डा. ज्ञान चंद जैन


11 अगस्त जिनकी पुण्य तिथि है
उर्दू सहित्य के पुरोधा डा. ज्ञान चंद जैन
स्योहारा। जनपद के साहित्यकारो का विश्व में बड़ा नाम है। जनपद के सकलेन हैदर, सज्जाद हैदर, अख्तरउल इस्लाम, हिलाल स्योहारवी, डा. ज्ञानचंद जैन आदि वे साहित्यकार हैं जिन्हे पूरी दुनिया में जाना जाता है। भारतीय लेखक और उर्दू साहित्य के स्कालर तथा भारत के उर्दू एर्वाड पदमश्री से सम्मानित डा. ज्ञान चंद जैन का जन्म १९ सितंबर १९२२ में स्योहारा में हुआ था। उनकी मृत्यू ११ अगस्त २००७ में पोर्ट विलेयर कैलिफोर्निया अमरिका में हुई। अपने अंतिम समय में डा. ज्ञानचंद जैन अपनी सरजमी को बेहद याद करते थे। उनकी गजल का एक शेर इस बात की ताईद करता है। मैं बरगद हूं उखड़ कर आ गिरा मशरिक से मगरिब में, किसी मैदान का टूकड़ा ही अपना है ना वन अपना। स्योहारा के लाला बहालचंद जैन के तीन पुत्रो में छोटे पुत्र डा. ज्ञान चंद जैन को उनके गालिब साहित्य पर स्कालरशिप तथा उनकी उर्दू में लिखी गई अनेक किताबों जिनमें एक भाषा दो लिखाबट दो अदब, उर्दू की नर्सरी दास्तानें, निशानयात, कच्चे बोल, दास्तानगोई, अंजूमन तरक्की ए उर्दू, आदि के लिए उर्दू जगत में जाना जाता रहेगा। वे जम्मू, इलाहबाद, हैदराबाद तथा लखनऊ विश्व विद्यालयों में उर्दू के विभागीय अध्यक्ष रहे। इनकी पुस्तक तस्वीर ए गालिब को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंद्रा गांधी द्वारा पुरस्कृत किया गया था। बज्मे अदब स्योहारा के सदर सुजाउद्दीन कमर बताते हैं कि मानवतावादी डा. ज्ञानचंद जैन सभी धर्मों का समान रूप से सम्मान करते थे। वे सादा जीवन उच्च विचार की टेग लाईन पर विश्वास रखते थे। वे बताते हैं कि उन्हें उर्दू एकडमी एवार्ड १९८२ से सम्मानित किया गया था। उनकी उर्दू सेवाओं के लिए पाकिस्तान में १९९६ में उन्हें डा. ऑफ लिट्रेचर की उपाधि से सम्मानित किया गया। अलीगढ़ के उर्दू स्कॉलर डा. एम असलम बताते हैं कि उनकी लिखी उनके पुस्तकें पाकिस्तान में पाठयक्रम में पढ़ाई जाती हैं। उन्होने अपनी उर्दू रिर्सच विधि पर लिखी पुस्तक तहकीक में लिखा है कि रिर्सच का हमारा मकसद नौकरी पाना नहीं ज्ञान में वृद्धि होना चाहिए। ये ऐसी पुस्तक है जिसका हिंदी अनुवाद होना चाहिए। ये पुस्तक रिर्सच करने वालों के लिए सच्ची मार्गदशक होगी। वे बताते हैं कि डा. ज्ञानचंद जैन की प्रमुख रचनाएं इब्लीस और हूर, इंतजार, चकोर, अलिफ लैला,उमर ख्यााम की रूबाईयों का अनुवाद आदि रहीं हैं।
ज्ञानचंद जैन के दो बेटे मनोज और आाशू १९८३ में ही अमेरिका चले गये थे। ज्ञानचंद जैन भी १९९३ में अमेरिका चले गये। जबसे वे अमेरिका में ही रहे। २००२ में उन्होने अपनी लाचारगी तथा वतन की याद का इजहार करते हुए अपनी एक रचना भेजी थी। वो गजल
ना हिंदूस्तान है अब अपना ना अमेरिका वतन अपना, मैं इबने राह हूं बेचारगी है पराहन अपना। मैं बरगद रहूं उखड़ के आ गिरा मशरिक से मगरिब में, किसी मैदान का टूकड़ा ही अपना है ना वन अपना। किसी दहकान लड़की की जो कैफियत हो डिस्को में, वही कुछ हाल अमेरिका में अपना होगा गालेबन अपना। मैं हिंदोस्तान का एक बेहुनर बनियाए कस्बाती, कहां तर्रार ये मगरिब कहां खस्ता बदन अपना। यहां खुशियां ही खुशियां हैं समझता था दिल ए सादा, यहां आकर तबियत रहती है उक्तादा उक्तादा।
डा. वीरेंद्र स्योहारा

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