गम बिजनौरी
एक थे ग़म बिजनौरी
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एक ज़माने में बिजनौर शायरों की नगरी कहा जाता था। शायरों में खूब हलचल रहती थी। जब किसी से मज़ाक़ होता था तो मज़ाक़ का यह दौर कई कई दिन चलता था।उन दिनों एक शायर होते थे ग़म बिजनौरी। ग़म साहब को लोग मज़ाक़ में बता दिया करते थे कि आपकी एक ग़ज़ल की अमुक शायर ने कॉपी मार ली है,बस फिर क्या था,ग़म साहब शहर के एक एक शायर के पास जाते और उन्हें बताते कि उनकी ग़ज़ल की कॉपी मार ली गई है। ग़म साहब का तरन्नुम कमाल का था। वे ऐसा झूम कर पढ़ते थे कि महफ़िल पर सकूत तारी हो जाता था। शहर के वरिष्ठ कवि रमेश राजहंस जी उनके तरन्नुम की हूबहू कॉपी कर देते हैँ। रमेश जी ग़म साहब को जब उनके ही तरन्नुम में कुछ सुना देते थे तो ग़म साहब उन्हें बहुत उल्टा सीधा कहते थे। ग़म साहब घूमने फिरने के बहुत शौक़ीन थे। वे शायरी के लगभग सभी कार्यक्रमों में शिरकत करते थे। जब कार्यक्रम नहीं होते थे तो वे कवियों-शायरों के पास जाते थे और उनसे ग़ज़लें सुनते और सुनाते। ग़म बिजनौरी साहब का पूरा नाम बाबू राम कुमार वर्मा था। उनका तखल्लुस ग़म बिजनौरी था।वे शम्भा बाजार बिजनौर में एक अमीर घराने मे एक जनवरी 1924 को पैदा हुए। उन्होंने अपनी किताब अब्रे बारां में लिखा है कि उन्हें स्टूडेंटस लाइफ से ही शायरी का शौक़ लग गया था। 7वीं 8वीं कक्षा में उर्दू के साथ साथ मौलवी हसीनुद्दीन व मौलवी अबुलहसन साहब उन्हें घर पर फ़ारसी व अंग्रेजी पढ़ाने आते थे।मौलवी अबुलहसन शायर थे। उनकी देखरेख में रामकुमार वर्मा "ग़म बिजनौरी" बन गये। ग़म साहब बहुत भले इंसान थे। इंसानियत उनमें कूट कूट कर भरी थी। वे लोगों से बेपनाह मुहब्बत करते थे। उनपर शायरी का जूनून सवार था। वे अपनी ग़ज़लें पूरी शिद्दत के साथ अहसास में डूब कर सुनाते थे। ग़म साहब 17 जुलाई 2002 को अपने परिवार व हम सबको ज़िंदगी भर का ग़म देकर इस दुनिया से रुख़सत हो गये। गम साहब को उन्ही के इस शेर के साथ हार्दिक श्रद्धांजलि---मेरी मंज़िल खो गई है आ के मंज़िल के क़रीब/जैसे कोई तिशना लब रह जाये साहिल के क़रीब।
मरगूब रहमानी
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