कव्वाली से जलालाबाद को मिली अंतरराष्ट्रीय पहचान
कब्बाली से जलालाबाद को मिली अन्तर्राष्ट्रीय पहचान - खुदा, ईश्वर तक पहुंचने का जरिया है कब्बाली - संगीत के साथ जुड़ने से कब्बाली हुई लोकप्रिय
ग़ज़ल हो या शेर(कोल)को संगीत के साथ प्रस्तुत करने की विधा को कव्वाली कहा जाता है और किसी के सच्चे शेर (कोल )को प्रस्तुत करने वाला कव्वाल कहलाता है। बिजनौर जनपद के कस्बा जलालाबाद के कब्वाल परिवारों ने अपनी उम्दा कव्वालियों ने अन्तर्राष्ट्रीय पहचान बनाई है। आज राष्ट्रीय व अंतराष्ट्रीय मंच पर जलालाबाद के कव्वाल छाएं हुए हैं। चार पीढियों से चली आ रही कव्वाली विधा आज कई परिवार की रोटी रोटी बन गई है।
कस्बा जलालाबाद को नबाब जलालुद्दीन ने बसाया था। आजादी के बाद बस्ती को नगर पंचायत परिषद का दर्जा मिला। 20 हजार की आबादी वाले नगर में चार पीढियों से कव्वाल की विधा को अपनाकर रोजी रोटी से जोड़ा गया है वर्तमान में पांचवीं पीढ़ी इस फन को देश विदेश में जलालाबाद को पहचान दिला रही है।
कव्वाल का जन्म अरबी शब्द कोल से मिला है। खुदा, ईश्वर के नाम का उच्चारण सूफियाना अंदाज में संगीत के साथ प्रस्तुत करने की कला कव्वाली कहा जाता है। वैसे 13वीं शताब्दी से सूफी संत अमीर खुसरो को कव्वाली का जनक माना जाता है। भारत में 800 वर्ष पहले कव्वाली का पदार्पण माना गया है। अजमेर स्थित हजरत ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह से ट को लोकप्रियता मिली। ट को खुदा, ईश्वर तक पहुंचने का एक जरिया माना जाता है। कव्वाल को इबादत व भक्ति भी माना जाता है। कहां जाता है कव्वाल में सबसे पहले मुरशिदे कामिल( सच्चा गुरु) का होना जरूरी है उसकी इजाजत से कब्बाली को सुना जाए या उनके तसब्बुर में कब्बाली सुनी जाएं तो मंजिलें मार्फत हासिल होती है। कव्वाल आपस में दिलों को जोड़ती है मुहब्बत पैदा करती है खुदा से जोड़ती है। हालांकि पहले कव्वाल शब्दों को जोड़कर प्रस्तुत की जाती थी लेकिन समय के साथ हुए बदलाव ने इसे संगीत के साथ प्रस्तुति देकर मनोरंजक बंधा दिया। शेर व ग़ज़ल को संगीत के साथ प्रस्तुत करके कब्बाली को नयी विधा के रूप में प्रस्तुत किया जाने लगा। भारत में हज़रत ख़्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती की दरगाह , पिरान कलियर शरीफ ,हजरत निजामुद्दीन की दरगाह से कव्वाली को राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय पहचान मिली है। शेर और ग़ज़ल को साज हारमोनियम,,ढोलक, सारंगी,तबला, इलैक्ट्रोनिक उपकरण ओपटो पैड,की बोर्ड से संगीतमय बना दिया है। कहते हैं कव्वाल सूफी संतों की रूहानी गजा (खुराक) होती थी । खुदा उसके महबूब की शान में कव्वाली प्रस्तुत की जाती थी फिर दरगाह, नवाबों के दरबार से निकलकर कब्बाली आज शादी विवाह, राष्ट्रीय पर्व, सरकारी व गैर सरकारी आयोजन सहित मांगलिक कार्यक्रमों का हिस्सा बन गयी है। कव्वाली के साथ संगीत मय होने से नौजवान भी अब झूमने लगे हैं। इश्क ए हक्कीकी खुदा की शान से,इश्क ए मजाजी दुनियावी रंगीन तक पहुंच गई। कब्बाली आज भारत ही नहीं पाकिस्तान, अफगानिस्तान,बंगला देश सहित अनेक देशों में लोकप्रिय हो गयी। जलालाबाद के कव्वाल साबरी दरबार कलियर शरीफ से जुड़े हैं। जलालाबाद निवासी सरफराज साबरी व उनके भाई अनवार साबरी की जोड़ी सरफराज अनवार साबरी बताते हैं जलालाबाद निवासी उस्ताद जमीर खां,गुलाम साबिर,बन्ने खां ने कव्वाली को प्रस्तुत कर जलालाबाद का नाम रोशन किया इस समय सरफराज, अनवार साबरी, ,शाने आलम साबरी,रहमान साबरी, इंतजार साबरी कव्वाली के रूप में पहचान बना चुके हैं लेकिन रईस अनीस साबरी ने बच्चा कब्बाल के रूप में राष्ट्रीय अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर जलालाबाद को नयी ऊंचाईयों पर पहुंचाया। सरफराज साबरी बताते हैं वह अपने परिवार की तीसरी पीढ़ी है। नन्हे खां साबरी, बन्ने खां साबरी व वह स्वयं सरफराज साबरी तीन पीढ़ी है जबकि हमारे बच्चे भी इस कव्वाली विधा को समझ व सीख रहे हैं। और आकाशवाणी के ए ग्रेड के कलाकार हैं। उनका मानना है कब्बाली खुदा से जुड़ने का एक माध्यम तो है ही साथ ही कौमी एकता भाईचारे को बढ़ाती है और प्रेम मुहब्बत का पैगाम देती है। भारत में जो संगीत की पूजा की जाती है। वह बताते हैं पहले कव्वाल हज़रत अमीर खुसरो,हजरत मौलाना जलालुद्दीन रूमी, मौलाना जामी,बेदाम वारसी आदि के कलाम को खानकाहों, दरगाहों में पढ़ें व पसंद किए जाते थे यहां तक कि कबीरदास के दोहे भी कव्वाली में पेश किए गये लेकिन समय के साथ बदलाव आया तो कुछ कव्वाल अपने लिखे शेर, नज़्म को कव्वाली में शामिल कर लिया। कव्वाली की लोकप्रियता ही है वह हिंदी सिनेमा का भी हिस्सा बन गई। उनकी लिखी नज़्म मेरी जान है मुहब्बत......को शमीम नईम अजमेरी,असगर,यूसूफ मलिक महिला कव्वाल परवीन रंगीली रहती हूं तेरी निश्वत में मगन.....
अनीस रईस साबरी ने बसंत रंग है हसनी हुसैनी.... मुझे गमजदा देखकर वो यूं बोले ..... यहां तक बच्चा कव्वाल रईस अनीस साबरी के ग़ज़ल अपने मां बाप का तू दिल ना दुखा .... आज भी लोकप्रियता के शिखर पर है। सरफराज साबरी बताते हैं पहले राजा महाराजा,नबाब इस कव्वाली विधा को पसंद करते थे और खुश होकर ईनाम देते थे। आज जहां कब्बाली प्रस्तुत करते हैं वहां परिवार की आजीविका के लिए मेहनताना मिलता है सात - आठ कलाकारों का समूह कार्यक्रम प्रस्तुत करता है लेकिन सरकारी तौर पर कोई प्रोत्साहन व आर्थिक मदद नहीं मिलती है।
* मुकेश सिन्हा
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