रिफ़अत सरोश
सय्यद शौकत अली , जिनका क़लमी नाम रिफ़अत सरोश था , नगीना , ज़िला बिजनौर ,उत्तर प्रदेश के रहने वाले थे ,परंतु जब उनका 30 नवंबर 2008 देहांत हुआ , तो सारे विश्व में उर्दू भाषा तथा साहित्य का एक चमकता हुआ सितारा थे। सोवियत यूनियन हो , इंग्लैंड हो या इराक़ , हर जगह से बुलावे आते ,वह जाते और ख़ूब दाद पाते। विश्व भर में भारतवर्ष का नाम ऊँचा करते। उनका नाम आज भी साहित्य के संदर्भ में बड़े आदर से दोहराया जाता है। स्वर्गीय रिफ़अत सरोश का नाम हमारे दौर के उन विश्व प्रसिद्ध कवियों तथा लेखकों में गिना जाता है जिन्होंने उर्दू-हिन्दी को जीतेजी संवारा और रहती दुनिया तक उनका साहित्य आने वाली नस्लों का मार्ग दर्शन करता रहेगा। उन्होंने ना सिर्फ़ कविता करी, बल्कि ड्रामें लिखे ,ऑपेरा लिखे , लेख लिखे, अखबारों में कॉलम लिखे , रेडियो फीचर और संगीतमय ड्रामे; बस यूँ कहिये कि हर साहित्यिक गोशे में अपना क़लम चलाया। आल इंडिया रेडियो से ३९ वर्ष की लम्बी अवधि तक समाज को सम्बोधित तथा अच्छी बातें सूचित करते रहे। उनकी पाँच पुस्तकें मूलतः देवनागरी में प्रकाशित हुई जिन में “रंगमंच के पाँच रंग”, “अँधेरे उजाले के बीच”, “रेत की दीवारें”,उल्लेखनीय हैं।उनकी बहुत सी कृत्यां अनुवादित भी की गई। कुछ कवितायेँ स्कूली पुस्तकों में स्थान प्राप्त कर चुकीें हैं। पचपन प्रकाशित पुस्तकों के लेखक, इनमें ड्रामे, ऑपेरा, नज़में, गीत – ग़ज़ल,आत्मकथा, सभी कुछ तो है । लगभग पचास अवॉर्ड्स, छोटे-बड़े सभी सम्मान जिनमें सोवियत लैंड नेहरु अवॉर्ड, इक़बाल सम्मान, हमसब अवॉर्ड आदि शामिल हैं, रिफ़अत सरोश को अपनी साहित्यिक गतविधियों के लिए प्रदान किये गए। उनके जीवनकाल में ही दो विश्वविद्यालयों में विद्वानों द्वारा उन पर शोध कार्य किया गया।
एक छोटे से लेख में, ऐसे साहित्यकार के लेखन के हर आयाम पर दृष्टि डालना असंभव है। तो आइए यह देखते है कि स्वर्गीय रिफ़अत सरोश की कविताओं में सामाजिक अक्स कहाँ कहाँ झलकता है।
दो जनवरी 1926 का जन्म , 82 साल का लम्बा सफ़र जो ३० नवम्बर २००८ को समाप्त हो गया। पहली ग़ज़ल बारह साल की कच्ची उम्र में 1938 कह डाली , और यह सिलसिला मरणशय्या तक चलता रहा। ऊँचा क़द, मज़बूत काठी, गहरा रंग, घने-घुंगराले बाल, चहेरे पर मुस्कुराहट, हमेशा साफ़ कपड़े ; चाहे पैंट-शर्ट, सूट-टाई हो या अचकन और उरेबी पजामा । इत्र उन्होंने कभी नहीं लगाया, मगर मैंने हमेशा उनमें से भीनी-भीनी ख़ुशबु महसूस की। रिफ़अत सरोश चौड़ी काठी के थे हाथ भी चौड़े – चौड़े, भरे-भरे और इन्तेहाई मुलायम । नाख़ून भी बड़े-चौड़े और हमेशा सलीक़े से चाँद जैसी गोलाई में कटे हुए ।
स्वर्गीय रिफ़अत सरोश का नाम बड़े साहित्यकारों में शायद इसलिए भी गिना जाता है कि वह , आज के बारे में , आज की बात करते थे। इतिहास पर बड़ी गहरी पकड़ थी उनकी। जो भी लिखते थे उसे इस लम्हे से जोड़ देते थे। उनकी कविताओं में संगीतमयता है। उदाहरण देखिये :
“नई हयात के नक़्शे बना रहे हैं हम ,
नई बहार के पर्चम उड़ा रहे है हम। …………
हमारा अज़्म है मोहकम् क़सम हिमाला की ,
हमारा दिल है गुलिस्तां क़सम अजन्ता की,
हमारा ज़हन शगुफ़्ता क़सम एलोरा की ,
कमाल – ए -फन के करिश्में दिखा रहे है हम”…
रिफ़अत सरोश और उन की पत्नी सबीहा मुंबई और फिर दिल्ली की साहित्यिक गतिविधियों का एक महत्वपूर्ण हिस्सा थे ।सबीहा सरोश हाशमी, का व्यक्तित्व ही कुछ ऐसा था कि जिस कमरे में दाख़िल हो जाएं, वो कमरा रौशन हो जाए । अच्छा ख़ासा क़द , गोरा रंग, घने – घुँघराले बाल ( जो बैगर रंग लगाए हमेशा काले रहे, बावन साल की उम्र तक यानि जब तक वो जीई ), बड़ी-बड़ी रोबीली बोलती हुई आँखें, हमेशा काजल से भरी, भरे – भरे होठ गुलाबी लिपस्टिक से सजे ।सलीक़े से बंधीं साड़ी में सजीली मोहतरमा साहित्यिक महफिलों और मुशायरों में दूसरी पंग्ति में बैठना पसंद करती थीं। रिफ़अत सरोशकी सब से अच्छी साथी और सब से बड़ी आलोचक थीं सबीहा। रिफ़अत सरोश जब भी कुछ लिखते थे, चाहे छोटी सी कविता हो या “पानीपत” जैसी तवील नज़्म, सबसे पहले सबीहा को ही सुनाते थे ।
बहुत कम लोग इस सत्य से परिचित हैं कि रिफ़अत सरोश को चित्रकारी का बड़ा शौक़ था। विशेषकर बेलबूटे बनाने का। उनकी कविताओं में से समाज जैसे झाँकता है। शब्द समाज की अक्कासी करते है।
“एक छप्पर का घर”
एक छप्पर का घर, नीम के साये में;
ऊँघता है धुंधलके में लिपटा हुआ;
शाम का वक़त है, और चुल्हा है सर्द I
सहन में एक बच्चा बरहना बदन;
बासी रोटी का टुकड़ा लिए हाथ में;
सर खुजाता है, जाने है किस सोच में I
और उसारे में आटे की चक्की के पास;
एक औरत परेशान ख़ातिर, उदास;
अपने रुख़ पर लिए ज़िन्दगी की थकन;
सोचती है कि दिन भर की मेहनत के बाद—
आज भी रुखी रोटी मिलेगी हमें I
तुम हिक़ारत से क्यूँ देखते हो इसे
दोस्त यह मेरे बचपन की तस्वीर है ॥
इस छोटी सी कविता में तस्वीर देखिए- शीर्षक है
“शक्ल”
शक्ल औरत की, जिस्म मछली का
कान मौहूम, आँख में इबहाम
खोखले सर पे सिर्फ़ बाल ही बाल
दिल में पैबस्त है दिमाग़ उसका ॥
रिफ़अत सरोश प्रोग्रेसिव राइटरस मूवमेन्ट से बड़ी घनिष्टता से जुड़े रहे। उनकी आत्मकथा “पत्ता पत्ता बूटा बूटा ” में इसका सजीव विवरण है।बलराज साहनी, कैफ़ी आज़मी ,अख़्तर उल ईमान , सरदार जाफरी , बाक़र मेहंदी के साथी थे रिफ़अत सरोश। देश प्रेम तथा समाज का मार्ग दर्शन उनके हृदय के बहुत समीप था। लोगों को उनका अधिकार दिलाने के लिए वह जान लड़ा देते थे।
उनकी एक कविता है –“शहीदों का लहू जाग उठा” उसकी क़ुछ पंक्तियाँ देखिये –
क़ला -ए -सुर्खे की दीवारों , दर -ओ-बाम-तमाम
पूछते हैं की यहाँ जश्न -ए – हसीं कैसा है ?
इन से कह दो की शहीदों का लहू जाग उठा। .
मनुष्य से प्रेम, महिलाओं तथा बच्चों से सदभावना , समाज की कुरीतियों से घृणा रिफ़अत सरोश के जीवन का उदेश्य था। उनका एक शेर है –
“सर- ब- सर एक पैकर -ए- इख़लास है रिफ़अत सरोश
तुम कभी कुछ रोज़ उसके साथ रहकर देखना”।
मेरा यह सौभाग्य था कि अपनी पहली साँस मैंने रिफ़अत सरोश के पास ली , और उनकी अंतिम साँस तक मैं उनके पास थी। उनको बत्तमीज़ी से बहुत घृणा थी। समाज में बढ़ते हुए आक्रोश से वह बहुत दुखी रहते थे। उनकी एक कविता –
“हमारी दुनियाँ”
ठोस शक्लें,
ईंट, पत्थर,
मुनहनी दीवार और बे – सायबाँ ,
ख़ुशक रोटी, गोश्त, छीछड़ी हड्डियाँ।
ठोस बातें ,
भूक, बेकारी, बिलखती आत्मा।
बीच चौराहे पे बिकते;
जिस्म -ओ- जाँ की दास्तां,
चीख़ती मजबूरियाँ।
इन्क़लाब-अंगेज़ आवाज़ें।
दहकता शोर- ओ – ग़ोग़ा –
अल्लमा ………!
हमारे समाज का एक बड़ा भाग होते है नवयुवक। रिफ़अत सरोश को समाज के इस भाग को प्रोत्साहित करने का बड़ा शौक़ था। वो कहा करते थे की बच्चे ख़ुदरौ पौधे होते हैं। उन्हें ख़ूब हवा पानी दे कर छोड़ दो। हवा पानी से तात्पर्य था; अच्छे संस्कार। अपने व्यक्तित्व तथा किरदार के बल पर उन्होंने कम अज़ कम तीन नस्लों पर अपनी छाप छोड़ दी। कोई काम कीजिए ज़रा सी हिम्मत कीजिए और रिफ़अत सरोश आप की होसला अफ़ज़ाई करने को तैयार। ऐसा मार्गदर्शन करते थे कि स्वाभाविकतः ही मेहनत करने को मन चाहता था। मुझे विश्वास है कि मेरे बहुत से साथी लेखक तथा पत्रकार मेरी इस बात से सहमत होंगे।
रिफ़अत सरोश की इस कविता में कितनी सुन्दर इच्छा है –
रात ढलने लगी , नींद आने लगी। …
उँगलियों से क़लम छूट जाने को है।
मौत आवाज़ देने लगी है मुझे।
कोई है , इस क़लम को जो गिरने न दे ?
इस अमानत को ,जो नस्ल-ए- आदम की मीरास है ,
मुझ से लेकर नई नस्ल को सौंप दे ?
हमारी पीढ़ी तथा आने वाली पीढ़ियाँ रिफ़अत सरोश जैसे लेखकों का मार्गदर्शन ग्रहण कर के देश और समाज को उन्नति के पथ पर अग्रसर कर पाएँगी। स्वर्गीय रिफ़अत सरोश के प्रति यही सच्ची श्रद्धांजलि है।
His real name was Sayed Shaukat Ali. He belonged to a learned family of Nagina, District Bijnor, Uttar Pradesh. He was born in 1926 and received his early education from his eldest brother Mulana Sayed Mumtaz Ali, a “Fazil” from Deoband. His poetic pursuit was inspired and encouraged by another elder brother Sayed Ishtiaq Ali ‘shauq’. He started writing poetry and getting recognition at a very early age. Soon after his first degree he moved to Mumbai where he was literally handpicked by Sayed Bukhari to work in All India Radio primarily because of his golden voice and Urdu verses and lyrics. He joined AIR in 1945 and retired from active service of AIR in 1984. He was a popular voice and an excellent Radio producer. His first book was published in 1963 and when he breathed his last on November 30, 2008 his 56th book was in press. These books contain short poems, lyrics, epic poems, Radio plays, Radio features, verse plays, Dance-dramas, Operas, Ballets, Assays and Autobiography. He not only wrote in various genres but also produced Radio features etc. and his operas and verse plays where staged by Bhartiya kala Kendra, Kathak Kala Kendra, Theatre Group ‘Geetika’ and Uma Sharma Dance School Bhartiya Sangeet Sadan, only to name a few.
Janab Rifat Sarosh was widely popular and still being read and appreciated by lovers of art and literature. He was well versed with the communicative potential medium which drew heavily from the common heritage of Urdu and Hindi. Arabic-Persian traces in his writings witness his habit of avid reading and composite cultural attitude. He was endowed with a fine ear for music. A rhythmic quality of words and keen stage sense were his special qualities. He was an integral part of Progressive Writers always serving the society and the country. Patriotic poetry and speeches by him at the appropriate time inspired the people. He did a great service to the nation through his poetry and All India radio broadcasts especially during foreign aggressions.
He always encouraged upcoming artists, writers, students, scientists, painters with his advice, personal and material help as and when required.
He was invited by poetry lovers all over the world and bestowed with Honors by Government of India and various other countries like erstwhile USSR, United Kingdom, Iraq etc. At the time of his sad demise some 40 to 50 awards, scrolls of Honors, shields of recognition, medals etc. sitting on his living room shelves alongside 55 books written by him spelt the 82 years of his life. His lifelong social commitment, dedication and sustained work in the field of Indian Literature and encouragement of upcoming talents will keep his name alive in annuls of history.
By – Shaheena Khan
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