मौलाना मोहम्मद अली जौहर



मोहम्मद अली जौहर की पैदाइश 10 दिसम्बर सन् 1878 को नजीबाबाद (बिजनौर) में हुई थी। आपके वालिद का नाम अब्दुल अली और वालिदा का नाम आब्दी बानी बेगम था, जो कि खुद जंगे आजादी के मूवमेंट में पका अहम मुकाम रखती थीं। मोहम्मद अली साहब ने शुरुआती तालीम मुकामी स्कूल व मदरसों से हासिल की और फिर बी.ए. करने अलीगढ़ गये। फिर बी.ए. आनर्स करने के लिए आपने ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में एडमिशन लिया। तालीम पूरी करके मुल्क वापस लौटने पर आपने कई जगह नौकरी की, लेकिन आपका मन तो जंगे-आज़ादी में हिस्सा लेने का था, इसलिए आपने अखबार के ज़रिये अपनी ज़िन्दगी शुरू की। पहले आप दूसरे अखबारों में लिखते रहे, फिर बाद में दी कॉमरेड नाम से अंग्रेज़ी और हमदर्द नाम से उर्दू अखबार निकाला। इस दौरान सन् 1906 में आपकी कोशिशों से मुस्लिम लीग की बुनियाद पड़ी, जिसके ज़रिये मुल्क की आज़ादी के लिए आप खिदमात देने लगे। मुस्लिम लीग का फॉउन्डर होने के बावजूद आप हिन्दू-मुस्लिम इत्तहाद के बड़े पैरोकार थे। आपने अपने अखबार के ज़रिये मुल्क की अवाम में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ ज़बरदस्त जागरूकता पैदा की। अखबार की मकबूलियत से अंग्रेज़ अफसर घबरा गये और दोनों अखबारों को बंद करा दिया।


सन् 1945 में अंग्रेज़ों ने मौलाना मोहम्मद अली जौहर और आपके भाई शौक्त अली को छिंदवाडा में कैद कर दिया। आप दोनों भाइयों से महात्मा गांधीजी बहुत असर अंदाज़ थे। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि मोहम्मद अली साहब ने महात्मा गांधी की सलाह पर ही मुस्लिम लीग में अहम किरदार अदा किया, ताकि मुसलमानों की पार्टी किसी गलत क्यादत में न जाने पाये। यह उस वक़्त के कांग्रेसी लीडरशिप का मानना था, क्योंकि मौलाना बज़ाते खुद नेशनलिस्ट मिजाज़ व ख्याल के थे, इसलिए इस बात से इंकार भी नही किया जा सकता। मौलाना अली की जोशीली तक्रीरों से भी मुल्क की आज़ादी के लिए राह हमवार की। मौलाना अली नेखिलाफत और नॉन कॉओपरेटिव मूवमेंट में बहुत अहम किरदार निभाया और कई बार गिरफ्तार किये गये। आपने इण्डियन नेशनल कांग्रेस के दिसम्बर सन् 1923 में काकीनाडा (आन्ध्रप्रदेश) के इजलास की सदारत की। आपके ज़रिये ही मोहम्मद अली जिन्ना का देहली प्रस्ताव कांग्रेस के सन् 1927 के मद्रास अधिवेशन में अप्रूव हुआ, जिसके ज़रिये हिन्दू-मुस्लिम एक साथ मूवमेंट चलाने पर राज़ी हुए। नेहरू रिपोर्ट के बाद आपने महात्मा गांधी को समझाने की कोशिशें की लेकिन जब वह नहीं तैयार हुए तो आपने सन् 1928 में कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया। आपने सन् 1930 में लन्दन में हुई गोलमेज़ कांफ्रेंस में भी हिस्सा लिया और बहुत असरदार तरीके से हिन्दुस्तान की आज़ादी के इशू को पेश किया। आपने ब्रिटिश वज़ीरे-आला को एक ख़त के ज़रिये 3 जनवरी सन् 1931 को आगाह किया कि ब्रिटिश नौकरशाहों को हिन्दुस्तान में हिन्दू-मुस्लिमों के बीच लड़ाने का काम बन्द कराना चाहिए। इसी लेटर में आपने लिखा कि मैं लन्दन से तभी वापस जाऊंगा जब मुझे अपनी मादरे-वतन की आज़ादी का परवाना मिलेगा, वरना मेरी कब्र के लिए दो गज़ ज़मीन दी जाये। मौलाना की पूरी ज़िन्दगी कौमी एकजहती और मुल्क की जंगे-आज़ादी के लिए कुर्बान हो गयी। जुबान का यह धनी इंग्लैण्ड में ही 4 जनवरी सन् 1931 को दुनिया को अलविदा कर गया और शहादत का एक अज़ीम दर्जा हासिल किया। 



लहू बोलता भी है  पेज 295− 296

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