लोक कलाकारों की दम तोड़ती कला
के.एस.
तूफान
मानव
जीवन में हास्य-व्यंग्य का महत्वपूर्ण स्थान है। कहा भी जाता है कि स्वास्थ्य के
लिए हंसना अत्यंत आवश्यक है। यदि मानव जीवन से हास्य-व्यंग्य को निकाल दिया जाए, तो जीवन रसहीन हो जाएगा। किंतु समय की
क्रूरता देखिए कि अपने गायन-वादन, नृत्य, नकल एवं हास्य-व्यंग्य के माध्यम से
लोक मानस का मनोरंजन करने वाले लोक कलाकारों "विदूषकों का जीवन रसहीन होकर
सूखता जा रहा है। समय के चक्रव्यूह में फंसकर तथा बेरोजगारी, अशिक्षा, उपेक्षा, हताशा, निराशा, कुंठा एवं महंगाई का शिकार होकर इनकी
कला दम तोड़ती जा रही है। ख़तरा यह भी उत्पन्न हो गया है कि मृतप्रायः यह लोक कला
कहीं भविष्य में मात्र इतिहास बनकर न रह जाए। नाचते-गाते तत्काल नकुल बनाकर
प्रस्तुत करना तथा हास्य-व्यंग्य उत्पन्न करना इन लोक कलाकारों, "विदूषकों" के बाएं हाथ का खेल है।
इस कला में ये अपना सानी नहीं रखते। बात-बात में चुटीला एवं करारा व्यंग्य कसना, सांकेतिक भाषा में किसी पर भी व्यंग्य
कसकर उसे पानी-पानी कर देना तथा हास्य के माध्यम से व्यक्तियों का स्वस्थ मनोरंजन
करना इनकी विशेषता है। रागों, शास्त्रीय
संगीत एवं घरानों की बंदिशों से आजाद, सुगम संगीत प्रस्तुत कर स्वस्थ मनोरंजन करना एवं लोक संस्कृति को
जीवित रखने में इनका विशेष योगदान है। इनके द्वारा अभिनीत नाटक, ड्रामा अथवा स्वांग नसीहत आमेज़ होते
हैं।
राष्ट्रीय
राजमार्ग 119 मेरठ पौड़ी पर जिला (बिजनौर) मुख्यालय से लगभग 23 किमी. की दूरी एवं
किरतपुर से लगभग पांच किमी. की दूरी पर उत्तर दिशा में लगभग 12 हज़ार की जनसंख्या
वाला ग्राम भनेड़ा स्थित है। और तो सभी बातें इस ग्राम में अन्य ग्रामों की ही
भांति सामान्य हैं, किन्तु यहां पर निवास करने वाले
"विदूषकों" के कारण यह ग्राम दूर-दूर तक प्रख्यात है। कहना चाहिए कि
जिला बिजनौर जिस प्रकार "रॉबिनहूड' कहे जाने वाले सुलताना डाकू के कारण देश के अन्य भागों में विख्यात
है, ठीक उसी प्रकार ग्राम भनेड़ा भी इन
सरस्वती पुत्रों एवं कला के साधकों के कारण उ.प्र. के अन्य जिलों में विख्यात है।
आज से लगभग 60-70 वर्ष पूर्व राजा-महाराजाओं, नवाबों, जमींदारों, सामंतों तथा धन्ना सेठों की बारातों
अथवा महफिलों में तवायफों / नर्तकियों के नाच / स्वांग/नाटक/ड्रामा हुआ करते थे।
उनके साथ भंडेलों का होना अनिवार्य जैसा ही था, क्योंकि वे 'सोने में सुहागा' का काम किया करते थे। अतः इन महफिलों
में भनेड़ा के मंडेला की शिरकत आमतौर से रहती थी।
गांधर्व
एवं गायन, वादन विद्या में पारंगत इन्हें भांड, भंडेले, नक्काल, कृष्वाल भी पुकारा जाता है। कहावत है
कि भंडेलों का बच्चा भी रोता है, तो
स्वर से ही रोता है। गायन वादन इन लोगों का खानदानी पेशा है। इनमें से नन्हें खां
नामक व्यक्ति सुप्रसिद्ध तबला वादक हुए हैं। ये लोग फिल्मी गानों के अतिरिक्त गजलें, कव्वालियां, नात, हम्द, चौबोला, बहरे तवील तथा हाथरस नौटंकी के गानों के माहिर होते हैं। यह बात
दूसरी है कि हरियाणवी रागनियां बहुत ही कम गाते हैं। समयानुसार इन्होंने शब्द नमो: कार, भवन, भेंट देशगान तथा वंदना आदि भी गाने प्रारंभ कर दिये हैं। इनके द्वारा
अभिनीत नाटकों, ड्रामों तथा स्वांग में आलम आरा, लैला-मजनू, शीरों-फरहाद, ख़ुदा दोस्त, सुल्ताना डाकू, मस्तानी गुजरी, श्रीमती मंजरी, गुलशनम शहजादा, खजस्ता शहजादी, बरजलीस, माहेगीर, बहराम, शाहजिन्नात आदि प्रमुख हैं। इांस एवं फिल्मी तरानों के लिये लड़कों
के अतिरिक्त ये अपने साथ तवायफों −नर्तकियों को भी रख लिया करते हैं। तवायफों /
नर्तकियों से महिला पात्रों का कार्य कराया जाता है। इनके लड़के अन्य नगरों में
स्थायी रूप से तवायफों / नर्तकियों के साथ सारंगी, तबला व हारमोनियम बजाने का कार्य भी करते हैं। इकबाल साबिर नामक एक
लड़का आकाशवाणी (नजीबाबाद) से गजले प्रस्तुत करता रहा है। ये लोग ख्वाजा
मोइनउद्दीन चिश्ती (अजमेर),
हजरत
निजामुद्दीन औलिया (दिल्ली) तथा पीरान कलियर (रुड़की) को दरगाहों पर उर्स के समय
अपना कलाम पेश करके वाह-वाही लूटते हैं। पंचकुइयां रोड (दिल्ली) में इनके सैय्यद
हसन खानदानी पीर हैं, जिनकी दरगाह पर ये प्रतिवर्ष शीरनी
चढ़ाने के अतिरिक्त अपना कलाम भी पेश करते हैं। ये लोग तहजीब-ओ-सदाकृत (सभ्यता एवं
संस्कृति), इल्म औ तमद्दुन, अदबी तमहुन (साहित्य एवं संस्कृति) तथा
अपने फन में बहुत ही माहिर होते हैं। गायकी की अदायगी एवं सेहत अलफाजी इनकी
रंग-रंग में बसी है। गाते हुए इनका लबो लहजा (उच्चारण) देखते ही बनता है।
जागीरदारों, मनसबदारों, रियासतों के टूटने, जमींदारी प्रथा समाप्त होने तथा सिनेमा, टेलीविजन, रेडियो, मनोरंजन के विभिन्न चैनलों, मनोरंजन के बढ़ते साधनों एवं पाश्चात्य संगीत के अत्यधिक प्रचलन ने
इनकी लोकप्रियता पर प्रतिकूल प्रभाव डाला । इसका सीधा प्रभाव इनकी आर्थिक स्थिति पर पड़ना स्वाभाविक ही था। अब
तो बिरला हो ऐसी कोई बारात होती है, जिसमें इनका नाच गाना होता हो। अतः इनके समक्ष रोजी-रोटी की समस्या
उत्पन्न हो गई है। आज इनकी कला दम तोड़ती दृष्टिगोचर हो रही है। आर्थिक तंगी के
कारण इनके लड़के खेती का कार्य करने लगे हैं तथा कुछ रिक्शा खींचने लगे हैं। कुछ
लड़के दर्जियों के पास सिलाई का काम करने लगे हैं। कुछ व्यक्ति तो छतरी सुधारने
तथा खटमल व चूहों को मारने की दवाई बेचने के लिए दूर-दूर तक पहचाने जाने लगे हैं।
इनके एक युवक शराफ़त ने नाई का धन्धा अपना लिया है और हजामत बनाने में निपुण होकर
वह नाइयों के भी कान काटता है।
गायन-वादन
भारत की बहुत ही प्राचीन विद्या है। आज भारत सरकार लोक कलाओं एवं संगीत को
प्रोत्साहन दे रही है। उसने सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के अधीन "सॉंग एण्ड
ड्रामा डिवीजन" की भी स्थापना की है। सरकार की और से उपेक्षित कलाकारों को
प्रोत्साहन ही नहीं दिया जाता, बल्कि
उन्हें आर्थिक सहायता भी प्रदान की जाती है। सरकार को चाहिये कि जनता को स्वस्थ
मनोरंजन प्रदान करने वाले भनेड़ा के भंडेलों की आर्थिक सहायता हेतु समुचित कदम उठाए
अन्यथा इनकी पारापरिक लोक कला दम तोड़ देगी। दरअसल ग्राम भनेड़ा के नक्काल भयंकर
गरीबी की चपेट में हैं। इस बिरादरी के लोग नाचने-गाने के अपने पुश्तैनी धंधे को
छोड़कर मजदूरी करने पर विवश हो रहे हैं। समाज में अब इनकी कला का कोई कद्रदान नहीं
रह गया है। आर्थिक तंगी के कारण नक्काल न तो कला क्षेत्र में उन्नति कर पाए और न
ही अपने बच्चों को शिक्षित बना पाते हैं।
सैकड़ों
वर्ष पूर्व ग्राम भनेड़ा में सैय्यदों की जमींदारी थी। नक्काल बिरादरी के लोग बताते
हैं कि उनके पूर्वज इस गांव में अपनी कला का प्रदर्शन करने आए थे। किसी ज़मींदार ने
स्वर, साजू और नृत्य की अनूठी कला से प्रसन्न
होकर बतौर ईनाम उन्हें रहने के लिए जमीन दे दी थी। बाद में ग्राम भनेड़ा नक्कालों
के गांव के रूप में मशहूर हो गया। इस बिरादरी का मोहल्ला 'नक्काल' अलग बसा हुआ है। इस समय गांव में बिरादरी के लगभग 20 परिवार हैं। इनकी
कुल संख्या सौ के लगभग है। कुछ वर्ष पूर्व नक्कालों के दो तीन परिवार नजीबाबाद
जाकर बस गए थे, जो वहीं रहकर अपना पुश्तैनी काम करते
हैं। खास बात यह है कि इस बिरादरी के लोग लड़का पैदा होने या लड़के के विवाह
कार्यक्रमों में ही जाते हैं तथा रतवाई, जच्चा और बन्ने घोड़ी एवं सेहरे गा सुनाकर अपना नेग लेते हैं। आजकल
यही इनकी आजीविका का साधन है। गले में ढोलक, कंधे पर हारमोनियम तथा हाथ में घुघरू लिये लड़के के जन्म के बारे में
पूछताछ करना तथा वहां गा-बजा एवं नाचकर "पंजी" लेना इनकी पहचान बन गई
है। हिजड़ों की तरह इनकी न तो निर्धारित मांग होती है और न ही कोई ज़िद करते हैं।
लड़की के जन्म में नक्काल नाचने-गाने नहीं जाते। जहाँ तक
नक्कालों की नकल का प्रश्न है, तो
उन्होंने ऐसी चार नकुल सुनाई जो यहाँ पर बतौर बानगी के रूप में पेश हैं।
1.
एक नवाब साहब को नौकर की आवश्यकता थी। अब आप नवाब के कर्मचारी एवं भांड की आपस में
हुई
गुफ्तगू
सुनिये...... अरे भाई नौकरी करोगे? जी हाँ, क्यों नहीं करूंगा। हाँ तो बताओ नौकरी
का क्या मेहनताना लोगे?
अजी
मेहनताना क्या, बस खाने खर्चे पर काम कर लूंगा। अच्छा
बताओ तुम्हारा खाना क्या होगा? अजी
खाना क्या,
बस
दाल से काम चल जायेगा। लेकिन हाँ, दाल
देसी घी में छुंकी होनी चाहिए। और हाँ जिस चारपाई पर मैं सोऊंगा,उसके पाए रंगीन होने चाहिए। वैसे तो
चारपाई बानों से बुनी जाती है, लेकिन
बात मुझे चुभंगे इसलिए चारपाई निवाड़ की बुनी होनी चाहिए। हाँ और कुछ बताओ? अजी और क्या, खाने के बाद हुक्का भी पीता हूँ, मगर उसका तम्बाकू खमीरे वाला खुशबूदार
होना चाहिए और हाँ पैर दबाने एवं सिर की मालिश करने के लिए मुझे एक आदमी भी चाहिए।
अब आप स्वयं समझ सकते हैं कि इस संवाद को सुनकर कौन अपनी हँसी रोक सकता है? उपरोक्तफरमाइशें सुनकर क्या किसी की
हिम्मत नौकर रखने की हो सकती है? यह
नकुल शमशाद साबरी ने बतलायी। यासीन मियाँ ने एक नकल इस प्रकार सुनाई, जो नवाबों एवं जमींदारों की अनभिज्ञता
प्रदर्शित करती है। एक ज़मींदार अपने नौकर से बोला, "अबे फलाने, जरा गेहूँ का पेड़ तो लाकर दिखलाना
कल" जी मीर साहब कल गेहूँ का पेड़ लेता आऊंगा। वह नौकर तो चला गया, मौर साहब ने फौरन दो चार मजदूर बुलाकर अपनी
हवेली का छोटा दरवाजा तुड़वा डाला। तभी वहीं उनका गुमाश्ता आ पहुँचा। उसने पूछा, यह क्या करवा रहे हैं हजूर? मीर साहब ने जवाब दिया, मियाँ फलाने से गेहूँ का पेड़ मंगवाया
है, अब पता नहीं गेहूँ का पेड़ कितना ऊँचा
होता है,।
इस
दरवाज़े में से निकल पाता कि नहीं, लिहाजा मैंने दरवाजा तुड़वा दिया है। अकरम मियाँ ने नक्कालों की
नज़ाकत एवं खाने-पीने की शाही आदतों के बारे में बतलाते हुए कहा कि जहाँ कहीं
नक्कालों को घटिया खाना-पीना दिया जाता था, तो वे तत्काल नकल बनाकर महफिल में सुना देते थे। जिससे हास्य एवं
मनोरंजन तो होता ही था. उनके खाने-पीने का भी अच्छा इंतेजाम हो जाता था। यह नकल इस
प्रकार है कि एक राजा साहब के यहाँ नक्काल अपना तमाशा कर रहे थे, किंतु उनकी खातिरदारी अच्छी नहीं हो
रही थी। उन्होंने फौरन नाई और ब्राह्मण का वेश बनाया और उस राजा के यहाँ टीका लेकर
पहुँच गये। दरबार से पहले उन्हें एक नौकर मिला और उसने पूछा, कहाँ जा रहे हो भाई? इन राजा साहब के यहाँ फलां राजा साहब
की लड़की का टीका लाये हैं। अरे तुम कहाँ टीका ले आये? इस राजा के यहाँ तो चने के अलावा कुछ
पैदा हो नहीं होता। ये किस बात का राजा, जिसके यहाँ खाने-पीने का भी ठीक इंतजाम नहीं। नकुल सुनकर राजा साहब
की भँवें तन गयीं। वे उठकर बोले, वह
क्या बद तमीजी है? तब नक्कालों ने कहा, हुजूर हमें तो आपके यहाँ स्वांग
दिखलाते कई दिन हो गये, चने की दाल और चने की ही रोटी खाने को
मिल रही है। अतः हम तो इस नतीजे पर पहुँचे कि आपके यहाँ चने के अलावा कुछ पैदा ही
नहीं होता। स्पष्ट है कि राजा साहब ने फौरन नक्कालों के खाने-पीने का उचित प्रबंध
करने का फरमान जारी कर दिया।
उपरोक्त
उदाहरणों से सिद्ध है कि ये नक्काल हास्य-व्यंग्य सुनाकर सभी का स्वस्थ मनोरंजन
करते थे और साथ ही किसी भी व्यक्ति का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर लेते थे। लेकिन आज
इनके पेट खाली हैं और किसी का भी ध्यान इनकी कला की उपेक्षा के चलते इनके पेट पर
नहीं। यही इनका रोजगार भी है और जिंदगी भी अब देखना यह है कि ये लोग कितने दिन
जीने की नकल करते हैं।
भयंकर
गरीबी के कारण नक्कालों के बच्चे पढ़ नहीं पाते 20 परिवारों में केवल दिलशाद नामक
एक युवक दसवीं कक्षा पास है तथा दिल्ली में दर्जी की दुकान पर सिलाई का काम कर रहा
है। गुलाम फरीद ने बताया कि गरीबी के कारण हम लोग अपनी औलाद को स्कूल नहीं भेज
पाते। जहाँ तक गजल एवं कलाम का प्रश्न है, तो ये लोग फ़राज़ साबरी, शकील बदायूँनी, शमीम
जयपुरी, जिगर मुरादाबादी, गालिब, मीर, बेदम तथा वारसी आदि की गजलें एवं कलाम
पेश करते हैं।
नक्काल
बिरादरी पिछड़ी जाति में हैं परंतु हालत यह है कि उनके पूर्वजों को खैरात में मिली
जमीन अबइस बिरादरी के लिए नाकाफी हो गई है। ग्राम पंचायत ने इन्हें बसने के लिए
आवासीय भूखंड बहुत ही कम उपलब्ध कराये हैं। एक दो व्यक्ति के
मकान भी इंदिरा आवास योजना के अंतर्गत निर्मित हुए हैं किंतु इनकी ग़रीबी व
पुश्तैनी धंधे का मंदा होना इनका पीछा नहीं छोड़ रहा है। यूँ अपनी कला का प्रदर्शन
करने हेतु ये लोग बिजनौर के अतिरिक्त मुरादाबाद, सहारनपुर, मेरठ, पीलीभीत, रानीखेत, बनारस, आज़मगढ़, मुजफ्फरनगर,
उत्तराखण्ड, दिल्ली, हरियाणा, पंजाब तथा बिहार आदि में भी अपनी कला
का प्रदर्शन करते हैं। इनमें शमशाद साबरी, इदरीस सावरी,
यासीन, कमर, मा. मुस्तफा,
अकरम, तस्लीम, बुन्दु, मुन्ना, शमीम, गुलाम फरीद आदि प्रसिद्ध कलाकार हैं।
नफीस साचरी (ढोलक), इदरीस सावरी (हारमोनियम), अकरम (ऑरगन) तथा दिलदार (लैंड के साथ
माना) को अपने-अपने क्षेत्र में महारत हासिल है। ये लोक कलाकार इस लोक कला गायन, वादन, रागों, शास्त्रीय संगीत एवं नृत्य सीखने के
लिए न तो किसी घराने के मोहताज हैं और न ही कसी परम्परा में बंधे हैं। इनका यह
पेशा पैतृक है। इनकी यह लोक कला पारंपरिक रूप से पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही है। लोक
कला को बचाने की बातें करने वाली सरकार अथवा सामाजिक संगठनों को नहीं लगता कि इस
लोक कला का भी संरक्षण हो?
साहित्य, संस्कृति, अदब, इल्मोतमद्दुन,
गीत, संगीत एवं नाटक आदि को प्रोत्साहित
करने हेतु भारत सरकार एवं राज्य सरकारों की साहित्य अकादमी, संगीत एवं नाटक अकादमी, ललित कला अकादमी, उर्दू अकादमी आदि संस्थान जो कि लोक
कलाओं को संरक्षित करने का काम कर रही हैं, वे भी इन लोक कलाकारों अर्थात् नक्कलों कव्वालों भंडेलों भांडों आदि
की कलाओं को संरक्षित करने का कोई विशेष कार्यक्रम नहीं चलाया जा रहा है। क्या
तमाम लोक कलाओं को बचाने में जुटी संस्थाएँ नक्कालों/कव्वालों/ मंडलों/ भांडों आदि
की कलाओं को लोक कला नहीं मानती ?
"के.
एस. तूफान
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