किरतपुर की जामा मस्जिद
जनपद बिजनौर के कस्बा #किरतपूर कि जामा मस्जिद तकरिबन साढे चार सौ साल पुरानी यह एतिहासिक मस्जिद अपने अतीत को संजोये मुगलिया दौर की गाथा गा रही है।
अबुल फजल द्वारा सन 1568 मे निर्मित यह जामा मस्जिद किरतपुर कि ऐतिहासिक धरोहरो में से एक है जिसका बदलते वक्त के साथ मुफ्ती इब्राहिम हुसेन साहब ने जीर्णोद्धार तो कराया लेकिन आज के दौर में भी ये इमारत पुरानी यादे ताजा कर रही है।
-+-+-+-+-+-+-+-+-+-+-+-+-
अबुल फजल का संबंध अरब के हिजाजी परिवार से था। इनके पिता का नाम शेख मुबारक था। अबुल फजल ने अकबरनामा एवं आइने अकबरी जैसे प्रसिद्ध पुस्तको की रचना की। अबुल फजल बचपन से ही काफी प्रतिभाशाली थे उनके पिता ने उनकी शिक्षा की अच्छी व्यवस्था की शीध्र ही वह एक गुणी और कुशल समीक्षक विद्वान की ख्याति अर्जित कर ली। 20 वर्ष की आयु में वह शिक्षक बन गये। 1573 में उसका प्रवेश अकबर के दरबार में हुआ। जल्द ही सतर्क निष्ठा और वफादारी के बल पर अकबर के चहेते बन गये तथा शीध्र अकबर के विश्वासी और प्रधानमंत्री के ओहदे तक पहुँच गये अबुल फजल इतिहास लेखन वह एक महान राजनेता राजनायिक और सौन्य जनरल होने के साथ साथ उसने अपनी पहचान एक लेखक के रूप ने भी वह भी इतिहास लेखक के रूप में बनाई। उसने इतिहास के परत-दर-परत को उजागर का लोगों के सामने लाने का प्रयास किया। खास कर उसका ख्याति तब और बढ़ जाती है जब उसने अकबरनामा और आईने अकबरी की रचना की। उन्होने भारतीय मुगलकालीन सभ्यता को इन पुस्तकों के माध्यम से अच्छे तरीके से वर्णन किया है।
जानिये बिजनौर महान कियू है।
अकबर के नौ रत्नों में से एक अबुल फजल और फैजी दोनो भाई चांदपुर के पास बाष्टा कस्बे के पास किसी गांव के रहने वाले थे
कहते है कि मुगल बादशाह का काफिला जब भी किरतपुर से गुजरा था तो वह यहां पर अपना पडा़व डालते थे यहा पर शिकार खेलने के बाद अनेको बार नमाज अदा कि थी इसलिए मुगल बादशाह हर उस रास्ते पर अपनी यादें छोड़ते वही पर इस मस्जिद का निर्माण करा देते थे
मुगल शैली की इस मस्जिद के बारे में कहा जाता है कि जैसी अयोध्या में तीन गुम्बदों वाली बाबरी मस्जिद थी उसी की तरह इस मस्जिद की डिजाईन है और यह दिखने में हूबहू वैसी ही लगती थी जैसी अयोध्या की बाबरी मस्जिद थी।
यह छोटी लखोरी ईटो और गारे से मिल कर बनी जामा मस्जिद के बरामदे में दाखिल होते ही अरबी में लिखा पत्थर और उस पर लिखी आयतें इस मस्जिद की भव्यता और महत्व को प्रदर्शित करती थी। मुगलिया दौर की इस मस्जिद को बनाने में कई बातों का विशेष रुप से ध्यान रखा गया था खासकर वास्तुकला और शिल्पकला की नजर से इस इमारत की कई खास चीजें थी जो मुगलकाल की याद दिलाती है।
इस मस्जिद की दीवारे कयी फुट चौडी है और इसके गुम्बदों की ऊंचाई भी कई फुट ऊंची है जिसकी वजह से सर्दियों के महीने में सर्दी और गर्मियों के महीने में गर्मी का अकीदत मंदों को अहसास नही होता था। खुदा के करम से अब यह मस्जिद पुर्णिया वातानुकूलित हे मस्जिद को बनाने में छोटी और बडी ईंटों का प्रयोग के साथ ही पत्थरों का भी प्रयोग कर एक विशेष तरह की जुडाई कर तकनीक का इस्तेमाल किया गया था
मस्जिद में अकीदत मंदों की आवाज बाहर भी सुनाई दे इस बात का भी ख्याल इसकों बनवाते समय रखा गया था एक हाल से दूसरे हाल तक बिना किसी अवरोध के आवाज आ जा सकती है। मस्जिद में दो बडे हाल थे और एक बडा मैदान जिसमें तमाम लोग नमाज पढ़ सकते थे। गुम्बद की खास बात यह है कि इसमें जो शिल्पकारी की गयी है ऐसी शिल्पकारी अक्सर मंदिरों में भी देखने को मिल जाती है।
खास बात -----
अकबरनामा' एवं 'आइना-ए-अकबरी', दर के नवरत्नविशेष योगदानअबुल फ़ज़ल ने मुग़लकालीन शिक्षा एवं साहित्य में अपना बहुमूल्य योगदान दिया था।अबुल फ़ज़ल रातो को दरवेशों के यहाँ जाते थे उन्हे अशर्फ़ियाँ बाँटते थे और इस्लाम धर्म के लिए उनसे दुआ माँगवाते थे सन 1602 में बुन्देला राजा वीर सिंह देव ने शहज़ादा सलीम के उकसाने से अबुल फ़ज़ल का कत्ल कर डाला
बिजनौर जनपद में अत्तीत के गौरवशाली स्मारकों और धरोहरों की स्थिति आज अत्यंत चिंताजनक हो गयी है, हम आधुनिक शिक्षा, और तकनीकी के बल पर तब तक देश को विकसित और अग्रणी नहीं बना सकते जब तक हम अपने गौरवशाली अतीत और इतिहास का सम्मान करना न सीख जाएँ!आज के दौर में जब हम भुमंदालिकरण के संक्रामक दौर से गुजर रहे हैं ऐसे में तब यह और भी जरूरी हो जाता है कि हम अपनी संस्कृति और गौरवशाली इतिहास को आने वाली पिडियों तक पहुंचाए जिससे वो अपने इस देश के मान - सम्मान का परिचय प्राप्त कर सकें और"भारतीय होने पर गर्व कर सके !
प्रस्तुति-तैय्यब अली
Comments