मंसूर बिजनौरी श्री मरगूब रहमानी जी की वॉल से
एक शायर ऐसा भी
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बिजनौर के मोहल्ला क़ाज़ीपाड़ा में एक मतब पर लिखा यह शेर "हम तो सुन्नत के मुताबिक़ किया करते हैं इलाज,
और शिफ़ा का मसअला अल्लाह के क़ब्ज़े में है" देख कर मुझे बेसाखता मरहूम मंसूर बिजनौरी की याद आ गई। उनके साथ बीता एक-एक पल ज़हन की स्क्रीन पर रक़्स करने लगा। मै सोचने लगा कि मंसूर बिजनौरी भी क्या कमाल के शायर थे। जैसे मशहूर-ए-ज़माना शायर, नज़ीर अकबराबादी ने फल, सब्ज़ियों और मेलों-ठेलो तक पर शायरी की है,वैसे ही एक क़दम आगे बढ़ते हुए मंसूर बिजनौरी ने भी शायद ही किसी शै को अपनी शायरी में क़ैद करने से छोड़ा हो। स्कूल,कालेज,दाल,चावल,टाफी,
बिस्किट,मरना-जीना,त्यौहार,रस्मो रिवाज़,शादी-ब्याह,चरिंदो परिंदो,जिन-भूत-आग-पानी, गरज कि उन्होंने हर मौज़ू पर शेर कहे।मुझे याद आया कि उन्होंने मेरे बड़े बेटे की पैदाइश पर नज़्म लिखी और फिर जब मेरे इसी बेटे का सलेक्शन दरोगा के लिए हुआ,तब भी उन्होंने एक नज़्म क़लमबंद की।ये दोनों नज़्में आज भी मेरे पास महफूज़ हैं।
मंसूर बिजनौरी ने नाइयों,धोबियों और चाय वालों तक के लिए शायरी की।सवारी ढोने वाली गाड़ियों में भी मंसूर बिजनौरी के शेर लिखे हुए हैं। सहरे और विदाई तो तक़रीबन हर शादी में मंसूर बिजनौरी ही लिखते थे।
घूमना फिरना मंसूर बिजनौरी की आदत में शुमार था। वे जहाँ जाते,जिसके पास जाते,उसी पर नज़्म लिखते और उसे दे आते।हालाँकि इसके लिए शायर बिरादरी में उनकी तन्क़ीद भी होती। मुझे याद है कि एक बार किसी ने मंसूर बिजनौरी से तन्क़ीदी लहजे में कहा कि आपने अपनी शायरी को बहुत सस्ता कर दिया है।अपना मैयार बनाओ।निश्तर खानकाही जैसे शायर बनो।इस पर मंसूर साहब ने तपाक से जवाब दिया था।शायरी, शायरी होती है।मुझ में और निश्तर साहब में बस इतना फ़र्क़ है कि उनका शोरूम है और मै ठेला लगाता हूं।माल एक ही है।
मंसूर बिजनौरी नये लिखने वालों का हौसला बढ़ाते थे। उनकी पज़ीराई करते थे।वे अपने हमअसरो का भी बहुत एहतराम करते थे।वे उर्दू अदब के सच्चे सिपाही थे। उनका ओढ़ना बिछोना शायरी थी।वे हर दम शायरी पर ही गुफ्तुगू करते थे।उर्दू वालों को उनकी जितनी क़द्र करनी चाहिए थी,उतनी उन्होंने नहीं की।अफ़सोस, माली हालत अच्छी न होने की वजह से जीते जी उनका कोई मजमुआ-ए-कलाम भी न छप सका।मंसूर बिजनौरी को उन्हीं के चंद शेरों से दिली खिराज-अक़ीदत। अल्लाह पाक उनके दरजात बुलंद फरमाए।आमीन सुम्मा आमीन।
इक ऐसा क़र्ब है,दिल से कभी बाहर नहीं जाता
तेरी रुख़सत का आँखों से मेरी मंज़र नहीं जाता
खुशी वो कौन सी है जो तेरी मेहमाँ नहीं होती
वो गम है कौन सा जो घर मेरे रुक कर नहीं जाता
खुदा ही जानता है क्या उसे तकलीफ पहुंची है
वो अपने शहर में होते हुए भी घर नहीं जाता
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न शब बेदार हो तो कोई भी रुतबा नहीं मिलता
बिना महनत-मश्क़्क़त इल्म का दर्जा नहीं मिलता
शजर इल्मो हुनर का मांगता है महनत-ए-मन्सूर
बिना महनत किसी को पेड़ का साया नहीं मिलता
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