जनपद बिजनौर के प्रमुख साहित्यकार
जनपद
बिजनौर के प्रमुख साहित्यकार
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प्रो.
शशिप्रभा रघुवंशी
जनपद बिजनौर के कण-कण में सांस्कृतिक, पौराणिक, ऐतिहासिक, धार्मिक, साहित्यिक, राजनीतिक स्मृतियों के ध्वस्त अवशेष
छिपे हुये हैं। यह उपेक्षित तीर्थस्थली उस समय की बाट जोह रही है, जब उसके अंक में छिपी महान विभूतियों
के महान कार्यों का अंवेषण किया जायेगा। यह आलेख उसी उपेक्षा को कम करने का एक
छोटा सा प्रयास है और धन्यवाद भी है उन महान साहित्यकारों के प्रति जिन्होंने जनपद
बिजनौर की पावन धरा पर जन्म लिया या फिर अपनी कर्मस्थली जनपद बिजनौर को
बनाया। जनपद बिजनौर में यदि एक ओर पतित
पावनी गंगा अपना कल-कल निनाद करती है तो दूसरी और बहती रामगंगा। जिस जनपद में गंगा
और रामगंगा सहित अनेक नदियां हो तो वहां की भूमि तो अपने आप ही उर्वरा हो जायेगी।
क्षेत्र चाहे कृषि हो या वाणिज्य, साहित्यिक
हो या सांस्कृतिक। यहां की पावन धरा ने उन सभी को ऊंचाइयां प्रदान की हैं। जब हम साहित्य की बात कहते हैं तो जनपद बिजनौर
के साहित्यकारों को देखकर ऐसा लगता है मानों यह जनपद साहित्य का केन्द्र है।
हिन्दी के साथ उर्दू में साहित्य लेखन इस जनपद की विशेषता रही है। ज्ञानपीट पुरस्कार
से सम्मानित कुर्रतुल एन हैदर, सम्पादकाचार्य
पंडित रूद्रदत्त शर्मा, आचार्य पदमसिंह शर्मा, गज़ल सम्राट दुष्यंत कुमार, व्यंग्यकार रवीन्द्रनाथ त्यागी, पत्रकार एवं लेखक हरिदत्त शर्मा, कथाकार एवं पत्रकार डा. महावीर अधिकारी, गज़लकार लेखक और समीक्षक निश्तर खानकाही, पत्रकार एवं लेखक बाबूसिंह चौहान, बाल साहित्यकार डा. अजय जनमेजय, गीतकार राजगोपाल सिंह, डा. गिरिराजशरण अग्रवाल, हरिपाल त्यागी, प्रोफेसर देवराज, राजन चौधरी, प्रोफेसर डा. मीना अग्रवाल, संदीपनाथ, प्रोफेसर अरूण देव, प्रोफेसर अमित सिंह आदि, इनके अतिरिक्त भी अनेक साहित्यकार हैं।
सभी का उल्लेख करना यहां सर्वथा संभव नहीं है।
कुर्रतुल
ऐन हैदल- कुर्रतुल ऐन हैदर न केवल उर्दू साहित्य की नहीं, बल्कि संपूर्ण भारतीय साहित्यधारा में
महत्व रखती है। कुर्रतुल ऐन हैदर का जन्म अलीगढ़, उत्तर प्रदेश में 20
जनवरी 1926 को हुआ था। जनपद बिजनौर के नगर नहटौर
से आपका गहरा नाता है। दिल्ली विश्वविद्यालय से आपने शिक्षा प्राप्त की। सूरदास का
पद ‘उधो मोहि ब्रज बिसरत नाही‘ कुर्रतुल ऐन हैदर पर बिल्कुल फिट बैठता
है। ऐनी आपा के नाम से मशहूर कुर्रतुल ऐन हैदर पूरी दूनिया घूमी, लंदन में रही। बटवारे के पश्चात
पाकिस्तान चली गयी, पर वहां भी उनका मन हिन्दुस्तान और
उसके जिला बिजनौर के कस्बे नहटौर में ही भटकता रहा। उन्होंने अपने उपन्यास ‘जहां दराज है‘ में अपने परिवार का एक हजार साल का
इतिहास संजोया है कि कैसे उनके पूर्वज एक हजार साल पहले नहटौर आकर बसे। उपन्यास
में वह अपने घर, उसके आगे की झील, मौहल्ले का जिक्र करती है और नहटौर के
बागों के किस्से बयां करती है। जब उन्हें ज्ञान पीठ पुरस्कार मिला तो दूरदर्शन ने
उनका इंटरव्यू करना चाहा। इन्टरव्यू के लिए ऐनी आपा की शर्त थी कि इंटरव्यू नहटौर
में ही होगा। मजबूरन दूरदर्शन की टीम नहटौर आयी और उनका इंटरव्यू नहटौर में हुआ।
नहटौर के रहने वाले उनके पिता सज्जाद हैदर अलीगढ़ विश्व विद्यालय में रजिस्ट्रार
थे। हैदर साहब खुद उर्दू के लेखक थे ओर उनकी मां नजर जहरा भी उर्दू की लेखिका
थीं। लंदन में उन्होंने अंग्रेजी
पत्रकारिता भी की। उनका लेखन उर्दू में और पत्रकारिता अंग्रेजी में थी। उन्होंने
लगभग बारह उपन्यास और ढेरों कहानियां लिखीं। उनकी प्रमुख कहानियों में पतझड़ की
आवाज, स्ट्रीट सिंगर ऑफ लखनऊ एंड अदर स्टोरिज
और रोशनी की रफ़्तार जैसी कहानियां शामिल हैं। उन्होंने हाउसिंग सोसायटी, आग का दरिया, सफीने-गमें दिल, आखिरे-शब के हम सफर, कारे जहां दराज है जैसे उपन्यास भी
लिखे। आखिरे-शब-के हमसफर के लिये इन्हें 1967
में साहित्य एकादमी और 1989 में उन्हें पदमभूषण से पुरस्कृत किया
गया। कुर्रतुल ऐन हैदर के समृद्ध लेखन ने
उर्दू साहित्य की आधुनिक धारा को दिशा प्रदान की। आमतौर पर इनके साहित्य के
विस्तृत फलक में भारतीय उपमहाद्वीप के इतिहास एवं सांस्कृतिक पृष्ठ भूमि निहित है।
1947 में प्रकाशित इनके पहले कहानी संग्रह ‘सितारों से आगे‘ की उर्दू की नई कहानी का प्रस्थान
बिन्दु समझा जाता है। जनपद बिजनौर के कस्बे नहटौर से जुड़ी ऐनी आपा न केवल बिजनौर
अपितु हमारे संपूर्ण भारतवर्ष के लिये गौरवांवित करने वाली है। पूरी दुनिया घूमने
के बाद भी जो अपने नहटौर से इस तरह जुड़ी रहीं जैसे- वट वृक्ष अपनी जड़ों से जुड़ा
होता है। जितना ऊपर पर बढ़ता है उतना या फिर शायद उससे भी अधिक उसकी जड़े अंदर की
तरफ बढ़ती हैं।
अख्तर-उल-ईमान
मशहूर
फिल्म लेखक अख्तर-उल-ईमान का जन्म जनपद बिजनौर के नगर नजीबाबाद में 12 नवम्बर 1915 को हुआ था। आप मुख्यतः नज्म के शायर
हैं और आधुनिक उर्दू नज्म के संस्थापकों में से एक हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय से
एम.ए. करने वाले ईमान साहब ने ऑल इंडिया रेडियो से अपने करियर की शुरूआत की। 1945 में फिल्मों के लिये ईमान साहब मुम्बई
आ गये। 1948 में फिल्म ‘झरना‘ से आपने फिल्म लेखन की शुरुआत की, लेकिन
हिंदी फिल्म ‘कानून‘ उनके लिये मील का पत्थर साबित हुई। इस फिल्म से वह सिनेमा की दुनिया
में बतौर लेखक स्थापित हो गये। ‘इत्तेफाक‘, ‘कानून‘, ‘धुंध‘, ‘पाकीजा‘, ‘पत्थर के सनम,
‘गुमराह‘ जैसी अनेक फिल्में जिनके संवाद लोगों
की जुबान पर चढ़ गये तो उसके पीछे अख्तर-उल-ईमान साहब की कलम ही थी। अख्तर साहब
उर्दू की दुनिया के एक ऐसे शायर थे, जो
अपनी शायरी में बहुत यथार्थवादी और आधुनिक थे। उनकी नज्मों में आम आदमी की जिंदगी
और दर्द की कहानियां हैं। ‘तारीक सय्यारा‘ (1943), ‘गर्दयाब‘ (1946), ‘आबजू‘
(1959), ‘यादें‘ (1961), ‘विते-ए-लम्हात‘ (1969), ‘नया आहंग‘ (1977), ‘सार-ओ-समान‘ (1983), अख्तर साहब के काव्य संग्रह हैं। उर्दू
में साहित्य लेखन के लिये साहित्य एकादमी ने अख्तर साहब 1962 में साहित्य एकादमी अवार्ड से
पुरस्कृत किया गया। 1988-89 में उन्हें मध्य प्रदेश शासन के
राष्ट्रीय इकबाल सम्मान से सम्मानित किया गया। फिल्म ‘धर्मपुत्र‘
और ‘वक्त‘ में संवाद लेखन के लिये उन्हें दो बार फिल्म फेयर अवार्ड से नवाजा
गया। अख्तर साहब अपने समय के बहुत संजीदा शायर थे। बी.आर. चोपड़ा की सुपरहिट फिल्म ‘वक्त‘ में जब अभिनेता राजकुमार कहते हैं कि ‘चिनाय सेठ जिनके घर शीशे के होते हैं, वो दूसरों के घर पर पत्थर नहीं फेंका करते‘ यह संवाद लोगों की जुबां पर चढ़ गया।
ऊपर लिखे इस ‘डॉयलाग‘ ने लोगों को तालियां बजाने के लिये मजबूर कर दिया। यह डायलॉग अख्तर
उल ईमान की कलम से निकला था। अक्सर लोग उन्हें फिल्मी लेखक के रूप में जानने-समझने
की भूल करते हैं, फिल्मों में अपने से पहले वो एक नामचीन
शायर और कहानीकार थे और जब तक इस दुनिया में रहे, शायरी लिखते रहे। 9
मार्च 1996 के ईमान साहब ने शायरी और सिनेमा ही
नहीं इस दुनिया को अलविदा कह दिया। मुंबई में उन्होंने आखिरी सांस ली। उनकी नज्में
उनके संवाद आज भी लोगों की जुबां पर हैं। जनपद बिजनौर की मिट्टी ने अख्तर साहब के
रूप में ऐसे नायाब हीरो को जन्मा है जिनकी चमक आकाश में चमकने वाले दैदीप्यमान
नक्षत्र की तरह हमेशा चमकती रहेगी।
सम्पदाकाचार्य पंडित रूद्रदत्त शर्मा
पंडि़त
रूद्रदत्त शर्मा उच्च कोटि के पत्रकार, संपादक
ही नहीं अपितु एक साहित्यकार भी थे। पंडित जी संस्कृत साहित्य के उदभट विद्वान, दर्शनशस्त्र के प्रकांड पंडित, मर्मज्ञ और पुराणों के मर्मस्पर्शी
समालोचक थे। पंडित जी का जन्म जनपद बिजनौर की तहसील धामपुर में संवत 1911 (सन् 1854) में हुआ था। आपकी आरम्भिक शिक्षा घर पर ही सम्पन्न हुई। आपकी शिक्षा
वृन्दावन, मथुरा व काशी में पूर्ण हुई। पंडित जी
का संपूर्ण जीवन पत्रकारिता को समर्पित रहा। आपने लगभग अपने जीवन के 40 वर्ष हिन्दी पत्रों के संपादन में
लगाये। आपने ‘इन्द्रप्रस्थ‘ (दिल्ली से), ‘आर्यविनय‘ (मुरादाबाद), ‘भारत मित्र‘ (कलकत्ता), ‘आर्यमित्र‘ (आगरा), ‘सत्यवादी‘ (हरिद्वार) तथा ‘भारतोदय‘ का भी सफलतापूर्वक संपादन किया।
पंडित रूद्रदत्त शर्मा न केवल पत्रकार, बल्कि
एक अच्छे साहित्यकार, व्यंग्यकार, प्रहसन लेखक भी थे। उनके द्वारा लिखित ‘स्वर्ग‘ में सब्जेक्ट कमेटी ‘स्वर्ग
में महासभा‘ और कंठी जनेऊ का विवाह हिन्दी साहित्य
में अपना बहुत महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। आज भी जब हम उन्हें पढ़ते हैं तो वे हमें
अंदर तक भेद जाते हैं। वस्तुतः संपादकाचार्य जी ने अपनी तीनों कृतियों- स्वर्ग में
सब्जेक्ट कमेटी, स्वर्ग में महासभा और कंठी जनेऊ का
विवाह में पुराणों की आलोचना को ललित कथा के माध्यम से प्रस्तुत करने का अभिनव
प्रयास किया है। पंडित जी ने न केवल व्यंग्य प्रहसन लिखे, अपितु नाटक, उपन्यास, धर्म-दर्शन,
शिक्षा, विज्ञान आदि विविधि विषयों पर भी अपनी लेखनी चलाई है जो उनके
बहुआयामी व्यक्तित्व की साक्षी है। हिन्दी पत्रकारिता के विकास में पंडित जी का
ऐतिहासिक योगदान सदैव स्मरणीय रहेगा। संपादकाचार्य जी के अंतिम दिनों के संबंध में
पं. रूद्रदत्त शर्मा ग्रंथावली भाग 1 के
संपादक भवानीलाल भारतीय ने लिखा है- ‘जिस
महान साहित्यकार ने अपने को सर्वात्मना आर्यसमाज तथा हिन्दी सेवा में आहूत कर दिया, उनके अंतिम दिन अत्यंत कष्ट और पीड़ा
में व्यतीत हुए। यह नितांत खेद और पश्चाताप का विषय है कि जिस व्यक्ति ने अपनी
साहित्यिक प्रतिभा का एक-एक कण आर्य समाज के साहित्य को समृद्ध करने तथा हिन्दी
पत्रकार कला का सर्वांगीण विकास करने में लगाया, वह जीवन के संध्यकाल में औषधि पथ्य तथा अन्न के दाने-दाने को तरसता
रहा। पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी का यह कथन हमें कटु सत्य के रूप में स्वीकार करना
पड़ेगा कि 40 वर्षों तक साहित्य सेवा और हिन्दी
पत्रों का संपादन करने के बाद औषधि व भोजन के लिये तड़प-तड़प कर उन्होंने प्राण
गंवाएं। (1) इससे बड़ा दुर्भाग्य भला क्या होगा कि
जो व्यक्ति 40 वर्षों तक तन और मन से साहित्य और
पत्रकारिता की सेवा में लगा रहा। उसका ऐसा अंत। मैं तो बस यही कह सकती हूं कि दुर्भाग्य
उनका नहीं हमारा है कि हम अपनी उस विरासत की कद्र नहीं कर पाये और आज तक नहीं कर
पाये हैं। आज भी धामपुर नगर में जहां उनका जन्म हुआ था, वहां उनका कोई विशेष स्मारक तक नहीं
है। उनके नाम से सिर्फ पं. रूद्रदत्त शर्मा स्मृति पुस्तकालय है और उसमें भी पंडित
जी की कोई कृति उपलब्ध नहीं है। आचार्य
पद्म सिंह शर्मा आचार्य पद्म सिंह शर्मा को हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में
तुलनात्मक समीक्षा का जनक कहा जा सकता है। क्योंकि वे आचार्य पद्म सिंह शर्मा ही
थे। जिन्हें हिन्दी आलोचना के शैशव काल में ‘बिहारी
सत्तसईः तुलनात्मक अध्ययन‘
पर प्रथम बार ‘मंगला प्रसाद पारितोषिक प्राप्त हुआ
था। पंडित जी ने जिसे बिहारी सत्तसई‘ को
समीक्षा का आधार बनाया, उसमें उनका पूर्वाग्रह न होकर हार्दिक
रसज्ञता ही थी, क्योंकि साहित्य मर्मज्ञ आज भी बिहारी
के दोहों का रसास्वादन उनके माध्यम से करते हैं। आचार्य जी साहित्य के जागरूक सृजक
थे। तत्कालीन साहित्य समाज में जिस प्रकार के आदर्श हीन और अश्लील साहित्य की रचना
हो रही थी, उसे देखकर उनका आलोचक मन उद्वेलित हो
उठा। आचार्य पद्मसिंह शर्मा ने एक निष्ठावान आलोचक की भूमिका बहुत ही ईमानदारी से
पूर्ण की है। आचार्य पद्म सिंह शर्मा का जन्म सन् 1876 को जनपद बिजनौर के गांव ‘नायक
नंगला‘ के एक प्रतिष्ठित परिवार में हुआ था।
अपनी शिक्षा-दीक्षा के संबंध में आचार्य जी ने स्वयं लिखा है- ‘बचपन में दस बारह वर्ष की आयु में पिता
जी ने अक्षणभ्यास कराया। फिर मकान पर कई वर्ष तक कई पंडित अध्यापक रखकर संस्कृत
में (सारस्वत) ‘कौमुदी‘, ‘रघुवंश‘ आदि पढ़ा। (2)
प्रारम्भिक
शिक्षा घर में पूर्ण करने के उपरांत आचार्य जी ने पंडित भीमसेन शर्मा की प्रयाग
स्थित पाठशाला में ‘अष्टाध्यायी‘ का अध्ययन किया। आचार्य जी ने पंडित
काशीनाथ जी से दर्शन शास्त्र तथा अन्य शास्त्रों का अध्ययन किया। वे जीवन पर्यंत
विद्यार्थी बने रहे। संस्कृत, हिन्दी, फारसी और उर्दू पर उनका पूर्ण अधिकार
था। आचार्य जी ने अपना संपूर्ण जीवन पठन-पाठन और संपादन कार्य में समर्पित किया।
सर्वप्रथम सन् 1904 में वे गुरुकुल कांगड़ी में पंडित जी
ने अध्यापन कार्य किया। ज्वालापुर में 1909
में अध्यापन कार्य करने के साथ ही साथ ‘भारतोदय‘ का संपादन भी किया। आचार्य जी का एक-एक
पत्र, एक-एक लेख, एक-एक संस्मरण, एक-एक भाषण हिन्दी साहित्य की अमूल्य
धरोहर है। बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी, स्वनामधन्य, प्रतिभावान रचनाकार आचार्य पद्म सिंह
शर्मा के व्यक्तित्व में अनेक विशेषताएं समाहित हैं। वे एक कुशल संपादक थे, उच्च कोटि के निबंधकार थे, पत्र-लेखन, व्याख्याता, आदर्श शिक्षक, काव्यकार, समालोचक और भाषा वैज्ञानिक थे। देखने
में किसान की तरह लगने वाले उस व्यक्ति के हृदय में सरसता की सरस्वती निवास करती
थी। आचार्य जी जहां एक ओर साहित्य जगत से जुड़े थे, वहीं दूसरी ओर सामाजिक और राजनीति क्षेत्र में भी दूर नहीं थे। आचार्य
जी का साहित्य परिणाम में भले ही कम है, किन्तु
गुणात्मकता और उपादेयता की दृष्टि से बहुत विशिष्ट और है। उनकी रचनायें चाहें कम
हो, लेकिन हिन्दी साहित्य में उनका मान और
सम्मान बहुत अधिक है। हिन्दी साहित्य के प्रख्यात साहित्यकार एवं कथाकार चन्द्रधर
शर्मा ‘गुलेरी‘ और निबंधकार अध्यापक पूर्ण सिंह के बाद इस क्षेत्र में तीसरा नाम
आचार्य पद्म सिंह शर्मा का ही ठहरता है। आचार्य जी का वर्तमान में जो साहित्य हमें
मिलता है वह यह है पद्म पराग (भाग-1) पद्म
पराग (भाग-2 अप्रकाशित) बिहारी सत्तसईः तुलनात्मक
अध्ययन, बिहारी सत्तसई संजीवनी भाष्य, हिन्दी-उर्दू और हिन्दुस्तानी, प्रबंध मंजरी, पद्म सिंह शर्मा के पत्र
(साहित्यिक-पत्र)। शर्मा जी का पूरा जीवन साहित्य को समर्पित रहा और साथ ही संपादन
कला के लिए भी।
चंद्रावती
लखनपाल
प्रसिद्ध
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी ,आर्य
विदुषी तथा शिक्षाशास्त्री चंद्रावती
लखनपाल 20 दिसंबर को बिजनौर के आर्यनगर में जन्म
हुआ।इनके पिता पंडित जयनारायण शुक्ला नगरपालिका बिजनौर में लेखाकार थे।चंद्रावती ने इलाहाबाद विश्वविद्वालय से
१९२६ में स्नातक की डिगरी प्राप्त की ।डा
सत्यवृत सिद्धांतालंकार ने अपनी बायोग्राफी “रेमीनिसेंसेज
एंड रिफलेक्शन्स आफ ए वैदिक स्कालर“ में
लिखा है कि शादी के समय वे (डा सत्यवृत
कांगड़ी )गुरूकुल विश्वविद्वालय में
तुलनात्मक धर्म विज्ञान के महोपाध्याय थे। चंद्रावती की इच्छा थी कि स्नातक करने के बाद ही शादी हो। उनकी इच्छा के अनुरूप स्नातक करने के बाद 15 जून 1926 को शादी हुई। । शादी के बाद चंद्रावती ने इलाहाबाद से विश्वविद्यालय
से अंग्रेजी से एमए किया।
डा
सत्यवृत और चंद्रावती लखनपाल दोनों आजादी के आंदोलन में सक्रिय रहे। १९३२ में
उन्हें कांग्रेस के संयुक्त प्रान्तीय राजनैतिक
सम्मेलन महिला विंग की अध्यक्ष चुना गया। 20
जून 1932 को सम्मेलन के लिए आगरा पहुँचने पर
वे गिरफ्तार कर लीं गयीं। उन्हें एक साल की सजा हुई।
वे
महादेवी कन्या पाठशाला( एक डिगरी काँलेज )देहरादून की प्राचार्य बनी। कार्यकाल
पूरा होने उसके बाद चंद्रावती लखनपाल दो
जुलाई 1945 को
कन्या गुरुकुल देहरादून की आचार्या पद पर नियुक्त हुई।अप्रैल 1952 में राज्यसभा की सदस्या चुनी गई ।
पहले चार साल और दूसरी बार छह कुल 10 साल तक इस पद पर रहीं। 1934 में चन्द्रावती जी को “स्त्रियों की स्थिति“ ग्रन्थ पर सेकसरिया पुरस्कार तथा 20
मई 1935
में उन्हें “शिक्षा मनोविज्ञान” ग्रन्थ पर महात्मा गांधी के सभापतित्व में मंगलाप्रसाद प्रसाद पारितोषिक
पुरस्कार दिया गया।चंद्रावती लखनपाल ने महिलाओं को स्वावलम्बी बनाने के लिए १९६४ में अपनी
सम्पूर्ण आय दान देकर एक ट्रस्ट की
स्थापना की।३१ मार्च १९६९ को मुबंई में
इनका निधन हुआ।
माजदा
असद
माजदा
असद का जन्म 7 फरवरी 1939 को चान्दपुर,
जिला बिजनौर में हुआ। अलीगढ़
विश्वविद्यालय से 1960 में हिन्दी में एमए किया ‘रसखान काव्य तथा भक्ति भावना‘ विषय पर 1964 में अलीगढ़ से ही पीएचडी की उपाधि
प्राप्त की तथा जामिया मिल्लिया इस्लामिया नयी दिल्ली में हिन्दी विभागाध्यक्ष के
रूप में कार्यरत रहीं, वहीं से सेवानिवृत हुई। ‘मेरी मुलाकातें (इंटरव्यू)‘, ‘भारतीय मुस्लिम त्यौहार और रीति रिवाज‘, ‘मेरी मारीशस यात्रा‘, ‘गद्य की नयी विधाओं का विकास‘, ‘संक्षेपण कला‘, ‘सरोजनी नायडू (बाल साहित्य)‘, ‘रसखान व्यक्तित्व और कृतित्व‘, ‘इंटरव्यू‘, ‘डॉ. जाकिर हुसैन (जीवनी) ‘ आपकी मौलिक कृतियाँ हैं। अनुवाद के
अन्तर्गत ‘प्लेटो की रिपब्लिक (सह लेखन-उर्दू से
हिन्दी) ‘लोकवाणी से आकाशवाणी‘ ‘जाकिर साहब की कहानी उनकी बेटी की
जुबानी‘, ‘कछुआ और खरगोश‘, ‘पतझर की आवाज‘ आदि उर्दू से हिन्दी एवं हिन्दी अदब के
भक्ति काल पर मुस्लिम सकाफत के असरात (उर्दू में अनुवाद) चर्चित हुये हैं। आजकल आप
अपने बेटों के साथ अमेरिका में रह रही हैं।
गजल
सम्राट दुष्यंत कुमार
हिन्दी
गज़ल के जनक दुष्यंत कुमार का जन्म सन् 1931 ई.
को राजपुर नवादा, जिला बिजनौर के सभ्रान्त त्यागी परिवार
में हुआ था। आम आदमी की पीड़ा से लगाव, आक्रोश
की झलक दुष्यंत के बचपन से ही मिलने लगी थी। बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न दुष्यंत
कुमार ने हिन्दी $गजल को वह रूप प्रदान किया कि वह
जनमानस की आवाज बन गयी। कोई भी समारोह हो और दुष्यंत की गज़ल उसमें न हो, ऐसा तो हो ही नहीं सकता या फिर मैं यह
भी कह सकती हूं कि कम से कम जनपद बिजनौर में ऐसा बिल्कुल भी नहीं होता। उन्होंने न
केवल गजलें लिखीं, अपितु गीत, मुक्तक, गीतिनाट्य उपन्यास एकांकी, रेखा
चित्र, आलोचना, नाटक एकांकी सभी कुछ लिखा। उनके काव्य गज़ल संग्रह हैं- सूर्य का
स्वागत, आवाजों के घेरे, जलते हुए वन का वंसत, साये में धूप, नाटक- एक कंठविषपायी, मसीहा मर गया, उपन्यास- छोटे-छोटे सवाल, आंगन में वृक्ष, दुहरी, जिंदगी, एकांकी-मन का कोण। साहित्य को दुष्यंत
कुमार की देन अद्वितीय है। जिस समय में दुष्यंत कुमार ने साहित्य में पदार्पण किया, वह समय देश में राजनीतिक क्षेत्र में
काफी उथल-पुथल वाला था। स्वतंत्रता आंदोलन, गांधी
जी की हत्या, हिन्दू-मुस्लिम दंगे, साम्प्रदायिकता, सामाजिक, विघटन इसीलिए साहित्य में भी क्रांतिकारी परिवर्तन का दौर चल रहा था।
राष्ट्र के इस उथल-पथल भरे वातावरण से जनसामान्य भी अछूता नहीं रह गया तो फिर
दुष्यंत कुमार तो साहित्यकार थे, वे
कैसे इसे महसूस न करते और यही सब हमें उनके साहित्य में देखने के लिए मिलता है।
दृढ़ विश्वास, इच्छा शक्ति और संकल्प के धनी दुष्यंत
कुमार ने कभी भी पराजय को स्वीकार नहीं किया। असंभव को संभव बनाने की शक्ति वे
कर्म में स्वीकारते थे। तभी वे कहते हैं- ‘कैसे
आकाश में सूराख नहीं हो सकता एक पत्थर तो तबियत से उछालो यारो।‘(3)
आकर्षक
व्यक्तित्व के धनी दुष्यंत का अंदाज निराला था। दुष्यंत कुमार का मस्त और मूडी
व्यक्तित्व गंभीर से गंभीर परिस्थितियों में भी टूट नहीं पाया। नौकरी से सस्पेंड
होने जैसी स्थिति का भी उन पर कोई असर नहीं पड़ा। दुष्यंत मानवीय गुणों से ओत-प्रोत
थे। मानवता उनमें कूट-कूट कर भरी हुई थी। उन्होंने दूसरों की सहायता के लिए जीवन भर
शहर से गांव और अमीर से गरीब तक जाने में तनिक भी संकोच नहीं किया। जनसामान्य का
दुःख उनको इतना द्रवित करता था कि वही दर्द उनकी कविता बन जाता था- ‘भूख है तो सब्र कर, रोटी नहीं तो क्या हुआ आजकल दिल्ली में, जेरे बहस में मुद्द्आ।‘ (4) दुष्यंत कुमार ने सामान्य जनता की
लाचारी, बेबसी और निरीहता को भी देखा और उसकी
पीड़ा को समझा। उसकी उसी दयनीय स्थिति का अंकन भी उनकी गजलों में मिलता है- ‘यहां तो सिर्फ गूंगे और बहरे लोग बसते
हैं खुदा जाने यहां पर किस तरह जलसा हुआ होगा‘ (5) दुष्यंत कुमार ने अपनी $गजलों
में काल्पनिकता के स्थान पर यथार्थ को अधिक महत्व दिया। उन्होंने $गजल को रूमानियत से निकालकर देश के आम
आदमी से जोडने का कार्य किया। बिजनौर जनपद के लिए इससे बड़े गौरव की बात और क्या
होगी कि हिन्दी गजल सम्राट दुष्यंत कुमार यहीं की मिट्टी में खेलकर पले-बढ़े हैं।
हम गर्व से कह सकते हैं कि हमारी हिन्दी भाषा में मीर, नजीर और गालिब जैसे शायर भले ही पैदा न
किये हो, मगर दुष्यंत कुमार जैसे शायर को तो
पैदा किया और यही एक दुष्यंत कुमार उर्दू शायरी की आंखों में आंखें डालकर कह सकता
है कि- ‘चलो अब यादगारों की अंधेरी पोटली खोले‘ कम-स-कम एक वह चेहरा तो पहचाना हुआ
होगा।
व्यंग्यकार रवीन्द्रनाथ त्यागी
व्यंग्य
विद्या के सशक्त हस्ताक्षर रवीन्द्रनाथ त्यागी
रवीन्द्रनाथ त्यागी का जन्म सन् 1930 को
जनपद बिजनौर के नहटौर के पास महुआ गांव में हुआ था। त्यागी जी का बाल्यकाल विषम
परिस्थितियों में व्यतीत हुआ। त्यागी जी की आरम्भिक शिक्षा गांव के मदरसे में ही
हुई। त्यागी जी का आरम्भ अत्यंत कठिन एवं संघर्षपूर्ण परिस्थितियों में हुआ। अपने ‘आत्मलेख‘ में वे स्वयं लिखते है- ‘रवीन्द्रनाथ
त्यागी का छात्र-जीवन बहुत संघर्षपूर्ण था। वे ट्यूशन करते थे और प्रूफ पढ़ते थे।
कभी-कभी उन्हें एक ही वक्त भोजन मिलता था।‘ (7) त्यागी जी का छात्र जीवन भले ही
संघर्षों में बीता हो, लेकिन हिन्दी व्यंग्य विद्या को
उन्होंने नये आयाम प्रदान किये। हिन्दी में व्यंग्य की सशक्त परम्परा की रचना में
व्यंग्य त्रयी- हरिशंकर परसाई, शरदजोशी
और रवीन्द्र त्यागी का योगदान ऐतिहासिक है। रवीन्द्रनाथ त्यागी के व्यंग्य का यह
है कि हास्य उनके व्यंग्य का अनिवार्य घटक बनता है। बनता है, अकेले व्यंग्य कहने से उनके लेखन का
सम्पूर्ण व्यंग्य सृजित नहीं होता। रवीन्द्रनाथ त्यागी के हास्य-व्यंग्य का संसार
बहुत व्यापक और विस्तृत है। जीवन का कोई भी क्षेत्र ऐसा नहीं है, जहां त्यागी जी की पैनी दृष्टि ने वहां
की विद्रूपताओं, विसंगतियों, उलझनों और समस्याओं को निरावृत्त न
किया हो। त्यागी जी ने व्यंग्य लेखन के अतिरिक्त काव्य-लेखन एवं संपादन भी किया
है। इनकी प्रमुख रचनाएं हैं काव्य- सूखे और हरे पत्ते (1962), कल्पवृक्ष (1965), आदिमराग 1968, आखिर कार 1978, सलीव से नाव तक (1983), अंतिम बसंत (1988)। व्यंग्य रचनाएं- खुली धूप में नाव पर
(1963), भित्तिचित्र (1966), देवदार के पेड़ (1973), शोकसभा (1974), फूलों वाले कैक्टस (1978), इस देश के लोग (1982), विषकन्या (1990), पूरब खिले पलाश (1998) आदि। इनकी अन्य रचनायें हैं- अपूर्ण
कथा (उपन्यास) मास्टर भोलाराम (बाल साहित्य) उर्दू-हिन्दी हास्य-व्यंग्य (संपादन)।
रचनाकर जिस परिवेश में रहता, जिन
समस्याओं से उसे संघर्ष करना पड़ता है। उसका प्रभाव उसकी रचनाओं पर भी पड़ता है।
व्यंग्यकार रवीन्द्रनाथ त्यागी ने अपनी रचनाओं के माध्यम से जहां अपनी कोमल
भावनाओं को शब्द प्रदान कर लेखनीबद्ध किया है, वहीं
अपनी व्यग्ंय रचनाओं के द्वारा समाज में फैली विद्रूपताओं, विडम्बनाओं, विसंगतियों पर भी गहरे और तीक्ष्ण
व्यंग्य किये हैं। त्यागी जी का मानना था कि समाज की कुरीतियों का भंडाफोड़ केवल और
केवल व्यंग्य द्वारा ही हो सकता है और उसमें हास्य भी समाविष्ट हो जाये तो व्यंग्य
का रंग और तेज हो जाता है। कहानीकार राधाकृष्ण का मानना है कि उनके
हास्य-व्यंग्यों में लाठी से बांसुरी बजाने की कला दिखती है। रवींद्रनाथ त्यागी के
कैमरे का कैनवास बहुत बड़ा है और उनकी अध्ययनशीलता तो अपना सानी नहीं रखती। इसलिये
वे डायरी, पत्र, यात्रावृत्त,
लघुकथा, संस्मरण, आत्मकथा, उपन्यास आदि गद्य की अनेक विधाओं को समृद्ध कर पाये।
पत्रकार एवं लेखक पंडित हरिदत्त शर्मा
पत्रकार एवं लेखक पंडि़त हरिदत्त शर्मा का अपना
विशिष्ट स्थान है। पत्रकार एवं लेखक पंडित हरिदत्त शर्मा बहुआयामी प्रतिभा के धनी
थीे। वे न केवल एक लेखक या पत्रकार थे, अपितु
एक सच्चे समाज सुधारक भी थे। उनका जन्म नजीबाबाद तहसील में पंडित सुखदेव शर्मा जी
के घर 1921 में हुआ था। उनके पिता सुखदेव शर्मा
जी कर्मकांडी पंडित थे। पंडित हरिदत्त शर्मा ने कर्मकांड के पैतृक कार्य को न
अपनाकर पत्रकारिता को अपनी जीविका का आधार बनाया। उन्होंने हिन्दी और अंग्रेजी
दोनों भाषाओं के समाचार-पत्रों में समाचार-प्रेषण किया। स्वतंत्र रूप से उन्होंने ‘प्रज्ञा‘ एवं ‘क्रांति‘ आदि पत्रों के संपादन में भी सहयोग किया। सन् 1948 में वे ‘नवभारत टाइम्स‘ से जुड़े और जीवन पर्यंत उसी से जुड़े
रहे। पंडित हरिदत्त शर्मा जी समाज के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति के परम हितैषी थे।
श्री आनंद जैन ने लिखा है- ‘शर्मा
जी का संबंध सदा निर्धन वर्ग तथा मिल मजदूरों की आशाओं, निराशाओं, गरीबी, शोषण और उनके संघर्षों से रहा। शर्मा जी ने गरीबों और मजदूरों की
जिंदगी को बहुत करीब से देखा था और यही कारण था कि अपने सर्वप्रथम ग्रंथ ‘यह बस्ती, यह लोग‘ उपन्यास में उन्होंने मजदूरों के संघर्ष की झांकी प्रस्तुत की।
गरीबों की सेवा को वे ईश्वर की उपासना के समान मानते थे। (8) शर्मा जी मानवता के प्रेमी एवं भारतीय
संस्कृति के अमर वेदवाक्य ‘वसुधैव कुटुम्बकम‘ के प्रबल समर्थक थे। सहयोग की
प्रवृत्ति उनमें इतनी थी कि जो भी उनके पास सहायता के लिये पहुंचता उसे वे पूरा
सहयोग देते। शर्मा जी अपने जीवनकाल में अनेक कृतियों की रचना की। यह बस्ती यह लोग
(उपन्यास), हम भी गये मेले में (निबंध), नेहरू और नई पीढ़ी, महात्मा गांधी और राष्ट्रीय एकता, इंदिरा गांधी विश्व के संदर्भ में, भारत का भविष्य, लेनिन भारत के संदर्भ में, अनुशासन और नैतिकता, संस्कृति और समाजवाद, जापान, देश और निवासी, धरती
के तारे, गांधी-दर्शन: दिग्दर्शन, निबंध: भाषा शैली और कला (अप्रकाशित)।
पंडित हरिदत्त शर्मा प्रख्यात निर्भीक और साहसी पत्रकार बहुमुखी प्रतिभा के धनी, विद्वान, कुशल वक्ता,
साहित्यकार, समाजसेवी एवं राजनीतिज्ञ थे। उन्होंने
हिन्दी साहित्य जगत के साथ-साथ समाज के विभिन्न क्षेत्रों में अपना अमूल्य योगदान
देकर जनपद बिजनौर को गौरवान्वित किया। कथाकार एवं पत्रकार डा. महावीर कथाकार एवं पत्रकार डा. महावीर अधिकारी अपने
प्रख्यात निबंधों, कथाओं, रचनाओं व पत्रकारिता से आजादी की अलख जगाने वाले डा. महावीर अधिकारी
का जन्म जनपद बिजनौर के गांव पैगम्बरपुर में 1918
में हुआ था। डा. महावीर अधिकारी ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अपने गांव में
पैगम्बरपुर के निकट रायपुर की पाठशाला में प्राप्त की थी। अंग्रेजी शासनकाल में वे
सेना में लेफ्टिनेट पद पर भी रहे, लेकिन
अपने पिता चौधरी भगवंत सिंह के राष्ट्रवादी विचारों से प्रेरित होकर फौज की नौकरी
छोड़कर घर वापस आ गये। दिल्ली से जनसम्पर्क व स्थानीय बोलियों के भाषात्मक भिन्नता
के अध्ययन के लिये 17 मार्च 1941 में कलकत्ता तक पैदल यात्रा की। कलकत्ता में सात अगस्त को गुरुदेव
रवींद्रनाथ टैगोर की अंतिम यात्रा में शामिल हुए। वहीं से उन्हें रचनाकार की गरिमा
की अनुभूति हुई। कलकत्ता में ही भगवती चरण वर्मा के संपादन में निकलने वाले ‘विचार‘ पत्र में कार्य करने लगे। इसी के साथ ‘जागृति‘, ‘विश्वामित्र‘ और ‘विशाल भारत‘
समाचार-पत्रों में भी सहयोग किया। सन् 1942 में दिल्ली से प्रकाशित होने वाले ‘नवयुग‘ साप्ताहिक में उपसंपादन के रूप में कार्य किया और साथ ही साथ गांधी
जी के ‘करो या मरो‘ आंदोलन में भी सक्रिय भूमिका निभाते
रहे। 1945 में नवयुग के प्रधान संपादक बने, लेकिन 1950 में नवयुग बंद हो गया। 1952
में कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर के साथ मिलकर ‘ज्ञानोदय‘ पत्र का संपादन आरंभ किया। डा. महावीर
अधिकारी ने ‘दैनिक हिन्दुस्तान‘ और ‘नवभारत टाइम्स‘ स्थानीय
संपादक के रूप में कार्य किया। डा. महावीर अधिकारी अपने लेखन एवं संपादन के बल पर
अनेक बार विदेश यात्रा पर गये। डा. महावीर अधिकारी हिन्दी जगत के एक सशक्त
हस्ताक्षर हैं। आपने साहित्य की विविध विधाओं में लेखन कार्य किया। उपन्यास, ‘मंजिल से आगे‘, ‘तलाश‘, ‘मानस मोती‘,
कहानी- ‘जीवन के मोड़‘,
‘कोशी‘ निबंध- ‘आदमी का गणित‘,
‘रामदुर्गा‘, ‘कलम कलाम‘, जीवनी- ‘लाल बहादुर शास्त्री‘, व्यंग्य-
‘नरम-गरम‘, भारत का चित्रमय इतिहास अनुवाद ‘सिद्धार्थ
यौवन की आंधी‘, ‘कालातीर‘, ‘पाल की गली‘,
सफलता के आठ साधन, ‘कोलंबस‘, संपादन ‘प्रसाद का जीवन दर्शन‘, ‘कला और कृतित्व‘, ‘बिन बादल बरसात‘, ‘माटी कहे कुम्हार से‘ आदि। डा. महावीर अधिकारी एक ऐसे
साहित्यकार हैं, जो साहित्य के माध्यम से जीवन की
अंर्तदृष्टि प्राप्त करते हैं डा. अधिकारी
का हिन्दी, उर्दू और अंग्रेजी भाषाओं पर पूर्ण
अधिकार था। हिन्दी साहित्य जगत में डा. महावीर अधिकारी एक व्यक्ति नहीं पूरा
कारवां हैं, जिनमें दुनिया भर की चीजें भरी पड़ी हैं, जो वर्षों पूर्व चला था और चला आ रहा
है। मानवीय मूल्यों से ओतप्रोत डा. महावीर अधिकारी अपने साहित्य और पत्रकारिता
दोनों में ही एक अंर्तदृष्टि प्रदान करते हैं। जब हम महावीर अधिकारी की बात करते
हैं तो हम गर्व से भर जाते हैं कि उनको जन्म देने वाली उर्वरा भूमि भी जनपद बिजनौर
की ही है। गज़लकार, लेखक और समीक्षक निश्तर खानकाही गज़लकार, लेखक
और समीक्षक निश्तर खानकाही हिन्दी साहित्य जगत के प्रख्यात, गज़लकार, व्यंग्यकार,
कहानीकार, नाटककार और स्वतंत्र लेखक निश्तर
ख़ानकाही का जन्म भगीरथी के तट पर जनपद बिजनौर के ग्राम जहानाबाद में सन् 1930 को जमींदार सैयद मोहम्मद हुसैन के परिवार
में हुआ था। निश्तर ख़ानक़ाही की आरंभिक शिक्षा घर पर ही हुई। ख़ानक़ाही जी को
पढने का शौक बचपन से ही था। माता जी का प्रभाव निश्तर ख़ानक़ाही पर बहुत अधिक था।
उनकी माता जी एक अच्छी गज़लकार थीं। ख़ानक़ाही ने अपनी उम्र के प्रथम दशक से ही
गज़ल लिखना आंरभ कर दिया था। लिखने की प्रतिभा उनमें ईश्वर प्रदत्त थी। साहित्य
लेखन के साथ ही साथ उन्होंने पत्रकारिता भी की। बीस वर्ष की अवस्था में सन् 1950 में बम्बई जाकर ‘जम्हूरियत‘ दैनिक समाचार-पत्र में काम करने लगे।
किंतु दुर्घटनावश उनके पिताजी का देहांत हो गया और वे बिजनौर आ गये। लेकिन यहां
उनका मन नहीं लगा और वे 1952 में दिल्ली चले गये, जहां उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ की
प्रसिद्ध पत्रिका ‘शाहराह‘ को संपादित किया। लेकिन दिल्ली भी उन्हें रास नहीं आयी और वे फिर से
बिजनौर वापस आ गये। बिजनौर मुख्यालय से प्रकाशित दैनिक बिजनौर टाइम्स और चिंगारी
से अपने अंतिम समय तक जुड़े रहे। बिजनौर टाइम्स ग्रुप से प्रकाशित उर्दू अख़बार ‘रोजाना ख़बर जदीद‘ जो उनके परम मित्र बाबूसिंह चौहान ने
उन्हीं के लिये शुरू किया था, उसके
संपादक भी रहे। लेकिन दुर्भाग्यवश वह अख़बार दो-ढाई साल ही चल पाया। निश्तर ख़ानक़ाही
का पहला गज़ल संग्रह ‘मोम की बैसाखिया‘ (1987), धम की बाजी के युग में (1955), गज़ल मैंने छेड़ी (1947), कैसे-कैसे लोग मिले (1998), चुने हुए ग्यारह एकांकी आधी आबादी का
सच (1998), गज़ल और उसका व्याकरण (1999), मेरे लहू की आग (2003), नारी कल आज और कल, पर्यावरण दशा और दिशा, मानवाधिकार क्यों और कैसे। विभिन्न
विधाओं में अनेक पुस्तकें निश्तर ख़ानक़ाही ने लिखी हैं जो उनकी साहित्य के प्रति
समर्पण को दर्शाती है। प्रख्यात डा. गिरिराजशरण अग्रवाल उनके साहित्य लेखन के विषय
में लिखते हैं- ‘अगर मैं कहूं कि निश्तर ख़ानक़ाही, जिन्होंने एक शायर या गज़लकार के रूप
में ख्याति प्राप्त की। मात्र एक शायर या गज़लकार ही नहीं वे एक सफल कहानीकार, नाटककार, बल्कि गद्य की हर विद्या के समान अधिकार के साथ लिखने वाले
साहित्यकार हैं, तो आपमें से बहुत से पाठकों को आश्चर्य
होगा। श्री ख़ानकाही ने नज़्मे, गज़ले
या कविताएं ही नहीं लिखीं,
बल्कि कहानियां, नाटक, निबंध, राजनीतिक संदर्भों के लेख, रेखा चित्र, व्यंग्य अर्थात गद्य की लगभग सभी
विद्याओं में लेखन कार्य किया है और पूरे स्तर के साथ किया। (9) उन्होंने अपना साहित्यक परिचय एक
कहानीकार के रूप में उस समय दिया, जब 1950-1951 में तत्कालीन साहित्यिक पत्रिका
बीसवीं सदी में उनकी कहानी ‘मरियम‘ प्रकाशित हुई। यह कहानी इतनी सशक्त थी
की कहानी तथा संपादक को भेजे पत्र पर वे अनजाने में अपना नाम लिखना भी भूल गए थे, लेकिन किंतु कहानी केवल गांव के नाम से
प्रकाशित हुई। निश्तर ख़ानकाही ने आधुनिक मानव के खंडों में विभक्त जीवन, सामाजिक, राजनीतिक परिप्रेक्ष्य, आतंकवाद, सांप्रदायिकता, गिरते-टूटते मानव मूल्यों को अभिव्यक्त
किया है।
पत्रकार
एवं लेखक बाबूसिंह चौहान
जनपद बिजनौर के गौरव, साहित्यनुरागी, संघर्षशील, व्यक्तित्व के धनी पत्रकारिता के
पुरोधा बाबूसिंह चौहान का जन्म फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा मार्च 1928 को रामगंगा नदी के तट पर बसे गांव
महावतपुर में हुआ था। चौहान साहब के पिताजी श्री बसंत सिंह एक अध्यापक होने के
साथ-साथ किसान भी थे। चौहान साहब की प्रारंभिक शिक्षा अपने पैतृक गांव महावतपुर
में ही हुई थी। उसके पश्चात नगीना, बिजनौर, मुरादाबाद व आगरा में उन्होंने शिक्षा
प्राप्त की। पंजाब विश्वविद्यालय ने उन्हें सन् 1954 में आचार्य की उपाधि से विभूषित किया। देववन (बिहार) से
साहित्यलंकार की उपाधि 1955 में प्राप्त की। पत्रकारिता और
बाबूसिंह चौहान एक-दूसरे के पर्याय थे। 1948
में सीतापुर से प्रकाशित होने वाले ‘सूत्रधार‘ हिंदी साप्ताहिक का संपादन भार संभाला।
जनपद बिजनौर में पंचायतों को स्थापित करने वाले चौहान साहब ने 26 जनवरी 1950 को ‘चिंगारी‘ साप्ताहिक का शुभारंभ किया। किन्हीं कारणों से चिंगारी को स्थगित
करना पड़ा, तब उन्होंने भटिंडा (पंजाब) से
प्रकाशित होने वाले दैनिक नवजीवन का संपादन किया। 1963 में सरकारी विरोध के कारण नवजीवन को बंद करना पड़ा। चौहान साहब में
पत्रकारिता के प्रति जुनून किस हद तक था की वह उसके बिना जीवित नहीं रह सकते थे। 1963 को ही चौहान साहब ने दैनिक बिजनौर
टाइम्स का प्रकाशन आरंभ किया। सन् 1984
में उर्दू में रोजाना ख़बर जदीद का प्रकाशन शुरू किया। जो 1993 तक निरंतर चला। 1985 में फिर से सांध्य दैनिक चिंगारी का
प्रकाशन आरंभ किया, जो आज भी जनमानस पर अपनी छाप छोड़ रहा
है और जनपद बिजनौर के लिए किसी वरदान से कम नहीं है। मैं तो यहां तक कहना चाहूंगी
कि बिजनौरवासियों को अख़बार पढना सिखाने वाला कोई है तो भी आदरणीय बाबूसिंह चौहान
ही हैं। जीवन में अनेक संघर्षों से जूझते हुए चौहान साहब ने यह कीर्तिमान स्थापित
किया, जो विरले ही कर पाते हैं। 1973 में चौहान साहब सोवियत संघ की यात्रा
पर गए और सोवियत यात्रा के अपने संस्मरणों को श्रमवीरों के देश में शीर्षक से
बिजनौर टाइम्स में नियमित प्रकाशित किया। श्रमवीरों के देश में संस्मरण पर चौहान
साहब को 1975 में नेहरू सोवियत लैंड अवार्ड प्राप्त
हुआ। वे अपने जीवनकाल में चीन, थाईलैंड
और हांगकांग की यात्राओं पर गये। यह सब यात्राएं उन्होंने भारत सरकार के पत्रकार
प्रतिनिधि के रूप में की। वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार बाबूसिंह चौहान 14 वर्ष की अवस्था में स्वतंत्रता आंदोलन
से जुड़ गए। 1942 में गांधी जी के आवास पर आपको झंडा
फहराने और गांधी जी की जय बोलने पर प्राथमिक विद्यालय से निकाल दिया गया और
अंग्रेजी हुकूमत ने जेल में डाल दिया। स्वतंत्रता सेनानी होते हुए भी चौहान साहब
ने कभी भी स्वतंत्रा सेनानी का लाभ नहीं लिया और न ही कभी सरकारी पेंशन ली। उनका
स्वाभिमान इतना था कि वे संघर्ष करते रहे, गरीब, बेसहारा और वेजुबानों के लिए। 1951 में किसान आंदोलन का नेतृत्व किया और
जेल जाने में भी पीछे नहीं रहे। चौहान साहब व्यक्ति नहीं पूरी संस्था थे। उनमें
पत्रकारिता एवं लेखन के प्रति जुनून इस हद तक था जिसे उनकी पत्नी की असमय मृत्यु
भी नहीं तोड़ सकी। बाबूसिंह चौहान ने अपने
जीवनकाल में कहानी, उपन्यास, नाटक, एकांकी रेडियो नाटक, निबंध समीक्षा, साक्षात्कार यात्रा संस्मरण यानी
साहित्य की सभी विद्याओं में अपनी लेखनी चलाई है। प्रकृति पुत्र (1956), धर्म-दर्शन (1957), निराले संत (1957), संपूर्ण महाभारत, मैली चादर, उजला मन, (उपन्यास) श्रमवीरों के देश में (यात्रा संस्मरण), दर्पण झूठ बोलता है (1986), उफनती नदियों के सामने (1995), मकडजाल में आदमी (1996), पीठ पर नील गगन (1998), (ललित
निबंध) संसार एक नाट्यशाला नाटक (2007) कथा जारी है (कहानियां 2007)।
इनके अतिरिक्त संग्रह के ईतर निबंध है- आदमी की जड़, किसने सिखाई उन्हें यह कला, फसलों
के ताज, उच्च स्थान पर बैठे चील, कितनी हसीन है यह दुनिया, कुएं में आकाश, सत्यमेव जयते का सूत्र, बांझ हो गई नदी, आकाश का हाथी और कटोरे का जल, चुनौतियों के पहाड़, शब्द की कैद, आपके वाण, कायर का बीज आदि-आदि। मैं तो बस यही
कहूंगी कि जीवन का कोई भी सामान्य या असामान्य पक्ष नहीं है, जिसे रचनाकार ने अपने लेखन का विषय न
बनाया हो। चौहान साहब मानवता में विश्वास रखने वाले रचनाकार हैं। वे आदमी को आदमी
का दुःख बांटने वाला देखना चाहते हैं, वे
ऐसा समाज चाहते हैं जहां शांति हो, सद्भाव
हो, अपनापन हो और भूख और गरीब समाज में
कहीं न दिखाई दे। भूख और गरीबी का चोली दामन का साथ चौहान साहब का रहा था और वे
समाज को उससे बचाना चाहते थे। ऐसे बाबूसिंह चौहान न सिर्फ जनपद बिजनौर के गौरव हैं, बल्कि वे ऐसे पत्रकार और साहित्यकार
हैं, जिन पर सारा देश अभिमान कर सकता
है।
साहित्यकार
डा. गिरीराजशरण अग्रवाल
बहुमुखी प्रतिभा के धनी डा. गिरीराजशरण अग्रवाल
का जन्म 14 जुलाई सन् 1944 को मुरादाबाद, संभल तहसील में हुआ था, लेकिन उनकी कर्मभूमि बिजनौर रही है।
डा. अग्रवाल एक संघर्षशील,
कर्मठ, मेहनती और लगनशील व्यक्ति हैं। बचपन से ही उनकी रूचि अध्ययन, अध्यापन और लेखन में रही है। डा.
अग्रवाल के व्यक्तित्व में एक साथ, एक
समर्थ आलोचक समीक्षक, सफल नाटककार, साहित्य शास्त्री, एकांकीकार सफल प्राध्यापक, गज़लकार और व्यंग्यकार की विविध आयामी
विशिष्टाओं का सन्निवेश है। उनका व्यक्तित्व एवं कृतित्व निःसंदेह समाज सापेक्ष और
मानवीय मूल्यों से ओतप्रोत है। डा. अग्रवाल एक कुशल प्राध्यापक होने के साथ-साथ एक
सफल साहित्यकार भी है। डा. अग्रवाल लगभग पांच दशकों से हिन्दी जगत की प्रशंसनीय
सेवा कर रहे हैं। आपके संपादन में यूजीसी केयर लिस्ट में सम्मिलित प्रतिष्ठित
अन्तर्राष्ट्रीय पत्रिका शोध दिशा जो जनपद बिजनौर से ही प्रकाशित होती है। यह
पत्रिका बिजनौर का ही नहीं हमारे देश का भी गौरव है और यह कार्य डा. गिरीराजशरण
अग्रवाल 2006 से निरन्तर कर रहे हैं। साहित्य के क्षेत्र में आपने काव्य, गज़ल, आलोचना, गीत, निबंध, नाटक, संदर्भ ग्रंथ,
कोश, बाल साहित्य,
संपादन, पत्रकारिता,
साहित्य की लगभग सभी विद्याओं में डॉ.
अग्रवाल जी ने अपनी लेखनी चलाई है। शोध संदर्भ के 6 भाग आपने संपादित किये है, जो
हिंदी के शोध छात्र-छात्राओं के लिए बहुत उपयोगी हैं। आपकी प्रमुख पुस्तकें हैं
हमारे रणबांकुरे (1966), सन्नाटे की गूंज (1987), नीली आंखें और अन्य एकांकी (1994), जिज्ञासा और अन्य कहानियां (1944), बाबू झोलानाथ (1994), समय एक नाटक (1994), भीतर शोर बहुत है (1996), राजनीतिक में गिरगिट वाद (1997), बच्चों के रोचक नाटक (1999), मानवाधिकार दशा और दिशा (1998), भारत के गौरव (1999), मौसम बदल गया (1999), रोशनी बनकर जियो (2003), अक्षर हूं मैं (2008), मेरी हास्य-व्यंग्य कविताएं (2008), संपादित पुस्तकें तीर और तरंग (1964), तुलसी मानस संदर्भ (1974), सूर साहित्य संदर्भ (1976), काका हाथरसी अभिनंदन ग्रंथ (1996) आदि डॉ. अग्रवाल ने साहित्य की सभी
विद्याओं में दिल खोलकर लिखा है और खूब लिखा है सभी का उल्लेख करना यहां संभव नहीं
है। अंत में बस मैं यही कहना चाहूंगी कि डॉक्टर अग्रवाल बहुमुखी प्रतिभा के धनी, परिश्रमी, लगनशील और हिंदी के प्रति समर्पित हैं
और बिजनौर के साथ-साथ हमारे देश का गौरव है। आप को उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान के
साहित्य भूषण सम्मान प्राप्त है। श्रीमती रतन शर्मा बाल साहित्य पुरस्कार (1999), आओ अतीत में चलें पुस्तक पर उत्तर
प्रदेश संस्थान का सूर पुरस्कार (2001), राष्ट्र धर्म गौरव सम्मान (2005), उत्तर प्रदेश संस्थान लखनऊ द्वारा साहित्य भूषण सम्मान (2008), केंद्रीय हिंदी संस्थान शिक्षा
पुरस्कार (2008)। हरियाणा साहित्य एकादशी आजीवन
साहित्य साधना सम्मान 2017 में प्राप्त हुआ बाल साहित्यकार डॉ. अजय जनमेजय
बाल
साहित्यकार डॉ. अजय जनमेजय पेशे से चिकित्सक लेकिन बाल साहित्यकार के रूप में अपनी
एक अलग पहचान रखने वाले डॉ. अजय जनमेजय का जन्म तो हस्तिनापुर (मेरठ) 1955 में हुआ था, लेकिन उनकी कर्मस्थली बिजनौर जनपद ही
रहा। चिकित्सक के रूप में वे जितने सफल हैं, बाल
साहित्यकार के रूप में भी उतने ही सफल। जनसामान्य के बीच अपने पूर्ण समर्पण के साथ
सेवा करने वाले डॉ. साहब के अंदर एक पूर्ण साहित्यकार बसा है। आश्चर्य होता है कि
एक डॉक्टर और साहित्यकार तो इसका समाधान स्वयं डॉ. साहब दे देते हैं- ‘सच-सच कहूं तो कविता मुझे पारिवारिक
विरासत में नहीं मिली। पिता चौ. वीरेंद्र सिंह वन विभाग में अधिकारी थे और माता जी
पूर्ण रूप से एक गृहस्थ महिला हैं। साहित्य के कीटाणु मुझमें कब और कैसे प्रवेश कर
गये, यह प्रश्न जब भी मेरे सामने आता है, मेरे सामने उस छोटे से बालक की छवि उभरने
लगती है, जिसकी उंगली थामकर उसके पिता चौ.
वीरेंद्र सिंह कवि- सम्मेलनों, मुशायरों, काव्य-गोष्ठियों तथा समय-समय पर आयोजित
होने वाली साहित्यक सभाओं में ले जाया करते थे। वे साहित्यकार नहीं थे, किंतु आम लोगों से अधिक साहित्यप्रेमी
थे। संभवतः वहीं से मुझमें साहित्य सृजन की प्रवृत्तियां विकसित होनी आरंभ हुईं
होंगी।‘ (10) तब से आरंभ हुई डॉ. साहब की यह साहित्य यात्रा आज भी अनवरत रूप से
जारी है। सन 1995 में आपका पहला $गजल संग्रह ‘सच सूली पर टंगने हैं‘ प्रकाशित हुआ। ‘तुम्हारे बाद‘ (गजल संग्रह) 1988, ‘अक्कड़-बक्कड़ हो हो हो‘ बालगीत संग्रह 1998, ‘हरा समुन्दर गोपी चंदर‘ 2003, बाल कविता संग्रह ‘नन्हे पंख ऊंची उड़ान‘ 2005 में प्रकाशित हुई। डॉ. साहब की
साहित्यक उपलब्धियों को साहित्य जगत ने हाथों हाथ लिया और प्रतिष्ठित सम्मानों से
इन्हें नवाजा गया। जिनमें कुछ पुरस्कारों के नाम यहां प्रस्तुत हैं- भारत
एक्सीलेंसी अवार्ड (1998),
राष्ट्रीय बाल युवा कल्याण संस्थान
मध्य प्रदेश 1999, सोहनलाल द्विवेदी बाल साहित्य पुरस्कार
(राजस्थान 1999) आदि। डॉ. साहब के लेखन में सृजनात्मकता
का क्रमबद्ध विकास हुआ है। बाल साहित्यकार के रूप में डॉ. साहब बड़ी निष्ठा और लगन
से बाल साहित्य की मशाल जलाये हुये हैं। बच्चों के मन को पढने के लिये मन भी
बच्चों की तरह निश्छल होना चाहिए, तो
मैं यहां कहूंगी कि डॉ. साहब का स्वभाव बच्चों की तरह ही निश्छल है। डॉ. साहब की
भाषा भी ऐसी है, जो बच्चों को अपनी ओर आकर्षित करती है।
उनके बाल संग्रह के नाम ही देखिये ‘अक्कड़-बक्कड़ हो-हो-हो‘ या
‘हरा समुंदर गोपी चंदर‘ अर्थात डॉ. साहब बच्चों से बच्चों की
भाषा में ही बात करते हुए नजर आते हैं और यही उनके बाल साहित्य की सबसे बड़ी
विशिष्टता है, जो उन्हें अन्य बाल साहित्यकारों से
बड़ा सिद्ध करती है। डॉ. साहब बहुआयामी प्रतिभा के धनी हैं। एक चिकित्सक का कार्य
अपने आप में ही कितना चुनौतीपूर्ण होता है और फिर साहित्य सृजन दोनों में ही डॉ.
साहब को महारथ हासिल है और ये जनपद बिजनौर की माटी ही है कि जो भी यहां आता है वह
यहीं का हो जाता है, भले ही डॉ. साहब का जन्म हस्तिनापुर
में हुआ हो, लेकिन वे आज जनपद बिजनौर की पहचान
हैं। के.एस. तूफान
के.एस.
तूफान एक ऐसा नाम है, जो समाज के सबसे शोषित और वंचित वर्ग
से आता है। आपका जन्म 1944 में जनपद बिजनौर के भनेड़ा गांव में
हुआ था। आपकी रुचि साहित्य और पत्रकारिता के प्रति छात्र जीवन से ही थी। के.एस.
तूफान का लघु कथा संग्रह 1986 कहानी संग्रह ‘स्वप्न भंग‘ 1987 और लघुकथा संग्रह ‘टूटते संवाद‘ 1991 में प्रकाशित हुए। नारी संबंधी विषयों
पर के.एस. तूफान की लेखनी खुलकर चली है। इतिहास के संदर्भों से लेकर आज तक के
समूचे काल खण्ड को तूफान जी ने नारी के अंतर्मन में झांकने का प्रयास किया है।
नारी: तन, मन गिरवी कब तक? पुस्तक में तूफान जी ने नारी को
विभिन्न रूपों में संजोया है। शोषित वर्ग का प्रतिनिधि यह लेखक साहित्य और
पत्रकारिता दोनों में अपनी एक विशिष्ट पहचान रखता है। बिजनौर टाइम्स एवं सांध्य
दैनिक चिंगारी के संपादकीय विभाग से भी आप जुड़े रहे। 1986 में के.एस. तूफान को ‘आचार्य पदम सिंह शर्मा‘ पुरस्कार भी प्राप्त हुआ। साहित्य
उर्वरा, जनपद बिजनौर की धरती का प्रतिनिधित्व
करती तूफान की लेखनी ने जो लिखा है वह सचमुच ही उनके योगदान को साहित्य जगत में
रेखांकित करने वाला है।
राजगोपाल सिंह गजलकार एवं गीतकार के सशक्त
हस्ताक्षर राजगोपाल सिंह का जन्म एक जुलाई 1947 को
जनपद मुख्यालय बिजनौर में हुआ। आपकी शिक्षा प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक
बिजनौर में ही हुई। केंद्रीय सेवाओं में कार्यरत होने के कारण आप अनेक जगह पर रहे।
तिब्बत के पहाड़, बर्फ, चिनार, कल-कल करते झरने, नीमा नाम की एक बाल विधवा, धोली गंगा (पहाड़ी नदी), घुघटी (पहाड़ी पृथ्वी) आदि ने आपके अंदर
छिपे कवि और गीताकर को मुखरित कर दिया। राजगोपाल सिंह के तीन गज़ल संग्रह प्रकाशित
हो चुके हैं- ‘जर्द पत्तों का सफर‘, ‘खुशबुओं की यात्रा‘ और ‘बरगद को सबने देखा है‘, ‘परवाज‘ शीर्षक से आपकी कविताओं का कैसेट भी
जारी हो चुका है। ‘हिंदी की चर्चित गजलें‘ पुस्तक का संपादन भी आपके द्वारा ही
हुआ है। ‘उदधिमंथन‘, ‘सोचिये मत‘, ‘पालम टाइम‘ और (सारंग) जैसी पत्रिकाओं के संपादन
से भी आप जुड़े रहे। आपकी गज़ल की दो पंक्तियां - गांव के मीठे कुएं पाट दिये क्यों
हमने इसका अहसास हुआ, प्यास से जब होंठ जले। (11)
चरण
सिंह सुमन
साहित्यिक
की अनेक विधाओं के रचयिता श्री चरण सिंह सुमन का जन्म 1926 को महावतपुर जनपद बिजनौर में हुआ था।
चरण सिंह सुमन ने स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय भूमिका निभाई। अनेक बार जन आंदोलन
में सत्याग्रह कर जेल यातनायें सहीं। आपापतकाल में भी दो वर्ष का कठोर कारावास
सहा। आपको डॉ. राममनोहर लोहिया, महात्मा
गांधी, आचार्य विनोबा भावे आदि महान विभूतियों
का सानिध्य प्राप्त हुआ। आपकी लेखनी साहित्य की अनेक विधाओं- दोहे, गीत गजल एवं विचारात्मक लेखों में खूब
चली। बिजनौर जनपद के स्वतंत्रता सेनानियों के जीवन वृत्त आपकी बहुत ही महतवपूर्ण
कृति है। आपने ‘सोशलिस्ट‘, ‘संयुक्त धारा‘, ‘रक्त धारा‘ आदि पत्रों का संपादन भी किया। आप समाज
में व्याप्त विसंगतियों, कुरीतियों तथा देश की स्वतंत्रता के
लिये कुछ करने हेतु हमेशा तत्पर रहे।
हरिपाल त्यागी चित्रकार, पत्रकार, कथाकार, कवि संपादक हरिपाल त्यागी का जन्म
ग्राम महुआ 1934 को जनपद बिजनौर में हुआ था। त्यागी जी
सब में थे, सबके अपने, हर किसी से बड़ी प्रफुल्लता से या यूं
कहूं दोनों बाहें फैलाकर मिलते थे। सबको यही लगता था वे मेरे अपने हैं, अपने सबसे करीब। आपनेगद्य की लगभग सभी
विधाओं में लेखन किया है। कहानी, कविता, आत्मकथा, व्यंग्य, उपन्यास, बाल साहित्य आदि, ‘अधूरी
इबारत‘(आत्मकथा), ‘महापुरुष‘, ‘आदमी से आदमी तक‘ (व्यंग्य), ‘ननकू का पाजामा (उपन्यास)‘, ‘सुबह का गायक‘, ‘चमकीला मोती‘, ‘स्पाटकिस का रूपांतरण‘,
‘अमरफल‘ (बाल साहित्य)। आपको उ.प्र. साहित्य
परिषद द्वारा कलाभूषण सम्मान 2007, नई
धारा रचना सम्मान 2007 प्राप्त हुआ। हरिपाल त्यागी शब्दों और
रंगों के जादूगर थे। आपने बच्चन के काव्य संग्रह के इतने खूबसूरत चित्र बनाये कि
उन्हें देखकर ही आप बचपन की सार्थकता महसूस करने लगेंगे।
डा. मीना अग्रवाल
डा.
मीना अग्रवाल लेखन एवं संपादन को समर्पित महिला है। आप पेशे से प्राध्यापिका रही
है। डा. मीना अग्रवाल का जन्म 1947 को
उत्तर प्रदेश के प्रसिद्ध शहर हाथरस में हुआ था, लेकिन आपकी कर्मस्थली जनपद बिजनौर ही रहा। आपका कहानी संग्रह ‘अंदर धूप, बाहर धूप‘ में 24 कहानियां संकलित हैं, जो
सच है (हाइकु संग्रह) सफर के साथ-साथ (मुक्तक संग्रह) यादें बोलती हैं। (कविता
संग्रह) आप निरन्तर हिन्दी की सेवा में संलग्र है। 2023 में ही आपकी आत्मकथा ‘मैं मीना‘ आयी है।
विशाल भारद्वाज
विशाल
भारद्वाज एक प्रसिद्ध संगीतकार, गीतकार, पटकथा लेखक और फिल्म निर्देशक हैं।
उन्हें ‘गॉडमदर‘ और ‘इश्किया‘ फिल्म के लिये सर्वश्रेष्ठ संगीत के राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से
सम्मानित किया जा चुका है। विशाल भारद्वाज का जन्म जनपद बिजनौर के नगर चांदपुर में
चार अगस्त 1965 को हुआ था। उनके पिता राम भारद्वाज एक
सरकारी कर्मचारी थे और साहित्य के प्रति उनकी बहुत रूचि थी। वे कवितायें और फिल्मी
गाने भी लिखा करते थे। हालांकि वे यह सब बस अपने शौक के लिये करते थे। विशाल की
प्रारंभिक शिक्षा बिजनौर में हुई और स्नातक की पढ़ाई आपने दिल्ली विश्वविद्यालय से
प्राप्त की। विशाल भारद्वाज को संगीत में रुचि बचपन से ही थी। कॉलेज के समय से
उन्होंने लिखना शुरू कर दिया। शुरुआती दौर में उन्होंने एक म्यूजिक रिकॉर्डिंग
कम्पनी में भी काम किया। यहीं उनकी मुलाकात गुलजार साहब से हुई। गुलजार के साथ
उन्होंने ‘चड्ढी पहन के फूल खिला है‘ की रिकॉर्डिंग की। विशाल भारद्वाज ने
अपना सफर गुलजार साहब के साथ मिलकर छोटे पर्दे पर ‘द जंगल बुक‘,
‘एलिस इन
वंडर्लैंड‘ और ‘गुब्बारे‘ के साथ शुरू किया। इसके बाद गुलजार
निर्देशित फिल्म ‘माचिस‘ में अपना संगीत दिया। इस फिल्म के गाने इतने हिट हुए कि विशाल
रातोरात सुपरस्टार बन गये। इस फिल्म के लिये उन्हें 1996 में फिल्म फेयर आरडी बर्मन पुरस्कार
से सम्मानित किया गया। 1999 में आयी ‘गॉडमदर‘ फिल्म के लिये विशाल को श्रेष्ठ संगीत का रार्ष्ट्रीय पुरस्कार भी
मिला। वर्ष 2011 में एक बार फिर फिल्म इश्किया के लिये
उन्हें यह पुरस्कार प्राप्त हुआ। विशाल भारद्वाज द्वारा निर्देशित पहली फिल्म ‘मकड़ी‘ थी। इसके बाद उन्होंने शेक्सपीयर के नाटक मेकवेथ पर आधारित फिल्म ‘मकबूल‘ बनाई। ‘मकबूल‘ को बर्लिन फिल्म समारोह सहित कई अंतर्राष्ट्रीय समारोह में जगह मिली।
2006 में विशाल भारद्वाज ने शेक्सपीयर के
नोबल (ओथोलो) पर आधारित फिल्म ‘ओमकारा‘ निर्देशित की। विशाल भारद्वाज ने फिल्म
निर्देशन और पटकथा लेखन के साथ-साथ फिल्मों के संवाद भी लिखे। ‘ओमकारा‘ के लिये विशाल भारद्वाज को राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार समिति का विशेष
पुरस्कार प्राप्त हुआ। रस्किन उपन्यास पर आधारित बच्चों के लिये ‘द ब्लू अम्ब्रेला‘ का निर्देशन किया। वर्ष 2009 में उनकी फिल्म ‘कमीने‘ प्रदशर््िात हुई। वर्ष 2010
में आयी अभिषेक चौबे निर्देशित फिल्म ‘इश्किया‘ जिसका निर्माण, संवाद और पटकथा, लेखन विशाल भारद्वाज ने किया था, जिसके लिये उन्होंने सर्वश्रेष्ठ
संगीतकार और उनकी पत्नी रेखा भारद्वाज को सर्वश्रेष्ठ गायिका का राष्ट्रीय
पुरस्कार मिला। विशाल भारद्वाज मुंबई एकेडमी ऑफ मूविंग इमेज के बोर्ड सदस्य हैं।
विशाल भारद्वाज मुंबई फिल्म इंडस्ट्री का ऐसा नाम हैं, जिसके बिना मुंबई इंडस्ट्री पूर्ण नहीं
होती।
दानिश
जावेद...........................
संदीप नाथ
संदीप नाथ एक भारतीय फिल्म निर्देशक, पटकथा लेखक, गीतकार और फिल्म निर्माता हैं। संदीप
नाथ का जन्म इलाहाबाद (उत्तर प्रदेश) में एक 1966 को
बंगाली परिवार में हुआ था। संदीप नाथ की शिक्षा जनपद बिजनौर के धामपुर नगर से हुई।
बम्बई जाने तक ये धामपुर में ही रहे ओर यहीं से इनका लेखन आरम्भ हुआ। संदीप नाथ ने
लिखना कविता से आरंभ किया था और आपकी पहली कविता लोकप्रिय सांध्य दैनिक ‘चिंगारी‘ में प्रकाशित हुई थी। ‘मुझको
कुछ भी नाम दो‘ तथा
‘दर्पण अब भी अंधा है‘ नाम से आपके दो काव्य संग्रह प्रकाशित
हो चुके हैं। संदीप नाथ को पत्रकारिता का बेहद शौक है और उनका यह शौक आज भी जारी
है। संदीप नाथ 12 वर्ष की आयु से कवितायें लिख रहे हैं।
संदीप नाथ ने बतौर गीतकार के रूप में हिन्दी फिल्मों में पदार्पण किया। आपके
द्वारा लिखा गया ‘आशिकी 2‘ का गीत ‘सुन रहा है ना तू मेरे खुदा‘ ने बहुत ख्याति प्राप्त की। संदीप नाथ
जी ने न केवल पड़े पर्दे के लिये ही लिखा बल्कि छोटे पर्दे के कई टाइटल टै्रक के
बोल भी लिखे। जिनमें ‘एक घर बनाऊंगा‘,
‘हमारी
देवरानी‘, ‘अफसर बिटिया‘ आदि शामिल हैं।
प्रोफेसर
देवराज
मणिपुर
विश्वविद्यालय इम्फाल (मणिपुर) में प्रोफेसर एवं मानविकी संकाय के अधिष्ठाता रहे।
प्रोफेसर देवराज का जन्म नजीबाबाद तहसील में 1955
में हुआ था। साहू जैन महाविद्यालय से आपने साहित्य में शिक्षा प्राप्त की। कविता
समालोचना, साहित्य इतिहास, लोक साहित्य, हिन्दी प्रचार-प्रसार आंदोलन पर
केन्द्रित आपका लेखन एवं संपादन है। ‘चिनार‘ आपकी ख्याति प्राप्त रचना है। अन्य
रचनायें ‘विक्षुब्ध‘, ‘वर्तमान‘, ‘पदचिन्ह बोलते हैं‘, ‘लेबरी‘, ‘मचान‘, ‘कबीर जिंदा हैं‘, ‘कभी
जुबां कटी नहीं‘, ‘आज की कविताएं‘, ‘बीसवी शती‘ आदि प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं में
प्रकाशित हुई हैं। आपका मौलिक लेखन जहां हिन्दी को समृद्ध करना है, वहीं हिन्दी के विकास और विस्तार के
लिये आपने पूर्वांचल में बहुत ही प्रशंसनीय कार्य किया है। आपको अनेक सम्मान भी
प्राप्त हुए हैं। जिनमें प्रमुख हैं- माता कुसुमकुमारी हिन्दीतर भाषी हिन्दी साधक
सम्मान और हिन्दी भाषी क्षेत्र से निकलकर अहिन्दी भाषी क्षेत्रों में हिन्दी के
लिए काम करना प्रोफेसर देवराज जैसा व्यक्ति ही कर सकता है। जो पूर्ण रूप से हिन्दी
के संवर्द्धन के लिये समर्पित है।
प्रो. अरुण देव
प्रो.
अरुण देव एक ऐसा नाम है, जिसने ‘समालोचन‘ पत्रिका के माध्यम से साहित्य, संस्कृति और समाज से जुड़े विभिन्न
मुद्दों को आमजन तक पहुंचाया और हिन्दी साहित्य प्रेमियों को नई ऊर्जा प्रदान की।
प्रो. अरुण देव का जन्म 1972 में उत्तर प्रदेश के कुशीनगर में हुआ
था, लेकिन 2004 से वे साहू जैन कालेज में हिन्दी के प्रोफेसर हैं। अरुण देव जी की
कर्मस्थली जनपद बिजनौर का नजीबाबाद नगर है, जहां
से साहित्य सृजन के साथ-साथ हिन्दी के अभिनव विकास के लिए विद्यार्थियों और समाज
को प्रोत्साहित कर रहे हैं। डिजिटल माध्यम से हिन्दी को समृद्ध बनाने में वेब
पत्रिका ‘समालोचन‘ ने विश्व स्तर पर अपनी पहचान बनाई है। तीन कविता संग्रह भी देव जी के
प्रकाशित हो चुके हैं। काव्य सृजन में आपको मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार प्राप्त हुआ
है। मुम्बई विश्वविद्यालय ने समालोचन को अपने पाठ्यक्रम में शामिल किया है। प्रो.
अरुण देव आज न केवल भारत वर्ष में अपितु अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बना
चुके हैं और निरंतर साहित्य साधना में लीन हैं।
प्रो.
अमित सिंह
प्रोफेसर
अमित सिंह का नाम साहित्य के क्षेत्र में बहुत महत्वपूर्ण है प्रोफेसर अमित सिंह
ने विविध विषयों पर अपनी लेखनी चलायी है। आपकी प्रमुख पुस्तकें हैं-
भारत-पाकिस्तान संबंध एक नवीन परिप्रेक्ष्य, नक्सलवाद:
मुद्दे एवं सरोकार, भूमण्डलीकरण और भारत: परिदृश्य एवं
विकल्प (राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित) अमरनाथ यात्रा: सत्य शिवम सुदंरम्
(राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित) इसके अतिरिक्त आपके लेख समाचार-पत्र और
पत्रिकाओं में निरंतर प्रकाशित होते रहते हैं। आपको अनेक पुरस्कारों से नवाजा जा
चुका है। जैसे- राजीव गांधी पुरस्कार (2011), अज्ञेय पुरस्कार (2016), राहुल
सांकृत्यायन पुरस्कार (2019)
आदि। प्रो. अमित सिंह निरंतर साहित्य
साधना में लीन हैं। आपके साहित्य के विषय सामाजिक सरोकारों से जुड़े होते हैं।
विषय: चाहे वह भारत-पाकिस्तान संबंध हो, नक्सलवाद
के मुद्दे हों या फिर अमरनाथ यात्रा। जनपद बिजनौर की मिट्टी ही कुछ ऐसी है कि इससे
जुड़कर साहित्यकार के अंतर्मन में उमडने-घुमडने वाले भाव भाषा का वाना पहनकर पाठक
तक पहुंच ही जाते हैं।
बिजनौर
की मिट्टी इतना उर्वरा है कि यहां के साहित्यकारों की एक लम्बी फेहरिस्त है। जो
शायद कभी पूर्ण न हो उनमें से कुछ मूर्धन्य नाम और हैं,
श्री
मधुसूदन आन.नद ,डा. महेश दिवाकर, डा. शंकर ‘क्षेम‘, डा. ओमदत्त आर्य, मेघा
सिंह चौहान, डा. प्रेमचन्द जैन, डा. सविता मिश्रा, डा. सरोज मार्कण्डेय, डा. विजयवीर त्यागी, डा. महेश सांख्यधर, डा. बलजीत सिंह, चन्द्रमणि रघुवंशी, अशोक मधुप, डा. गजेन्द्र बटोही, हुड़दंग नगीनवी, डा. रामस्वरूप आर्य, श्रीवत्स सनाढ्य, महेश अश्क, अनिल शर्मा ‘अनिल‘, डा. अशोक नारायण मिश्र, ओमप्रकाश
नदीम, सत्यराज, प्रेमकुमार सडाना, प्रो.
विपिन कुमार गिरि, योगेन्द्र प्रसाद, डा.
वेदप्रकाश शैवाल, जयनारायण अरूण,मुकुल सरल, मनोज अबोध आदि-आदि। जनपद बिजनौर के
साहित्यकार न सिर्फ राष्ट्रीय अपितु अन्तर्राष्ट्रीय फलक पर अपनी पहचान रखते हैं।
प्रस्तुत आलेख में सभी साहित्यकारों के व्यक्तित्व और कृतित्व को रेखांकित करना
संभव नहीं है। मैंने अपना पूर्ण प्रयास किया है कि अधिक से अधिक साहित्यकारों को
अपने आलेख में स्थान दे सकूं। लेकिन मेरी भी अपनी सीमायें हैं कि यह सिर्फ एक आलेख
है शोध ग्रंथ नहीं। अन्त में मैं बस यही कहूंगी कि जिन साहित्यकारों का उल्लेख
मैंने यहां किया है उनमें से बहुत से साहित्यकार ऐसे हैं जो आज भी हिन्दी के
संवर्धन में अपना अमूल्य योगदान दे रहे हैं। बिजनौर साहित्यिक और सांस्कृतिक दोनों
ही क्षेत्रों में ही बहुत समृद्ध है। एक ओर यह जनपद अपने अंचल में महाभारत कालीन
अवशेषों को समेटे है तो साहित्य के क्षेत्र में गजल सम्राट दुष्यन्त कुमार, संपादकाचार्य पंडित रुद्रदत्त शर्मा, पदम सिंह शर्मा, बाबू सिंह चौहान, निश्तर खानकाही को। बिजनौर जनपद की
मिट्टी को मेरा शत-शत नमन,
जिसने ऐसे-ऐसे नायाब हीरों को अपने
अंचल में समेटा हुआ है। जिनकी चमक राष्ट्रीय ही नहीं अन्तर्राष्ट्रीय फलक पर
रेखांकित है।
संकेत 1- पंडित
रुद्रदत्त शर्मा ग्रंथावली (भाग-1)
सं. भवानी लाल भारतीय पृष्ठ 9
2- आचार्य पदम सिंह शर्मा: व्यक्तित्व और
साहित्य सं. बनारसीदास चतुर्वेदी पृष्ठ 02
3-साये में धूप दुष्यन्त कुमार त्यागी पृष्ठ 49
4- पृष्ठ 31
5- पृष्ठ 15
6-दुष्यन्त कुमार त्यागी साये में धूप
पृष्ठ 40
7- आत्मलेख रवीन्द्र नाथ त्यागी पृष्ठ 115
8- पं.हरिदत्त शर्मा पुरस्कार समिति, समर्पण
समारोह पत्रिका पृष्ठ 11
9- शोध दिशा अप्रैल 1997 पृष्ठ 37
10-तुम्हारे बाद: डा. अजय जनमेजय पृष्ठ 05
11- बरगद ने सब देखा है, गजल संग्रह पृष्ठ 04
प्रो. शशिप्रभा रघुवंशी विभागाध्यक्ष-हिंदी वर्धमान कॉलेज, बिजनौर
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