विशाल भारद्वाज पंकज शुक्ला की वाल से साभार
“ऊपरवाले का एक अपना स्क्रीनप्ले चलता है तो वह जो करे उसे स्वीकार कर लेना चाहिए”
आज का दिन विशाल है, मने कि आज विशाल भारद्वाज दिवस भी है। लेखक, निर्देशक और संगीतकार विशाल भारद्वाज का जन्मदिन। क्या आपको पता है कि हिंदी सिनेमा में अपनी पसंद का संगीत लाने के लिए ही विशाल भारद्वाज फिल्म निर्देशक बने। बचपन में खूब क्रिकेट खेलने वाले विशाल अब उस घड़ी का शुक्रिया अदा करते हैं, जब उन्हें अंगुली में चोट लगने के कारण क्रिकेट छोड़ना पड़ा।
मेरे साथ अपनी पिछली बातचीत में विशाल ने माना कि सस्पेंस फिल्में बनाना हर निर्देशक की ख़्वाहिश होती है। इसके लिए वह सत्यजीत रे का उदाहरण देते हैं। वह कहते हैं, “आप सफ़र में होते हैं तो जासूसी सिनेमा पढ़ते हैं। जासूसी नॉवेल पढ़ने में जो मज़ा आता था तो पूरा सफ़र कट जाता था। अब भी जासूसी फ़िल्में देखने में बहुत मज़ा आता है। आप देखिए सत्यजीत रे कितने बड़े फिल्ममेकर थे, और, सबको लगता था कितने सीरियस फिल्ममेकर हैं, पाथेर पांचाली जैसी फ़िल्में बनाईं। लेकिन, जो ‘सोनार किला’ उन्होंने बनाया है, उसको देखिए। या फिर उनका जो डिटेक्टिव है, फेलुदा। फिर, ब्योमकेश बख्शी भी उन्होंने किया। तो सस्पेंस तो फ़िल्ममेकर का सबसे फेवरेट जॉनर है।”
माना यही जाता है कि एक विचारशील निर्देशक अपनी फ्लॉप फ़िल्मों से सबक़ ज़रूर सीखता होगा। विशाल का इस बारे में उत्तर विशाल है, “जो वक़्त निकल गया, उसके लिए तो मैं वैसे भी रिग्रेट नहीं करता हूं। लेकिन ये है कि एक रचनाकार या एक फ़िल्मकार के रूप में आपके साथ बस एक चीज होती है कि आपके उस मूवमेंट में ऑनेस्टी होनी चाहिए। आप अगर ऑनेस्ट नहीं हैं और आपने अपनी मीडियोक्रिटी एक्सेप्ट करनी शुरू कर दी तो फिर तो, पतन तो है। अब आपसे अगर आपका जजमेंट ठीक नहीं हुआ, किसी चीज़ को लेकर तो आप उसे रिग्रेट कर सकते हैं। आप उसका रीज़न देखते हैं कि क्या वजह रही कि जो चीज दूसरों को दिखी वो मैं क्यों नहीं देख पाया।”
‘एस्केप टू नोव्हेयर’ पर बनी उनकी पिछली फ़िल्म ‘ख़ुफ़िया’ के कई ख़ुफ़िया क़िस्से भी उन्होंने इस मुलाक़ात में सुनाए, विशाल बताते हैं, “ये किताब 2014-15 में रिलीज़ हुई थी। मेरे एक आईपीएस दोस्त हैं कमल नयन चौबे, वह दिल्ली में भी पोस्टेड रहे हैं, आप तो जानते ही होंगे। अमर भूषण जी उनके दोस्त रहे हैं। उन्होंने एक दिन कहा कि कल मैंने एक किताब का सिनॉप्सिस उसके रिलीज़ फंक्शन में पढ़ा तो मुझे लगा कि इस पर तुम्हें फ़िल्म बनानी चाहिए। वो मेरे पास किताब लेकर आए, मैं उस वक्त इतना ज्यादा बिज़ी था और अमर जी को बहुत जल्दी चाहिए थी क्योंकि उनको कहीं और से भी ऑफ़र आया हुआ था। तो मैंने छोड़ दिया कि हड़बड़ी में मुझसे नहीं होगा कि और मैं आपको फंसा दूं।”
“फिर उसके कोई एक डेढ़ साल बाद इरफ़ान मेरे पास आए। और, उन्होंने मुझे बहुत गुस्से में कहा कि आपने इसके राइट्स कैसे छोड़ दिए। उन्होंने बताया कि मैंने ये किताब पढ़ी और मैं इसके राइट्स लेने गया तो राइटर ने बताया कि मैंने तो आपके दोस्त को ऑफ़र किया था लेकिन उन्होंने ली नहीं। मैंने कहा कि इरफ़ान साब मैंने तो पढ़ी नहीं फिर मैंने जब किताब पढ़ी तो मुझे लगा कि मुझसे गलती हो गई। क्योंकि, उसमें जो आर एंड डब्लू (रॉ) ऑफिस की जो डिटेलिंग है,जिस तरह से वो लोग काम करते हैं। वो भी बिल्कुल अपने आप में जैसे कि नॉर्मल लोग ऑफिस में काम करते हैं। या जैसे कि आर एंड डब्लू की एक बस चलती है जिसमें वो सारे ऑफिसर बैठकर जाते हैं, अपना टिफिन लेकर आते हैं, अपना काम करते हैं फिर वही बस उनको छोड़ते हुए जाती है। हम लोग सोचते हैं कि जेम्स बॉन्ड टाइप कोई चश्मा लगाकर फरारी में जाएगा या मोटरसाइकिल में जाएगा, ऐसा कुछ नहीं होता।”
विशाल के पिता गन्ना निरीक्षक थे। 12वीं तक वह हिंदी मीडियम में पढ़े और लंबे समय तक अंग्रेजी ठीक से न बोल पाने के अपराध बोध से ग्रसित रहे। लेकिन, जो बातें उन्हें शुरू में उन्हें अपनी कमजोरी लगती थीं, वही अब उनकी ताक़त हैं। विशाल के बेटे आसमान भी निर्देशक बन चुके हैं। तो घर में दोनों का नज़रिया कितना टकराता है, ये भी विशाल से जानना दिलचस्प रहा। वह कहते हैं, “पहले तो इसी पर टकराता है कि आज फ़िल्म कौन सी देखेंगे। वह कहेंगे मुझे ये फ़िल्म देखनी। मैं कहूंगा नहीं, तो मुझे ये नहीं, मुझे वह वाली देखनी है। मुझे ये जॉनर चाहिए ही नहीं। मैं इस विषय पर काम कर रहा हूं। तो हमारा बहुत होता है। बहस भी होती हैं और बहुत सी हम चर्चा भी करते हैं, अलग अलग किरदारों को लेकर। इसमें मज़ा भी है क्योंकि ये ज़िदगी है ही ऐसी।”
आज के समय में पैरेटिंग बहुत मुश्क़िल काम है। आसान तो ख़ैर ये काम कभी नहीं रहा। लेकिन विशाल कहते हैं, “आप अपने बच्चे को उस दुनिया के सामने ला सकते हैं कि देखो, ये दुनिया है। इसमें तुम ख़ुद कितनी डुबकी लगाओगे। जितना गहरे जाओगे, उतना ऊपर निकलकर आओगे। जब आप उसे दुनिया के सामने उतार देते हैं तो कभी उसको पहले ही समझ आ जाएगा, कभी बाद में समझ आएगा। कभी, कभी भी समझ में नहीं आता। आप उसको हर चीज मुहैया करा सकते हैं, आप उसको ज़िंदगी का कल्चर दे सकते हैं कि ये हमारी संस्कृति है, हम यहां से आते हैं। हर इंसान अपनी एक अलग बनावट लेकर पैदा होता है। कुछ है हमारी परंपरा में।”
और, हिंदी की परंपरा? “मुझे लगता है कि हम लोगों को अंग्रेजी को लेकर भय बना रहता था, अब भी है। मैं हिंदी मीडियम स्कूल में पढ़ा 12वीं तक। इसके बाद मैं हिंदू कॉलेज, दिल्ली आ गया। मुझे बड़ा कॉम्प्लेक्स रहता था कि मेरी अंग्रेज़ी उतनी अच्छी नहीं है। मैं अच्छी अंग्रेज़ी नहीं बोल पाता हूं। अपने भावों को सही तरीके से प्रकट नहीं कर पाता हूं अंग्रेजी में, क्योंकि हम हिंदी में सोचते हैं। और, हिंदी को लेकर एक अजीब सा मखौल था, एक मज़ाक था। हिंदी बोलने वालों को तो मज़ाक का विषय ही समझा जाता था।”
लेकिन, अब यही ज्ञान उनकी ताक़त है। विशाल भारद्वाज कहते हैं, “हां, अब मैं जो पीछे पलटकर देखता हूं तो सोचता हूं कि अगर मैं हिंदी मीडियम में न पढ़ा होता तो मेरे पास भाषा की ये समृद्धि नहीं होती। भले उस वक्त हम कबीर की जीवनी रटकर लिखते थे लेकिन उनके दोहे तो याद हैं। जब पढ़ते थे कि ‘कांकर पाथर जोड़ि कै मस्जिद लई बनाय, ता चढ़ि मुल्ला बांग दे क्या बहरा भया खुदाय’ या फिर ‘पाहन पूजे हरि मिलें तो मै पूजूं पहाड़, ता ते तो चाकी भली पीसि खाए संसार’ तब तो रटे हुए ही होते थे, और इनका मतलब भी समझ नहीं आता था लेकिन जब बड़े हुए तो समझ आय़ा कि अरे, इसके तो कितने गंभीर मायने हैं।”
विशाल कमाल के क्रिकेटर रहे हैं, लेकिन सिनेमा उन्हें उससे भी कमाल बनाना था। क्रिकेट को मिस करने के सवाल पर विशाल कहते हैं, “अब तो मिस नहीं करता लेकिन तब तो मुझे बहुत दुख होता था। अब मैं पलटकर देखता हूं तो सोचता हूं कि जो भी आपके साथ होता है जिस वक़्त, वह बहुत अच्छे के लिए होता है अगर मैं उस वक्त क्रिकेट खेल रहा होता तो ये जो एक्सप्रेशन ऑफ आर्ट है ये जो फ़िल्ममेकिंग है, यहां तक तो मैं पहुंचता ही नहीं। शेक्सपीयर को तो कभी ज़िंदगी में पढ़ता ही नहीं। मुझे लगा कि ऊपरवाले का एक अपना स्क्रीनप्ले चलता है तो वह जो करे उसे स्वीकार कर लेना चाहिए।”
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