डिप्टी नज़ीर अहमद डा० शेख़ नगीनवी
पुण्य तिथि पर विशेष 3 मई
डिप्टी नज़ीर अहमद बिजनौर के सुपुत्र
जिला बिजनौर की धरती और उसमें जन्मे उसके सुपुत्रों का साहित्य सर्जन में विश्व स्तर पर अमूल्य योगदान है।इन्हीं में एक बड़ा नाम डिप्टी नज़ीर अहमद का भी है जो उन्नीसवीं सदी के एक भारतीय उर्दू लेखक विद्वान और सामाजिक व धार्मिक सुधारक थे।उन्हें उर्दू में पहला उपन्यासकार होने का गौरव प्राप्त है ।
डिप्टी नज़ीर अहमद का जन्म 6 दिसंबर 1831 में जिला बिजनौर के गाँव रेहड़ में हुआ। वे एक मौलवियों के परिवार से थे और उनके पिता मौलवी सआदत अली बिजनौर में अरबी तथा फ़ारसी पढ़ाया करते थे। पिता से शिक्षा लेने के बाद 1842 में उनके पिता उन्हें दिल्ली के औरंगाबादी मस्जिद में कार्यरत अब्दुल ख़ालिक़ नामक मौलवी के पास पढ़ाने के लिए ले गये । 1847 में डिप्टी अहमद ने दिल्ली कॉलेज में दाख़िला लिया और वहाँ 1854 तक पढ़े। उन्होंने उर्दू को अपना अध्ययन-विषय चुना और बाद में अपने चुनाव का कारण समझाते हुए उन्होंने कहा कि 'मेरे पिता को मेरा भिखारी बनकर मर जाना मंज़ूर था लेकिन मेरा अंग्रेज़ी पढ़ना नहीं'।
कॉलेज से उत्तीर्ण होने के बाद उन्होंने अरबी भाषा पढ़ाना शुरू किया। 1854 में उन्होंने ब्रिटिश-संचालित भारत सरकार में नौकरी ले ली और 1856 में कानपुर के जन-शिक्षा विभाग में स्कूलों के डिप्टी-इन्स्पेक्टर आफ स्कूल बन गए। 1857 के अंत में उन्हें इलाहबाद में भी इसी डिप्टी-इन्स्पेक्टर का पद मिला। उन्होंने भारतीय दण्ड संहिता का उर्दू में इतना बढ़िया अनुवाद किया कि उन्हें कर विभाग में डिप्टी कलेक्टर की हैसियत पर ले लिया गया। वे उस समय 'पश्चिमोत्तर प्रान्त' के नाम से कहे जाने वाले राज्य में तैनात हुए, जिसे बाद में 'उत्तर प्रदेश' का नाम दिया गया। यहीं से उनका नाम 'डिप्टी नज़ीर अहमद' पड़ गया।
1877 में उन्होंने हैदराबाद के निजाम की सरकार में एक प्रशासनिक पद ले लिया जहाँ वे 1884 तक रहे। 1884 में निजाम के दरबारियों की आपसी राजनीति में वह फँस गए और उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा। वे दिल्ली वापस आ गए ।
मौलवी अहमद हसन , डिप्टी नज़ीर अहमद के ख़्वेश थे। एक दिन मौलवी नज़ीर अहमद के हाँ बैठे हुए थे।मौलवी अहमद हसन ने देखा कि डिप्टी साहब की कोहनियाँ बहुत मैली हो रही हैं और उन पर मैल की एक तह चढ़ी हुई है। मौलवी साहब से न रहा गया, बोले, “अगर आप इजाज़त दें तो झाँवे से आपकी कोहनियाँ ज़रा साफ़ कर दूँ।” डिप्टी साहब ने अपनी कोहनियों की तरफ़ देखा और हंसकर कहने लगे, “मियां अहमद हसन ये मैल नहीं है। मैं जब बिजनौर से आकर पंजाबी कटरे की मस्जिद में तालिब इल्म बना था तो रात रातभर मस्जिद के फ़र्श पर कोहनियाँ टिकाए पढ़ा करता था। पहले इन कोहनियों में ज़ख़्म पड़े और फिर गट्टे पड़ गए। लो देख लो, अगर तुम इन्हें साफ़ कर सकते हो तो साफ़ कर दो।” इसके बाद अपना वो ज़माना याद करके आबदीदा हो गए और मौलवी अहमद हसन भी रोने लगे।
टॉमसन साहब (जो ग़ालिबन शुमाल मग़रिबी सूबे के लेफ़्टिनेंट गवर्नर थे) मौलवी नज़ीर अहमद के बड़े क़द्रदाँ दोस्त थे। उनकी आमद की इत्तिला पा कर मौलवी साहब उनसे मिलने गए। चपरासी ने एक मुल्ला शक्ल के काले आदमी को देखा तो कोठी के दरवाज़े ही पर रोक लिया। मौलवी साहब ने लाख चाहा कि किसी तरह तआरुफ़ी कार्ड साहब तक पहुंचा दे मगर वो टस से मस न हुआ। उसे ये भी बताया कि मेरे पुराने मिलने वाले हैं मगर वो भला उन्हें क्यों गर्दानता? आख़िर हार कर मौलवी साहब ने दो रुपये बटुवे में से निकाल कर उसके हाथ पर रखे और कहा, “भाई अब तो लिल्लाह पहुंचा दे।” यही तो वो चाहता था। झट कार्ड लेकर अन्दर चला गया और फ़ौरन ही मौलवी साहब की तलबी हो गई। मौलवी साहब कमरे में दाख़िल हुए तो टॉमसन साहब सर-ओ-क़द खड़े हो गए और बोले, “मौलवी साहब मिज़ाज शरीफ़!” ये कह कर उन्होंने हाथ मिलाने के लिए अपना हाथ बढ़ा दिया। मौलवी साहब ने कहा, “मिज़ाज मेरा इस वक़्त ठीक नहीं है और मैं आपसे हाथ भी नहीं मिला सकता।” टॉमसन ने हैरान हो कर पूछा, “क्या हुआ मौलवी साहब आपको?” बोले, “आपका चपरासी दो रुपये मुझसे लेने के बाद आप तक मुझे लाया है।” साहब तो ये सुनते ही आग बगूला हो गए। उस चपरासी को आवाज़ देकर बुलाया और पूछा, “तुमने मौलवी साहब से दो रुपये लिए?” रुपये उसकी जेब में मौजूद थे इनकार कैसे करता? कहने लगा, “जी हाँ!” साहब ने ख़फ़गी से कहा, “तुम बर्ख़ास्त।” और मौलवी साहब से बोले, “लाइए अब हाथ मिलाइए।” मौलवी साहब ने हाथ नहीं बढ़ाया और कहा, “मगर वो मेरे दो रुपये तो मुझे वापस नहीं मिले।” साहब ने फिर उस चपरासी को आवाज़ दी और उससे मौलवी साहब के दो रुपये वापस दिलवाए। बोले, “अब हाथ मिलाइए।” मौलवी साहब ने अब भी हाथ नहीं बढ़ाया। साहब ने मुतअज्जिब हो कर पूछा, “अब क्या बात है?” मौलवी साहब ने कहा, “मेरे दो रुपये मुझे मिल गए उसका क़ुसूर माफ़ कीजिए और उसे बहाल कर दीजिए।” साहब चीं बजीं हुए मगर मौलवी साहब की बात भी नहीं टाल सकते थे। आख़िर बोले, “जाओ मौलवी साहब के कहने से हमने तुम्हें बहाल किया।” ये कह कर फिर हाथ बढ़ाया और अब के मौलवी साहब ने भी हाथ बढ़ा दिया।
नज़ीर अहमद साहब अलीगढ़ के लिए चंदा उगाने के सिलसिले में बहुत कारआमद आदमी थे। इसलिए जहाँ तक मुम्किन होता सर सय्यद उन्हें अपने दौरों में साथ रखते और उनसे तक़रीरें कराते। नज़ीर अहमद की क़ुव्वत-ए-तक़रीर के मुताल्लिक़ कहा जाता था कि इंग्लिस्तान का मशहूर मुक़र्रर बर्क भी उनसे ज़्यादा मुअस्सिर तक़रीर नहीं कर सकता था।डिप्टी नज़ीर अहमद ख़ुद सर सय्यद के आन्दोलन से न सिर्फ़ प्रभावित थे बल्कि सर सय्यद के मिशन के प्रचार व प्रसार के लिए हमेशा सक्रिय रहते थे.वह सर सय्यद के समस्त विचारधाराओं और परिकल्पनाओं के प्रशंसक थे और मुस्लिम एजुकेशनल कान्फ्रेंस के प्लेटफ़ॉर्म से महत्वपूर्ण राष्ट्रीय सेवाएँ भी सम्पन्न की हैं ।
डिप्टी नज़ीर अहमद की मुख्य कृतियाँ
मिरात उल-उरूस (अर्थ: 'दुल्हन का आइना') - 1868 से 1869 तक लिखी गई यह कहानी उर्दू भाषा का पहला उपन्यास समझी जाती है और यह स्त्री शिक्षा व चरित्र के विषयों पर आधारित थी। छपने के बीस साल के अन्दर-अन्दर इसकी एक लाख प्रतियाँ बिकी और इसका अनुवाद बंगाली, ब्रजभाषा, कश्मीरी, पंजाबी और गुजराती में किया गया।’मिरातुल ऊरूस’ के पात्र अकबरी और असगरी आज भी बहुत महत्वपूर्ण हैं.यह नॉवेल जब प्रकाशित हुआ था तो हुकूमत ने एक हज़ार रुपये के ईनाम से नवाज़ा था। 1929 में जी. ई. वार्ड ने इसका अंग्रेज़ी में अनुवाद किया। इस उपन्यास का भारत में स्त्री-शिक्षा पर जनमत और सरकारी नीति पर भी असर पड़ा।
बिनत उल-नाश (अर्थ: 'अर्थी की बेटियाँ', जो अरबी में सप्तर्षि तारामंडल का नाम है) - यह 'मिरत-उल-उरूस' में शुरू की गई कहानी को आगे बढ़ाती है।
तौबत उल-नसूह (अर्थ: 'हार्दिक पश्चाताप 1876-77 में लिखी गई।1884 में ‘तौबतुन नसूह’ का तर्जुमा सर विलियम म्योर की भूमिका के साथ प्रकाशित हुआ।
फ़साना-ए-मुब्तला (अर्थ: 'उलझा फ़साना') 1885 में प्रकाशित यह उपन्यास भी युवाओं के नैतिक विकास पर केन्द्रित था।
इब्न-उल वक़्त (अर्थ: 'वक़्त का पुत्र') - 1888 में छपे इस उपन्यास के बारे में कहा जाता है कि यह सर सय्यद अहमद ख़ान पर आधारित है, हालाँकि डिप्टी अहमद इस बात से इनकार करते थे।
क़िस्से-कहानियाँ - बच्चों की किताब।
ज़ालिम भेड़िया - बच्चों की किताब।अय्यामी’ और ‘रूयाए सादिका’ हैं। डिप्टी नज़ीर अहमद ने उपन्यासों के अलावा जो अहम विद्वत्तापूर्ण काम किये हैं उनमें क़ुरान का अनुवाद ,क़ानुने इन्कम टैक्स,क़ानुने शहादत बहुत महत्वपूर्ण हैं।उन्होंने महिलाओं के लिए साहित्य कि रचना की ,नारीवाद का आज्ञा पत्र सम्पादित कियाऔर इंडियन पेनल कोड का अनुवाद “ताज़ीराते हिन्द” के नाम से किया जो बहुत लोकप्रिय हुआ।डिप्टी नज़ीर अहमद की सेवाएँ बहुत विस्तृत हैं।उनकी साहित्यिक और पश्चिमी सेवाओं को स्वीकारते हुए सरकार ने उन्हें “शम्सुल उलमा “ का ख़िताब दिया था।फ़ालिज का हमला होने के बाद 3 मई 1912 को देहली में दिल के दौरे से डिप्टी नज़ीर का देहांत हो गया।
डा० शेख़ नगीनवी
जजदबिस्तान ए बिजनौर के संकलनकर्ता है)
डिप्टी नजीर अहमद
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