुझे बचपन में स्वाधीनता आंदोलन की कहानियाँ भी उन्होंने सुनाई। अंग्रेजी हुकुमत के विरुद्ध अपने संग्राम के किस्से सुनाए। वे कहती हैं कि इन कहानियों ने मेरे जीवन में एक गहरी छाप छोड़ी ।अदिति श्री वास्तव के नानाजी द्वारा उन्हे सुनाई गई कहानियों के कुछ अंश :−
नाना जब कक्षा नौ में थे, तभी अपनी पढ़ाई छोड़ कर स्वतन्त्रता की लड़ाई में कूद पड़े । अंग्रेजों के मन में उनका इतना खौफ था कि अंग्रेज सरकार ने उन्हें देखते ही गोली मारने का आदेश दिया हुआ था। पुलिस उनको खोजती जब बलिया स्थित उनके घर पर आई तो वह नही मिले। इससे नाराज हो अंग्रेज सैनिकों ने उनके माता-पिता और घर के अन्य सदस्यों पर बहुत जुल्म किए। सीधे ऐलान किया गया था कि उस जगह का कोई भी व्यक्ति इस प्रकार की किसी भी प्रकार की मदद नहीं करेगा। अंग्रेजी सैनिकों ने नानाजी के घर में रखे अनाज और और अन्य वस्तुओं को भी नष्ट कर दिया था। नाना जी बताते थे कि परिवार वालों ने कूड़े के पास लगे कद्दू और उसकी बेल को खाकर एक सप्ताह बिताया था। नाना बासुदेव सिंह की शादी उनके पिता जी ने जल्दी करा दी ।इसके बावजूद उन्होंने अपने ग्रहस्थ जीवन को भी भारत की आजादी होने तक के लिए त्याग दिया । वे बताती है कि इसलिए मेरी मानी को अधिकांश समय अपने मायके में ही बिताना पड़ा । क्योंकि नाना जी को भय था कि कहीं उनकी वजह से नानी को प्रताड़ना न सहनी पड़ी। नाना जी को देखते ही गोली मारने का आदेश या ,इसलिए जगह बदल−बदल रहते।इसी दौरान वे कलकत्ता के एक होटल में बावर्ची भी बने। वे बताते थे कि अंग्रेजों को उनके एक साथी की मदद से होटल में होने की खबर लग गई थी । इसलिए नाना की वहाँ से अपना सारा सामान छोड़कर नंगे पाँव भागना पड़ा। जब अंग्रेज नाना जी को ढूंढते होटल पंहुचे तो उनको नाना जी तो नहीं मिले पर उनके जूते मिले थे। इस घटना के बाद कलकत्ता की एक बंगाली विधवा ने उनकी मदद की थी। सुश्री अदिति श्रीवास्तव बताती हैं कि जब नाना जी बालिया जेल में निरुद्ध थे तब एक ऐंग्लो इंडियन महिला को अंग्रेजों ने उसी जेल में निरुद्ध किया हुआथा ।वे उसे बहुत प्रवाहित करते थे।वह उससे जानना चाहते थे कि आन्दोलनकारियों की गोपनीय गोष्टी कहां और कब होती हैं। न बताने पर उस महिला को अंग्रेज पुलिस ने निर्ममता पूर्वक पीटा था।इस कदर पीटा की वह पूरी तरह लहुलुहान हो गई थी।इस प्रताड़ना के दौर में एक समय ऐसा आया था कि उस महिला ने अंग्रेजों से पीने के लिए एक गिलास पानी मांगा। कहा कि पानी पीने के बाद वह सब कुछ बता देंगी।उन दिनों पीतल का गिलास में पानी देने का प्रचलन था। अतः पीतल के गिलास में पानी आया तो महिला ने गिलास के किनारे से अपनी जीभ काट दी ताकि वह उत्पीड़न से डर कर कुछ बता न दें।
नानाजी देश की आजादी के एक साल बाद जेल से रिहा हुए।सन् 1972 में उनको तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने तामपत्र से नवाजा। नाना बासुदेव सिंह के चार पुत्र और एक पुत्री थी। मैं अदिति इस वीर की पुत्री श्रीमती प्रतिभा श्रीवास्तव की पुत्री हूँ ।वे कहतीं हैं कि नाना जी से प्राप्त प्रेरणा से आजादी के अमृतकाल में स्वतंत्रता सैनानियों की याद में उन्होंने बिजनौर जिला जेल के प्रांगण में स्मृतिका बनवाई।इसका अनावरण महानिदेशक /महानिरीक्षक कारागार प्रशासन एंव सुधार एसएन साबत के करकमलों से 11 अगस्त 2023 को कराया।
वे कहती हैं कि यह कार्य सरल नही था।इसके लिए उन्होंने स्टाफ लगाकर जेल का 1925 से रिकार्ड दिखवाया । रिकार्ड उर्दू और फरसी में है।इसका अनुवाद कराया।1925 से 1947 तक 419 लोग भारत रक्षा कानून में तहत बिजनौर जेल आए।इनके नाम स्मृतिका के चारों ओर लगे पत्थरों पर खुदवाए गए।
स्मारक जेल क्षेत्र में बना। यह प्रतिबंधित एरिया है। अच्छा होता कि यह स्मारक किसी सार्वजनिक जगह पर बनाया जाता।प्रशासन इसके लिए जमीन उपलब्ध कराने में रूचि लेता।
अशोक मधुप
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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