बिजनौर क्षेत्र की भाषा-बोली डा. ओमदत्त आर्य

 

 

बिजनौर क्षेत्र की भाषा-बोली

डा.  ओमदत्त  आर्य

बिजनौर क्षेत्र उत्तर में शिवालिक पहाड़ियों हैं, जिन्हें चंडी की पहाड़ियाँ नाम से अभिहित किया जाता है। बिजनौर जनपद का  पहाड़ी भाग अब हरिद्वार जनपद (उत्तराखंड) में जोड़ दिया गया है।

 

बिजनौर क्षेत्र हिंदीभाषा के प्रमुख क्षेत्र के अंतर्गत आता है। इसकी भाषा ग्रियर्सन के मतानुसार 'हिंदुस्तानी' है, क्योंकि इस क्षेत्र की भाषा में सभी प्रमुख भाषाओं के शब्द मिलते हैं। हिंदी शब्द का प्रयोग, दो प्रमुख अर्थों में मिलता है। 1. हिंदी की प्रमुख भाषा और 2. हिंद का निवासी, जो 'हिंदी हैं हम, वतन है हिंदोस्ताँ हमारा' (इकबाल) से स्पष्ट है। भाषा के अर्थ में हिंदी शब्द का प्रयोग फारसी के लेखकों तथा अमीर खुसरो ने किया था। अमीर खुसरो भारत की भाषा हिंदी, हिंदवी हिंदुई नाम से ही व्यक्त करते थे। वास्तव में हिंदीभाषा का क्षेत्र संपूर्ण मध्यदेश है, जिसकी सीमाएँ इस प्रकार हैं-

 

हिमवत् विन्ध्यर्योमध्ये यत् प्रागविन्सनादपि ,

प्रत्यगेव प्रयागाच्च मध्यदेशः प्रकीर्तितः ।

                 (मनुस्मृति 2/21)

 

हिंदी प्रदेश की सीमाओं को डॉ० धीरेंद्र वर्मा ने इस प्रकार स्पष्ट किया है, पश्चिम में जैसलमेर, उत्तर-पश्चिम में अंबाला, उत्तर में शिमला से लेकर नेपाल के पूर्वी छोर तक के पहाड़ी प्रदेश, पूर्व में भागलपुर, दक्षिण-पूर्व में रायपुर तथा दक्षिण-पश्चिम में खंडवा तक।

 

इस हिंदी-क्षेत्र की भाषा को पाँच प्रमुख भागों में तथा उपभाषाओं में (बोलियों) में विभाजित किया गया है-

 

1. बिहारी उपभाषाएँ । मैथिली, 2. मगही 3. भोजपुरी

2. पूर्वी हिंदी उपभाषाएँ । अवधी 2. बघेली3. छतीसगढ़ी

 

3. पश्चिमी हिंदी उपभाषाएँ । बाँगरू, 2. खड़ीबोली,3,4. कन्नौजी, 5. बुंदेली।

4. पहाड़ी उपभाषाएँ 1. गढ़वाली, 2. कुमायूँनी।

5. राजस्थानी उपभाषाएँ । मारवाड़ी, 2. मेवाड़ी या अहीरवाडी,3. डुंडारी, 4. मालवी।

 

इस प्रकार हिंदी शब्द का विस्तृत अर्थ में प्रयोग हुआ है।

 

किंतु भाषावैज्ञानिक हिंदी शब्द को सीमित अर्थ में प्रयोग करते हैं। वे पश्चिमी हिंदी एवं पूर्वी हिंदी की बोलियों को ही हिंदीभाषा के अंतर्गत लेते हैं। अब तो राजभाषा की दृष्टि से हिंदीभाषा का प्रयोग 'साहित्यिक खड़ीबोली भाषा के अर्थ में ही किया जाता है।

 

बिजनौर क्षेत्र खड़ीबोली का प्रमुख क्षेत्र है। डॉ० उदयनारायण तिवारी का मत है कि हिंदी मध्यदेश की भाषा है। आजकल मेरठ तथा बिजनौर के निकट बोली जानेवाली पश्चिमी हिंदी की खड़ीबोली के रूप में ही वर्तमान हिंदी तथा उर्दू की उत्पत्ति हुई है। पश्चिमी हिंदी की उत्पत्ति सीधे शौरसेनी अपभ्रंश से हुई है। वस्तुतः पश्चिमी हिंदी उस केंद्र की भाषा है, जिसमें आर्य-संस्कृति का प्रचार एवं प्रसार हुआ है। पश्चिमी हिंदी की उपभाषाओं में खड़ीबोली का महत्त्व सर्वाधिक है। खड़ीबोली के प्रमुख क्षेत्र हैं, जे०पी० नगर, बागपत, रामपुर, मुरादाबाद, बिजनौर, सहारनपुर, मेरठ, मुजफ्फरनगर, गाजियाबाद, ऊधमसिंह नगर तथा देहरादून के मैदानी भाग। हिंदुस्तानी नागरी हिंदी, सरहिंदी आदि नाम खड़ीबोली के ही पर्यायवाची हैं। जनपदीय खड़ीबोली के साहित्यिक रूप को ही हिंदी नाम से पुकारा गया है। आज हिंदी से तात्पर्य-साहित्यिक खड़ीबोली से है। खड़ीबोली उपभाषा की जन्म की कथा राजभाषा हिंदी के जन्म की कथा है।

खड़ीबोली शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम श्री लल्लूलाल जी ने किया था तथा उनके ही समकालीन एवं सहयोगी श्री सदल मिश्र तथा गिलक्राइस्ट ने इस नाम का प्रचार किया। इस क्षेत्र की बोली को खड़ीबोली नाम क्यों दिया गया? यह विवादपूर्ण प्रश्न है। डॉ० चंद्रबली पांडेय का विचार है- 'संभवतः कभी संस्कृत, प्राकृत, उर्दू, रेख्ता आदि की भाँति इसका नाम चल निकला और धीरे-धीरे कालक्रम के प्रभाव से इसका अर्थ कुछ का कुछ हो गया। डॉ धीरेंद्र वर्मा इस नाम को ब्रजभाषा सापेक्ष मानते हैं। ब्रजभाषा की अपेक्षा वास्तव में यह बोली 'खड़ी' लगती है। कदाचित् इसी कारण इसका नाम 'खड़ीबोली' पड़ गया है। यह बोली अधिक खरी (शुद्ध) प्रतीत होने के कारण खड़ीबोली बन गई (र का ड् परिवर्तन)। पंडित किशोरीदास बाजपेयी इससे सहमत नहीं हैं। उनका विचार है-मीठा, खाता, जाता आदि में जो खड़ी पाई प्रायः अंत में देखते हैं, वह हिंदी के अतिरिक्त किसी भी बोली में नहीं मिलेगी। ब्रजभाषा में मीठो और अवधी में मीठ चलता है, मीठो जल, मीठो पानी। सो इस खड़ी पाई के कारण इसका नाम खड़ीबोली बहुत सार्थक है। डॉ० हरदेव बाहरी ने अपनी पुस्तक 'ग्रामीण हिंदी बोलियों में स्टैंडर्ड (परिनिष्ठित या खरी) भाषा के रूप में खड़ीबोली के नाम को सार्थक माना है। उनका विचार है-हमें भी लगता है जैसे अँग्रेजी स्टैंड से स्टैंडर्ड, वैसे ही हिंदी पर्याय सुझाते हुए खड़ा से खड़ीबोली का प्रयोग चल पड़ा। याद रहे कि इस प्रदेश की भाषा का नाम तभी पड़ा, जब इसका व्यवहार शिक्षा और साहित्य में स्टैंडर्ड भाषा के रूप में होने लगा था। ग्रियर्सन इस बोली को 'हिंदुस्तानी' उचित मानते हैं। कुछ भी हो खड़ीबोली नाम गुणपरक है।

 

बिजनौर क्षेत्र की खड़ीबोली की विशेषताएँ

 बिजनौर क्षेत्र की बोली के दो प्रमुख रूप मिलते हैं- 1. शिक्षित वर्ग की बोली तथा 2. अशिक्षित वर्ग की बोली। यदि जातीय दृष्टिकोण से देखें तो निम्नस्तर की जातियों की बोली अशिक्षित वर्ग की बोली के समान है। बिजनौर जनपद की बोली का शब्द-भंडार संस्कृत, प्राकृत, अरबी, फ़ारसी, पंजाबी, अँग्रेज़ी आदि भाषाओं के शब्दों से भरा हुआ है। बिजनौर क्षेत्र की बोली में अनेक विशेषताएँ हैं-

 

1. खड़ीबोली पंजाबी की भाँति आकारांत हैं, जबकि अन्य बोलियों में संज्ञा एवं विशेषण पद ओकारांत अथवा औकारांत हैं। यथा-भलो (भला), मारो (मारा), घोड़ो (घोड़ा)। बिजनौर जनपद की बोली में अन्य क्षेत्रों की खड़ीबोली से भिन्न स्वर उच्चारण मिलते हैं-ऐनक, औरत शब्दों के उच्चारण क्रमशः 'अइनक' तथा 'अऊरत' नहीं मिलते, अपितु साहित्यिक हिंदी के प्रचलित उच्चारण की भाँति होते हैं। बिजनौर की बोली में 'और' का 'अर' (प्रयत्न-लाघव के कारण) रूप मिलता है। और का होर रूप निम्नस्तरीय जातियों की बोली में मिलता है। साहित्यिक हिंदी का बैठ (क्रिया) मेरठ की बोली की भाँति 'बठ' या 'बट्ठ' उच्चारित नहीं होता, अपितु 'बैट्ठो' उच्चारण मिलता। बिजनौर जनपद की खड़ीबोली की ध्वनियों में लोप-आगम-विपर्यय भी हुआ है, यथा-इकट्ठा का 'कट्ठा', उसारा या 'औसारा' (छप्पर) का 'सारा', अनाज का 'नाज', आसाड़ का 'साड़', नजीबाबाद को 'निजाबाद', मतलब को 'मतबल', गुब्बारा का 'बुग्गारा', चिलम का 'चिमल', दवगड़ का 'गदबड़', चुटकी का 'चुकटी' आदि उच्चारण मिलते हैं।

2. बिजनौर की बोली में मूर्धन्य व्यंजन वणाँ का अपेक्षाकृत अधिक व्यवहार होता है। न के स्थान पर '' उच्चारण अधिक मिलता है, जैसे लेणा-देणा (लेना-देना), दाणा-पाणी (दाना-पानी), आणा-जाणा (आना-जाना), कहणा-सुनणा (कहना-सुनना) आदि शब्दों के आदि में न का प्रयोग नहीं मिलता है।

3. स्वराघातयुक्त दीर्घ स्वर के पश्चात् व्यंजन के द्वित्व होने से आदिस्वर के साथ-साथ अन्त्य स्वर भी ह्रस्व हो जाता है, जैसे किल्लि (कीली), तिल्लि (तीली), निल्ला (नीला) आदि।

(ख) सर्वनामों में भी अन्य क्षेत्रों की खड़ीबोली की अपेक्षा ध्वनि-परिवर्तन अधिक पाया जाता है। जैसे हम्म (हम), तम (तुम), बो या वो (वह), उन्नै, मैन्ने (उसने, मैंने), म्हारा, थारा (हमारा, तुम्हारा), तुब्भी मैब्भी (तुम भी) (तू भी, मैं भी)

(ग) शब्दों में वर्णों के द्वित्व करने की प्रवृत्ति बिजनौर की जनपदीय बोली में अपेक्षाकृत अधिक पाई जाती है। मैं रोट्टी (रोटी) खात्ता हूँ; मैं तो नहीं जात्ता, जरा सोच्चो तो। क्रियाविशेषणों तथा अव्ययों में भी ध्वनि-परिवर्तन स्पष्ट परिलक्षित होता है। जैसे इंघे, उंघे (इधर-उधर), हों (वहाँ), हें या याँह आओ (यहाँ आओ) कद-जद (कब-जब), तरयो तरो (तरह), आग्गे-पिच्छे (आगे-पीछे) आदि

4. बिजनौर क्षेत्र की बोली में प्रयत्न-लाघव के कारण मूल क्रिया तथा सहायक क्रिया को जोड़कर बोलने की प्रवृत्ति अधिक पाई जाती है, जैसे जारिया हूँ (जा रहा हूँ), खारिया हूँ (खा रहा हूँ), तू खागा (तू खाएगा) आदि। शिक्षित वर्ग की बोली में इस प्रकार की प्रवृत्ति अधिक नहीं है।

5. सार्थक शब्दों के साथ-साथ निरर्थक शब्दों के प्रयोग शिक्षित समाज की बोली में भी पाए जाते हैं। जैसे-रोट्टी-उट्टी, खाना-वाना, बालक-उलक,साड़ी-वाड़ी, चाय-वाय आदि।

6. बिजनौर क्षेत्र की बोली में अपशब्दों/गालियों का प्रयोग भी कुछ अधिक प्रतीत होता है। अंग प्रत्यंग, रिश्ते-नाते-संबंधी अपशब्दों को छोड़कर कुछ नमूने द्रष्टव्य हैं-

(क) महिलाओं द्वारा प्रयुक्त अपशब्द-डैण (डायन), डगसा या डग्गा, छिनाल, उत्ती-नपूती, सौकराँड (सौत-रंडिया, विधवा) जलगया, उत्ता, हरामजादी, हरामजादे आदि।

(ख) पुरुष द्वारा प्रयुक्त अपशब्द-उल्लू का पट्ट्ठा, डंगर, गधे का बच्चा, भूतनी का, भौन्ना, भड़वा, लुच्चा, हरामखोर आदि।

7. बिजनौर की बोली के शब्द भंडार का अध्ययन करने से जनपदीय बोली का प्रकृत रूप प्रकट होता है। जनपदीय बोली तथा साहित्यिक हिंदी के शब्दरूपों का संक्षिप्त तुलनात्मक परिचय निम्न प्रकार है-

बिजनौर की बोली     खड़ीबोली    साहित्यिक हिंदी

आट्ठे                 आठे         अष्टमी

किवाड़              कुवाड़            कपाट

चलनी             चल्ली            छलनी
छाल्ली             छाली                 छाली

छोक्कल           छोत्तल        छोकला, छिलका

जिनावर             जनावर        जानवर

थामर,          थाँवर, थावर            शनिवार

दुल्हण               दुलण            दुलहिन

बढ़ी                 बाढ़ी                बढ़ई

 

डॉ० धीरेंद्र वर्मा ने अपनी पुस्तक ग्रामीण हिंदी में बिजनौर की बोली का जो नमूना उद्धृत किया है, वह इस क्षेत्र की बोली का प्रकृत रूप प्रकट नहीं करता है, हाँ दुष्यंतकुमार के 'छोटे-छोटे सवाल' उपन्यास के संवादों में अवश्य ही बिजनौर की खड़ीबोली के प्रचलित रूप के दर्शन होते हैं, यथा-'लाला हरिचंद ने कहा भया, जरा सोच्चो तो, बराब्बर के कमरे में मास्टर लोग बैठे हैं, मुझे क्या मालूम जल गए', 'आग पड़े उत्तौ पै', 'कोई सुनेगा, तो क्या कहवैगा, देक्खो कित्ती शांती है।'

हिंदीभाषा खड़ीबोली में बिजनौर क्षेत्र की बोली का स्थान

बिजनौर क्षेत्र की खड़ीबोली की ध्वनियों का आरोह-अवरोह (लहता) भी साहित्यिक हिंदी के समान है। शब्दों के द्वित्व भाग को पृथक करने से इनके रूप साहित्यिक हिंदी के रूप के समान हो जाते हैं, जैसे रोट्टी-रोटी, बाल्लक-बालक आदि। इस क्षेत्र की बोली में अरवी-फ़ारसी (उर्दू) के शब्दों का बाहुल्य है। अँग्रेज़ी भाषा के शब्द भी किंचित् उच्चारण-भेद से सर्वत्र व्यवहत होते हैं। कुल मिलाकर यदि इस क्षेत्र की भाषा को 'हिंदुस्तानी' नाम दिया जाए तो अनुचित नहीं होगा। इस क्षेत्र की बोली पर सीमांत जनपदों की बोलियों का प्रभाव भी परिलक्षित होता है। उत्तरी भाग में गढ़वाली (पहाड़ी) बोली का प्रभाव है। 'गलिया', 'घोर', 'गोट', 'आलों', 'तलों', सणी आदि शब्द बिजनौर के उत्तरी भाग में प्रयुक्त होते हैं। पश्चिमी जनपदों-सहारनपुर, मुजफ्फरनगर, मेरठ, बागपत आदि की बोलियों के अनेक शब्द कृषि तथा मल्लाहगीरी आदि व्यवसायों में प्रयुक्त होते हैं। पश्चिमी से आए पछादे जाटों की बोली का प्रभाव बिजनौर के पूर्वी-दक्षिणी क्षेत्रों में मिलता है। जे०पी० नगर, मुरादाबाद जनपद की बोली का प्रभाव भी दक्षिणी क्षेत्र में पाया जाता है। इस प्रकार यदि हम बिजनौर क्षेत्र की बोली का वर्गीकरण करना चाहें तो इस प्रकार है-

1. उत्तरी पहाड़ी बोली, 2. पश्चिमी खड़ीबोली 3. दक्षिणी-पूर्वी खड़ीबोली 4. मध्यवर्ती खड़ीबोली, 5. पछादिया जाटू खड़ीबोली।

निष्कर्ष− बिजनौर क्षेत्र की बोली प्रतिनिधि खड़ीबोली है। बिजनौर-मेरठ खड़ीबोली का उद्गम स्थान है।

 

 

चलों चले चौपाल से साभार

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